क्या नाम दूँ

क्या नाम दूँँ

जैसे ही डॉक्टर यादवेंद्र ने अपना बैग उठाया घर जाने के लिए तो उनके स्टाफ का स्टॉप बाय ने उनका बैग लपक लिया, हॉस्पिटल के पार्किंग में अपनी गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे गाड़ी का गेट खोला ही था की इसके बाद क्या हुआ उन्हें कुछ भी याद नहीं, जब होश आया, सुसज्जित कमरे में एक मरीज के पलंग के पास खड़े है।

उस कमरे का अजीब सा माहौल है, कुछ रूहानी और कुछ ऐसा जो डॉक्टर यादवेंद्र ने अपनी जिंदगी में कभी इस तरह की खुशबू का आनंद नहीं लिया है, यह जानी पहचानी खुशबू भी नहीं है कुछ अलग ही है, इस माहौल को शब्दों में व्यक्त करना थोड़ा कठिन सा लग रहा है । पलंग पर झक सफेद चादर में एक महिला लेटी हुई है, बेहद खूबसूरत, पलके बंद है पर लग रहा है कि वह डॉक्टर यादवेंद्र को देख रही है सोचकर ही पूरे शरीर में सिरहन दौड़ गई एक अजीब सी सिरहन।

“इन्हें कुछ दिनों से बेहोशी बनी रहती है। आँखें पल दो पल को खोलती हैं, कोई दवा दें जिससे यह ठीक हो जायें।’’…सर्द ठंडी आवाज गूँजी, डॉ यादवेंद्र ने आवाज की तरफ रुख किया वहाँ कोई नहीं है उन्हें अंदर तक कंपकपाहट महसूस हुई।

“मैं, दवा लिख देता हूँ, समय-समय पर दे दीजिये।’’..डॉ. को अब युवती को छूने में भी डर लग रहा है, समझ में भी नहीं आ रहा कि उसे हुआ क्या है, फिर भी पीछा छुड़ाने की गरज से बोले ?

पर्चा तो लिखा, पर वह असमंजस में है कि तभी एक साया आया और पर्चा लेकर चला गया। डॉ. यादवेन्द्र जाने को उद्यत हो गये।

“नहीं डॉक्टर, आप इनके ठीक होने पर ही यहाँ से जा सकते हैं।’’… आवाज आई।

‘‘आप लोग दवा देते रहेंगे तो यह ठीक हो जायेंगी, मेरी वैसे भी अब कोई जरूरत नहीं है।’’…हिम्मत कर कह गए।

‘‘नहीं, जब तक यह पूरी तरह से ठीक नहीं होती, तब तक आप नहीं जा सकते।’’…सख्त स्वर हवा में तैरा।

डॉ. यादवेन्द्र के माथे पर पसीना झलक आया, अब मजबूरी है, क्योंकि आवाज इतनी सर्द ठहरी हुई है कि प्रतिरोध करना उनके बूते के बाहर हैं, इतने में ही दवा आ गई। हवा में लटकते पैकेट को यादवेन्द्र ने पकड़ा और उसमें से दवा निकाल कर इधर उधर देखा पानी का ग्लास कहीं नजर नहीं आया वह सोच ही रहे थे कि एक भरा हुआ ग्लास सामने आ गया।

‘‘उठिए दवा ले लीजिए।’’… डॉ. ने युवती को आवाज दी, वह नहीं उठी।

‘‘उठिए प्लीज।’’… पुनः पुकारा, अब उन्होंने पानी का ग्लास उठाया और ‘‘प्लीज मुँह खोलिए।’’… युवती ने मुँह खोल दिया। पानी पिलाते वक्त उनकी पीठ को सहारा देकर उठाना पड़ा। इतनी भारी, मानो लोहे का टुकड़ा हो। दो घूँट पान पिलाकर उसे फिर लिटा दिया। डॉ. हाँफ इतना रहा हैं मानो मिलों दौड़कर आयें हों।

घड़ी पर नजर गई रात के डेढ़ बज रहे हैं, एक डोज और देने तक भोर हो जायेंगी सोचकर बैठ गये, फिर ध्यान आया यह दवाँए तो मात्र टॉनिक हैं, इन्हें बीमारी क्या है? समझ ही नहीं आ रहा है। अगर यह सुबह तक ठीक नहीं हुई तो यह लोग मुझे जाने नहीं देंगे, सोचकर आला उठाकर पुन: जाँच करने लगे। शरीर के कई हिस्सों में लगा वहाँ का भाग ही गायब है, अथक प्रयास के बाद गर्दन की नसों के टिश्यू मृत नजर आये। इसी कारण यह कभी थोड़ी देर के लिए, कभी-कभी बहुत समय के लिए बेहोशी की हालत में रहती हैं।

‘‘इनका तो इलेक्ट्रॉनिक मशीन द्वारा आपरेशन करना होगा।”… इधर-उधर देखते हुए डॉ.यादवेन्द्र बोले।

‘‘मशीन कहाँ है?’’.. आवाज़ आई।

‘‘मेरे हॉस्पिटल में ही उपलब्ध है मशीन, चलिए इन्हें वहीं ले चलते है।’’. डॉ यादवेंद्र ने समझाने के लहजे में कहां।

‘‘नहीं मशीन यहीं आ जायेंगी।’’ और मात्र पन्द्रह सेकेण्ड में मशीन पूरे
साजो-सामान के साथ हवा में उड़ती हुई वहीं आ गई।

जिस तरह उनके हॉस्पिटल में मशीनें लगी हुई थी उसी तरह उस कमरे में व्यवस्थित हो गई, डॉक्टर यह समझ ही नहीं पा रहा था कि यह सपना है या हकीकत, जहाँ डर है वही उस मरीज को ठीक करने की फिक्र होने लगी।

स्वयं के लिए पानी माँगा, जो-जो चीज भी डॉ. माँग रहे हैं तुरन्त उपलब्ध हो रही है।

एक्सरे हुआ तो उसमें उनके अनुमान के अनुसार ही रिर्पोट आई, किसी विशेष हिस्से का एक्सरे नहीं है। पूरी बॉडी का कंकाल ही उतर आया है। मेडिकल के स्टूडेंट रहे डॉ. यादवेन्द्र कभी इन अदृश्य योनियों में विश्वास नहीं कर पाये किन्तु यहाँ का विचित्र महौल उन्हें अंदर से ठंडी सिहरन दे रहा है। बोलने वाला व्यक्ति लगता है कि पास खड़ा है, दहशत बढ़नी शुरू हो गई फिर भी डॉ. ज़ब्त किये जा रहे हैं।

अब आपरेशन करना था। सारे स्ट्रूमेंटस हवा में लटक गये वह अपनी सुविधानुसार उपयोग कर रहे हैं। ऑपरेशन चार बजे समाप्त हुआ। टांके लगाकर यादवेंद्र अब कुर्सी पर बैठे गहरी-गहरी साँस ले रहे हैं।

एक तो पूरी रात जागते बीत गई, उस पर अकेले ऑपरेशन करने का उनका यह पहला अनुभव था। ऑपरेशन सफलतापूर्वक होने पर वह राहत महसूस कर रहे हैं।

‘‘इन्हें छोड़ आओ, डॉ. आपको एक दो दिनों बाद पुनः आना होगा।’’…तभी आवाज आई।

डॉ.यादवेंद्र की हवा में उड़ती एक काली पट्टी आँखों पर आ कर बँध गई। सीढ़ियाँ चढ़ी-उतरी जाने लगी, घर के सामने जब उनकी आँखों पर से पट्टी खुली और डॉ. यादवेंद्र थोड़ा सामान्य हुए और पलट कर देखा तो उन्हें लेकर आने वाली कार गायब है।

सुबह जब वह अस्पताल गये तो सोचा, मशीन तो आई नहीं होगी, पर यह देख कर डॉ. को बड़ा आश्चर्य हुआ, मशीनें यथावत रखी हैं।

तीन दिन यूँ ही गुजर गये। डॉ. ने भी सामान्य घटना समझ कर भूलने का प्रयास किया कि चौथी रात पुनः उन्हें उठा लिया गया।

पहले की तरह ही उन्हें कमरे में पहुँचाकर उनकी आँखों से पट्टी खोली गई। माहौल और खुशबू भी उस दिन जैसा ही है, उन्होंने सामान्य होने पर देखा कि युवती पलंग पर बैठी है। उसकी आँखों का तेज यादवेन्द्र झेल नहीं पा रहा हैं नजरें हटा ली, इतनी खूबसूरती उन्होंने आज तक नहीं देखी, चारों ओर प्रकाश छिटक आया है, धवल, उज्जवल, शांत सा माहौल,लग रहा है जैसे एक साथ बहुत सी पवित्र आत्माएँ एकत्रित हो गई है, बहुत ही भीनी-भीनी खुशबू फैली हुई है। यह जेसमीन की भी खुशबू नहीं लग रही, पता नहीं किस तरह की है लेकिन है बेहद मनभावन, डॉ. यादवेन्द्र को तो यहाँ का वातावरण सम्मोहित कर रहा है।

“अब आप कैसी है?’’…हौले-हौले पलंग की तरफ बढ़ते डॉ. यादवेन्द्र ने पूछा।

‘‘आपको कैसी लगती हूँ?’’.. उलटा प्रश्न किया गया।

इतनी मधुर आवाज जैसा लगा सातों स्वर गूँज उठे। डॉ. एक क्षण ठिठक गया।

‘‘आप तो बिल्कुल स्वस्थ्य लग रही हैं। लाइये टांके देखें। अब कैसी स्थिति में हैं।’’… कहते हुए डॉ. यादवेन्द्र युवती के नजदीक आ गये। उसके बदन की खुशबू ऐसी की तन-मन रसमय हो रहा है फिर भी स्वयं को मजबूत कर, टांके देखते रहे।

“आपका नाम।”….पर्चा उठाते हुए पूछा।

‘‘रानी।”…

‘‘ यह ट्यूब लिख रहा हूँ, मंगवा लें, लगाते रहिये बहुत जल्दी घाव भर जायेंगे।’’…अब डॉ. का डर कुछ कम हो गया हैं।

‘‘…………………’’ कोई उत्तर नहीं मिला।

‘‘अब मैं चलता हूँ।’’…अपना बैग उठाते हुए डॉ.यादवेंद्र बोला।

‘‘डॉ. आपकी फीस?’’ रानी ने पूछा

‘‘जो उचित समझें ।’’ ..कोई अनहोनी न घट जाये की शंका से घीरे से डॉ. ने झट कह दिया।

युवती ने अपनी अँगूठी निकाली, हाथ आगे बढाया। इतनी खूबसूरत वह अँगूठी, सफेद नंगों वाली उसकी आभा के सामने नजरें ही नहीं टिक रही है, उस अँगूठी के चारों ओर सफेद प्रकाश फैला है। यादवेन्द्र उस अँगूठी की आभा से ही विचलित होने लगा इतना तेज वह अपने पास रखेगा कैसे ।

“कृपया यह रहने दें, मुझे कोई फीस नहीं चाहिए।”…डॉ ने हिम्मत कर कह दिया।

वह मुस्कराई, फिर धीरे से खड़ी हो गई, अँगूठी डॉ. की ओर बढ़ाई, बेख्याली में डॉ.ने हाथ बढ़ा अँगूठी ले ली, नजरें मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रहा हैं, अँगूठी देखता रहा। कुछ ऐसा अप्रत्याशित घटा की डॉ. की समझ के परे हो गया।

उस अप्सरा ने डॉ. के नजदीक आ बाहों में भरकर गाल पर एक जोरदार चुंबन जड़ दिया। मादकता का तीखा प्रहार न सह पाये डॉ. यादवेंद्र और बेहोश हो गये।

आँख खुली तो ख़ुद को घर के सामने पाया, हाथ में अँगूठी चमक रही हैं। सफेद नग की खूबसूरत अँगूठी को देखकर सोचने लगे, यह अँगूठी इस बात का प्रमाण हैं कि यह सपना तो नहीं ही है, ओर यह हकिकत है तो इतना अदभुत प्यार का एहसास मिला जिसे वह कभी नहीं भूल सकता और किसी को बताया तो कोई विश्वास भी नहीं कर सकता, क्या नाम दे इस एहसास को!

जीवन के अड़तिस वर्ष चिकित्सा क्षेत्र में काम करते हुए गुजार दिए, लेकिन ऐसा अद्भुत मरीज और ऐसा अद्भुत ऑपरेशन उन्होंने आज तक नहीं किया, अब उन्हें कहीं न कहीं लगने लगा है कि यह जो कुछ भी उनके साथ घटा है यह उस लोक की क्रिड़ाएँ हैं जिन्हें इस लोक के साथ नहीं जोड़ा जा सकता।

यह घटना डॉ. यादवेन्द्र के भाग्य का एक बहुत ही उज्जवल पक्ष है, जिसे अपने दिल में ही जप्त कर रहेंगा, इतने अच्छे अनुभव को वह सदा याद रखेंगे, जब भी उस क्षण की याद आती है, उस अँगूठी को सहला लेते है, मन मदहोशी के सागर में गोते लगाने लगता है उफ..क्या नाम दूँ तुम्हें, प्यार की तृप्त मूर्ति तुम अदभूत हो, मेरे जीवन की बहुमूल्य निधी, तमाम उम्र दिल में रहोगी।

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© अंजना छलोत्रे “सवि”

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