उत्तराखंड के दुर्गम रास्ते और स्वतंत्रता की अलख जगाती महिलाएँ.….

उत्तराखंड के दुर्गम रास्ते और स्वतंत्रता की अलख जगाती महिलाएँ

अंग्रेजों की दासता से पीड़ित हिन्दुस्तान की जनता 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द किया तो इस बगावत की चिंगारी धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गई। अपने -अपने क्षेत्र में हर स्तर पर स्वतंत्रता की या कहें स्वतंत्र होने की ललक जाग उठी , जिसका प्रभाव देश के सुदूर हिमालयी अंचल में बसे कुमाऊं  तक भी पहुँची। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए चेतना जाग्रत होने लगी। इस चेतना के कारण ही प्रयाग में जब 1912 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उसमें कुमाऊं  से पहली बार लोग प्रयाग पहुँचे ।

उत्तराखण्ड की विशिष्ट भौगोलिक सांस्कृतिक परिस्थितियाँ होने के कारण यहाँ की महिलाएँ देश के अन्य भागों की महिलाओं की तुलना में अधिकतः कृषि कार्यों में जुड़ी रही हैं. परम्परागत रूप से पहाड़ों की अर्थव्यवस्था की रीड, महिलाएँ रही हैं, इस कारण से उन्हें शिक्षा, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में सक्रिय भाग लेने का अवसर नहीं मिला. इसके लिए सामाजिक जातीय व्यवस्था की बंद दीवारें भी उत्तरदायी प्रतीत होती हैं. सन 1930 के राष्ट्रव्यापी जन जागरण व आन्दोलन के प्रभाव से पहली बार समूचा पर्वतीय समाज भी प्रभावित हुआ – फलस्वरूप इस युग से महिलाओं की सामाजिक स्थिति बदलने लगी थी।

उत्तराखण्ड में इस दिशा में सन 1921 ई. महात्मा गांधी की पहली कुमाऊं यात्रा के समय यहाँ की महिलाओं ने राजनैतिक- सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लिया। इसके कारण ही गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर श्रीमती हरगोविंद पन्त और बच्ची देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने अल्मोड़ा में अपना संगठन बनाया। यह पर्वतीय क्षेत्र में अब तक के इतिहास में पहला महिला संगठन था। इस संगठन के आरम्भिक कार्यक्रम पर टिप्पणी करते हुए साप्ताहिक ‘स्वाधीन प्रजा’ ( 16 अप्रैल 1930 ) ने लिखा था किझन्डा सत्याग्रह ( 1930 ) के दौरान पुलिस संघर्ष होने के कारण मोहन जोशी और शांति लाल के घायल होने के बाद श्रीमती कुंती देवी वर्मा, मंगला देवी, भागीरथी, जीवंती देवी ठकुरानी आदि महिलाओं का जत्था अल्मोड़ा नगरपालिका भवन पर तिरंगा फहराने के लिए प्रयत्नशील था। अतः हथियार बंद युवकों के साथ चल रही महिलाओं ने तिरंगा फहरा कर, जन संघर्ष का आह्वान किया।

कुमाऊं की यात्रा के लिए 11 जून 1929 को गांधी जी ,कस्तूरबा, जवाहरलाल नेहरु, आर्चाय कृपलानी, सुचेता कृपलानी, एवं देवदास दिल्ली से चले । 13 जून 1929 को बरेली से हल्द्वानी होते हुये गांधी जी नैनीताल 14 जून 1929 को पहुँचे. जिसके बाद महात्मा गांधी ने 14 जून की दोपहर को नैनीताल में एक सभा को सम्बोधित किया। उनके आगमन पर पहली बार महिलाएँ जुलूस और सभा में शामिल हुई। गांधी जी स्थानीय लोगों से बेहद प्रभावित हुए. सभा के लिए मल्लीताल में डिप्टी कमिश्नर से अनुमति ली गई थी। सभा के व्यवस्था की जिम्मेदारी गोविन्द बल्लभ पन्त, गंगा दत्त मासीवाल, कुँवर आनन्द सिंह, बच्ची लाल, इन्द्र सिंह नयाल, भागुली देवी को दी गई थी। सभा के बाद पहली बार ब्रिटिश सरकार ने नैनीताल के माल रोड में राजनैतिक जुलूस निकालने की अनुमति दी थी। 

स्थानीय लोगों ने बहुत ही गर्मजोशी के साथ गांधी जी का स्वागत किया । इस दौरान गांधी जी गोविंद लाल साह के ताकुल स्थित ” मोती भवन ” में रुके। गांधी जी के व्याख्यान से प्रभावित अनेक महिलाओं ने तब आजादी के आंदोलन के लिये अपने जेवर उतार कर उनके चरणों में रख दिये थे।

 स्वतंत्रता के लिये हर रोज तेज होते आंदोलन के कारण गांधी जी ने कुमाऊं ( नैनीताल ) में महिलाओं को चरखा कातने के लिये प्रेरित ही नहीं किया बल्कि उन्हें चरखा चलाने का प्रशिक्षण भी दिया। गांधी जी ने लोगों में आजादी के आंदोलन के प्रति जाग्रति भी पैदा की। कस्तूरबा गांधी ने महिलाओं को विशेष रुप से सम्बोधित किया और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता से भाग लेने के लिये प्रेरित भी किया।

गांधी जी अल्मोड़ा में रहे इस कारण वे नंदा देवी मन्दिर में होने वाली बैठकों में महिलाएंँ जाने लगी और इसके साथ ही स्वदेशी का प्रचार – प्रसार भी करने लगी। गांधी जी की पहली कुमाऊं  यात्रा के बाद महिलाओं में राजनैतिक चेतना का एक अलग ही प्रस्फुटन हो चुका था। इसका एक महत्वपूर्ण कारण कुमाऊं  यात्रा में गांधी जी की पत्नी कस्तूरबा गांधी का साथ होना भी था. गांधी जी की सभा में उन्हें सुनने वाली महिलाओं को लगा कि जब गांधी जी की पत्नी कस्तूरबा देश की स्वतंत्रता के लिए अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जनजागरण के लिए देश के कोने-कोने में जा सकती हैं तो उन्हें भी घर से बाहर निकल कर स्वदेशी का जनजागरण करना होगा।

 स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही 25 अक्टूबर 1930 को अल्मोड़ा के नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निर्णय किय गया। इसके लिए एक जलूस शहर में निकाला गया। जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं भी शामिल हुई। इस जलूस को पुलिस ने बल पूर्वक रोक दिया। पुलिस द्वारा किए गए लाठीचार्ज में मोहनलाल जोशी व शान्ति त्रिवेदी गम्भीर रुप से घायल हो हुये। इसके बाद भी जलूस में शामिल महिलाएँ घबराई नहीं और कुन्ती वर्मा, बिशनी देवी साह, मंगला देवी, भगीरथी देवी, जीवन्ती देवी, दुर्गा देवी पंत, तुलसी देवी रावत, भक्ति देवी त्रिवेदी, रेवती देवी आदि महिलाओं ने आगे बढ़कर जलूस का नेतृत्व किया।  पुलिस द्वारा जलूस को रोके जाने और लाठीचार्ज की सूचना मिलने पर बद्रीदत्त पान्डे व देवीदत्त पंत भी अनेक लोगों के साथ घटना स्थल पर पहुँचे। जिससे जलूस का नेतृत्व कर रही महिलाओं के हौसले और भी बढ़ गए और वे नगर पालिका में झण्डारोहण करने में सफल रही।

स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही बिशनी देवी साह को दिसम्बर 1930 में गिरफ्तार किया गया। जेल के कष्टपूर्ण जीवन को देख कर भी बिशनी देवी साह ने खुद को स्वतंत्रता आन्दोलन से अलग नहीं किया। जेल से रिहा होने के बाद वह स्वदेशी के प्रचार-प्रसार में लग गई। खादी के प्रचार के लिए उन्होंने पांच- पांच रुपए में चर्खा खरीदकर उसे घर-घर जाकर महिलाओं को बांटना शुरु किया और महिलाओं के समूह बनाकर चरखा चलाना सिखाया। वह अल्मोड़ा से बाहर निकलकर भी यह कार्य करने लगी। बागेश्वर में जब 2 फरवरी 1931 को महिलाओं ने स्वतंत्रता की मांग को लेकर जलूस निकाला तो बिशनी देवी साह ने उसके लिए अपनी ओर से आर्थिक मदद भी दी। वह स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों के बीच संदेश लाने व ले जाने का काम भी करती थी। आन्दोलन के लिए आर्थिक स्रोत भी वह जुटाती थी।
   
स्वतंत्रता आन्दोलन में लगातार सक्रिय रहने के कारण बिशनी देवी साह को 7 जुलाई 1933 को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें 9 महीने की सजा होने के साथ ही 200 रुपए का जुर्माना भी किया । जो उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी राशि थी । उनके पास जुर्माने की राशि अदा करने लायक रुपए नहीं थे, जिस वजह से उनकी कैद को बढ़ाकर एक साल कर दिया गया। पर स्वास्थ्य खराब होने पर उन्हें जल्दी ही रिहा कर दिया गया।   मकर संक्रान्ति के अवसर पर जब 1934 में बागेश्वर में उत्तरायणी का मेला लगा तो अंग्रेज सररकार ने मेले में धारा-144 लगा दी। पर बिशनी देवी साह ने धारा-144 की परवाह न करते हुए मेला स्थल पर खादी की प्रदर्शनी लगाई।

कुमाऊं में स्वतंत्रता आन्दोलन अंग्रेज सरकार के दमन के बाद भी लगातार तेज हो रहा था। आन्दोलन को तेज करने के लिए ही 1934 में ही रानीखेत में हर गोविन्द पंत की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक बैठक हुई। जिसमें बिशनी देवी को कार्यकारिणी में महिला सदस्य के तौर पर निर्वाचित किया गया। अल्मोड़ा के कांग्रेस भवन में 23 जुलाई 1935 को उन्होंने तिरंगा फहराया। तब कुमाऊं  में जनजागरण के लिए पहुँची विजय लक्ष्मी पंडित ने भी बिशनी देवी साह की स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका की प्रशंसा की थी। उन्होंने 26 जनवरी 1940 को अल्मोड़ा में एक बार फिर से झण्डारोहण किया और 1940-41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी भाग लिया। जब 1942 में कांग्रेस ने ” अंग्रेजो भारत छोड़ो” का नारा दिया और पूरा देश इससे आन्दोलित हो उठा तो बिशनी देवी साह ने भी अल्मोड़ा में इस आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की।

जब 15 अगस्त 1947 को देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ, लाल किले पर तिरंगा फहराया गया, उस समय बिशनी देवी साह ने अल्मोड़ा में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के साथ निकाले गए विशाल जलूस का नेतृत्व किया।

 1974 में उनका निधन हो गया. देश की आजादी के लिए बिशनी देवी साह जैसे स्वतंत्रता के जुनूनियों ने अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया।

उत्तराखंड की तमाम महिलाओं ने उस समय देश की आजादी के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपने -अपने सामर्थ्य की तहत उन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्त्र निछावर किया, ऐसी महान विभूतियों से हमें प्रेरणा मिलती है और उनकी जीवटा का प्रमाण है कि हम आज स्वतंत्र भारत देश में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

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2 thoughts on “उत्तराखंड के दुर्गम रास्ते और स्वतंत्रता की अलख जगाती महिलाएँ.….

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