प्रकृति है माहिर
कोयल की कूक
प्रकृति की पंचम स्वर लहरी
गूंज उठी अमलाई में
लो ! शुरू हो गए गीत महोत्सव ।
कालचक्र की तरुणाई में
ऋतुराज का
मनभावन रंग छाने लगा
उपवन के ह्रदय तल में
पुष्प खिलने लगे सुगंधित।
गीत सुनाने में भंवरे
हो या नदियों का जल
दे रहे पक्षियों का साथ।
दौड़े मन के पनघट पर
उमंगों के मृगशावक
प्राची की चंपई देह सिंदूरी हुई
ओढ़ा दी लाल चुनरिया धरती को
चुपचाप सूरज ने।
नदियों के संगम पर
गूंजे फागुन के गीत
यहाँ वहाँ
स्वर लहरी के आंगन में।
धरती की श्रृंगारदानी
खुल जाती हर मौसम में
यही तो है मधुरम घड़ी
बटोरो अपने तन मन में
यह अनमोल निधि
प्रकृति है माहिर
पल-पल छवी बदलने में।
©A