इंचीटेप
मेरे पास ऐसा
कोई इंचीटेप होता
जिससे मैं
दर्द की गहराई
नाप लेती
शायद
बर्दाश्त करने की
कुछ सीमा भी
निर्धारित हो जाती
फिर दर्द के उठते
ज्वाभाटा को मैं
अपनी पतवार से
बह निकलने की
धार पर धकेल देती
कुछ तो दर्द का
कसैला हिस्सा बह जाता.
तब शायद दर्द मैं
वह ज्वर न होता
की मेरे होने को
ललकार कर
हर पल
प्रताड़ित कर जाता
जहाँ कसमसा कर
हार कर
कुछ न कर पाने
की टीस,बैचेनी
अपना दम तोड देती …
तब हा तभी
यह दर्द मुझसे
जब देखो तब
उलझने नहीं आता…..।