प्याला भर प्यार

कांस में बना वह घर जिसे देखने वह दूर शहर से आई है, बहुत सुना था घर वालों से, नया घर बनाया हैं बुआजी ने, बुआ ने भी कहा था आ जाना कभी हमारे घर भी। उसने भी आने का वादा कर दिया था,और वह आज पहुंँच भी रही हैं।

पिछड़े वर्ग को दिया गया वह जमीन का टुकड़ा, जमीन मालिक ने बुआ जी को बेच दिया हैं, उसी लाइन में छोटे-बड़े सभी रह रहे हैैं, दलहान के बाद एक लंबा कमरा जो रसोई, शयनकक्ष भी हैं, जिसमें साल भर का अनाज की कोठियाँ भी रखी हैं, एक बास दो रस्सियों से लटक रहा हैं जिस पर कपड़े टांगे हैं, उस छोटे से कमरे में व्यवस्थित सामान जमा है, छत खपरैल की बनी हैं, कमरे में प्लेटफार्म की तरह जगह छोड़कर,मिट्टी से चबूतरा बना उसे गोबर से लिप दिया गया है, छोटा मोटा सामान आराम से उस पर रखा जा सकता है। छत की सीढ़ियाँ बास की बना रखी है जिससे बरसात में खपरैल पलटने के लिए भी काम लिया जा सके, आगे तुअर की खाड़ी से छपरी बना रखी हैं, गर्मी में खाना वही बाहर ही पकाया जाता है।

सामने ही बिजली का खम्बा हैं जिससे रोशनी दलहान तक आती है, गर्मियों में बिजली कम ही जलाई जाती, एक मिट्टीतेल का भपका ही रोशनी का काम कर देता।

सांझ होते ही बाहर बिस्तर आँगन में लगा दिए जाते ओर बस्ती से बाहर एक लाइन से बने यह कच्चे पक्के मकान अनुशासन का जीवंत उदाहरण बन निद्रा की आगोश में खो जाता ।

उस पूरी लाइन में मुख्य द्वार से ही गंदे पानी की निकासी बनी हुई है, उन्हीं गड्ढो में से प्लास्टिक पाइप द्वारा नल बाहर निकाल पानी भरा जाता है, बच्चे बाल्टी,लोटा, भगोना जो भी छोटा बर्तन होता भरने दौड़ जाते, उस चिल्ल-पों में ही शायद पक्षी जाग जाते हैं। वहाँ पानी की किल्लत का नजारा देख मन कसैला हो गया। बुआ बेचारी बड़ी शर्मिंदगी महसूस कर रही थी।

” यह स्थिति तो शहरों में भी छोटी बस्तियों में होती है बुआ जी”, उन्हें इस स्थिति से उबारने के लिया उसने कहा।

“क्या पता बेटा, एक तो अच्छा खासा पाँच चश्मे का मकान और बाड़ा छोड़ इस जगह आ बसे… तुम्हारे फूफाजी, इस नर्क में मेरा तो दम घुटता है, कैसे अपने परिवार वालों को यहाँ बुलाऊँगी, बड़े भैया, यानी उसके ससुर तो अभी तक आये ही नहीं, उन्हें तो गाँव छोड़कर यहाँ बसना पसंद ही नहीं था”,… बुआ उदास हो गई।

“कोई बात नहीं बुआ, अब यहाँ अच्छा मकान बना लेना, तब तो अच्छा लगेगा”…उसने सांत्वना सी दी।

” कहाँ बहू, मलेच्छों के बीच सोने का भी मकान बनवाओ तो क्या खाक अच्छा लगेगा, फिर बनाए भी कौन, एक भाई जीवन भर कुंवारा रहा, फूफा जी तुम्हारे बूढ़े हो चुके हैं, दोनों बेटे शहर नौकरी करने बहू बच्चों के साथ जा बसे, हम यहाँ मकान बना कर क्या करेंगे बहू”… वह उनके चेहरे पर उभर आई झुरियों के बीच दु:ख की रेखाएँ साफ देख रही थी, उन्हें छोटे बेटे के पास रखने की बड़ी लालसा थी, किंतु वह भी अपने बड़े भाई के साथ शहर चला गया।

“यहाँ अपना जीवन बर्बाद नहीं करूँगा बाई”.. हरिया बोला था।
” बेटा, हम भी तो रहते हैं, क्या दुख है यहाँ?”
जानती हो क्या बोला था वह,..” तुमने तो अपना जीवन बर्बाद किया, मेरा भी करोगी, मैं अपना जीवन यहाँ नहीं बिता सकता”..स्वर मैं उदासी झलक आई।
उसकी तरफ मुखातिब होकर बोली…” क्यों बहू, क्या हमने इनका जीवन बर्बाद किया है? पाला-पोसा, खिलाया, पिलाया क्या यही सब सुनने के लिए”,… बुआ रुआंसी हो गई।

“अरे नहीं बुआ, अभी अकल नहीं है, तभी ऐसा कह गया, थोड़ा समझदार होने दो, उसे अपनी गलती का अहसास अवश्य होगा”, दर्द बच्चों के बिछड़ने का था, बुआ आँसू बहाती रही।

” बहू, तुम ही कभी कभार आ जाया करो, कितना अच्छा लग रहा है, बच्चों को भी ले आती तो हम भी उन्हें देख लेते”,…उनका मातृत्व भर आया था ।

प्रेम कितना निश्चल होता है, कष्टों के बीच भी प्यार का प्याला कभी रीता नहीं था।

फूफाजी इतने सीधे कि प्रत्येक बात बुआ को ही समझानी होती,
” यह तो.. आज भी बच्चे ही हैं”,

फिर थोड़ा चिढ़कर बोली… भैया की बड़ी बहू आई है, डगरा ही खरीद लाओ, बैलगाड़ियाँ खड़ी होंगी अभी तो”…,
वह नहींं, नहीं ही करती रही गई । बुआ ने फूफाजी को एक थैले में गेहूँ भर कर भिजवा दिया।

“यहाँ गंजाल से बैलगाड़ी में भरकर डगरे, तरबूज, ककड़ी बिकने रोज आते हैं, ले आने दे, दो या तीन पाई गेहूँ में, अच्छे बड़े तरबूज, खरबूज मिल जाते हैं, पैसे नगद थोड़े ही देने होते हैं,” बुआ ने सहजता से यह बात कह दी।

खेती-बाड़ी होने के कारण गाँव में अक्सर सामान गेहूँ से खरीदा जाता है। बेचने वाले भी अपने साथ नापने की पाई और थैला रखते हैं ।

फूफाजी एक बड़ा सा तरबूज कन्धे पर रख दोनों हाथों से पकड़कर चले आ रहे हैं । उनकी चाल में ऐसी मस्ती है मानो वह आज भी जवान है। ऐसा लगा, जैसे बहुत दिनों बाद आज डगरे की जगह खुश होने का सामान उठा लाए हो, नजदीक आने पर उनकी धीमे-धीमे गुनगुनाने की आवाज बुआ को भी शर्माने को मजबूर कर गई। जहाँ सारे विशाद धाराशाही हो गये।

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