आसमान बुनती औरतें

भाग (70)

“सर आप भी…” आगे क्या कहे हर्षा सोचती रह गई।

“ठीक है, आप परेशान न हो, मैं समझ रहा हूँ, ऐसा करते हैं रविवार को सुबह जल्दी निकल चलेंगे शाम के पहले वापस आ जायेंगे।”.. विनय समझ रहा है कि हर्षा के चेहरे पर उलझन भरे भाव उभर आये होंगे।

“जायेंगे कहां।”…

“सोचा नहीं है साथ में बैठकर सोच लेंगे और चल देंगे, मकसद तो कुछ समय साथ बिताने का है अगर आप तैयार हो तो,।”…

“रविवार की तो छुट्टी है काम तो कुछ नहीं है चला जा सकता है।”… हर्षा ने स्वीकृति देते हुए कहां।

“यह बहुत बढ़िया बात हो गई, तो तय रहा, हमरे मेहमानों का नाम पता भिजवा देता हूँ आप देख लेना।”…

“जी सर, आप भेज दीजिए मैं देख लेती हूँ आप मेहमानों के लिए बेफिक्र रहिए पूरा ख्याल रखा जायेगा।”…हर्षा बोली।

“तो फिर ठीक है रविवार को मिलते हैं, बाय।”… विनय ने कहते ही फोन रख दिया।

हर्षा रिसीवर लिए ही बैठी रह गई, यह बड़ी गंदी आदत है बात का जवाब भी नहीं लेते इसके पहले ही फ़ोन रख देते हैं।

चाहे जो हो पर लगता तो अच्छा ही है और जब ज्यादा दिन तक फोन नहीं आता तो उधर भी बेचैनी होने लगती है यह तो अभी गनीमत है कि हर्षा अपने आप को संभाले हुए हैं वरना राखी जैसा हाल हो जाएगा, पल-पल की खबर रखी जाने लगेगी, ऐसा लगेगा जैसे कोई काम रह नहीं गया है बस फोन और फोन, पूरी जासूसी पर उतर आयेगी, अब क्या हो रहा है, कहां हो, किससे बात कर रहे हो, क्यों कर रहे हो, में ही उलझी रहेगी।

कहां तो हर्षा अपना ध्यान भटकाने के लिए अपनी सखियों के विषयों फिर आफिस के कामों में उलझी रहना चाहती है लेकिन यदा कदा विनय सर का फोन आ ही जाता है और वह फिर दिल के रास्ते में चक्कर लगाने लगती है।

फोन की घंटी से हर्षा को सचेत किया, रिसीवर उठाआ, दूसरे कामों में लग गई, वह तो चाहती ही है कि जितना ज्यादा व्यस्त रहें उतना उस विषय से दूर रहेगी जिसे सोच कर उलझन होती है क्योंकि अभी दिमाग मैं कोई भी तस्वीर स्पष्ट नहीं है।

क्रमश:..

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