गहरे पैठी मान्यताएँ

किशन ने जैसे ही कश्यप साहब के पैर छुए वे पीछे हट गए… “अरे यह क्या कर रहे हो” “अंकल, आशीर्वाद दीजिए मेरा सिलेक्शन एसआई के लिए हो गया है।”
“अरे वाह बधाई हो”, कहते हुए कश्यप साहब ने किशन से हाथ मिलाया।
“अंकल, मुझे कुछ बात करनी है आपसे”।
” हां हां… बैठो”
“अंकल, आप तो जानते हैं कि सुजाता और मैं एक साथ पढ़े हैं हम दोनों एक दूसरे को पसंद भी करते हैं। हम चाहते हैं कि आप के आशीर्वाद से हम लोग विवाह बंधन में बंधे, मेरे घर वालों को मैंने मना लिया है वह तैयार हैं।

कश्यप साहब अच्छी तरह से जानते थे कि किशन उनके समाज का नहीं है किंतु हष्ट पुष्ट शरीर का धनी किशन उन्हें हमेशा से पसंद था ! कहीं मन में चाह तो थी कि उनकी बेटी का वर किशन जैसा हो,किशन ही हो, यह कभी नहीं सोचा था। आज अचानक किशन के प्रस्ताव से वह परेशान हो गए। उन्हें पता है कि उनकी पत्नी जो कट्टर जातिवादी को मानती है, यह बात इस जन्म में तो मानने से रही।
“तुम्हें पता है किशन, हम यही पास के गाँव के रहने वाले हैं, समाज से हटकर शादी करना शायद हमारे लिए संभव ही नहीं होगा,” मन की इच्छा को दबाते हुए कश्यप साहब बोले।

“अंकल, आप तो पढ़े लिखे हैं, बच्चों की भलाई के लिए मां-बाप बहुत से समझौते करते हैं मेरे माता-पिता भी तो समझौता कर रहे हैं फिर आप क्यों नहीं कर पाएंगे”,किशन ने अपना पक्ष रखा।
“बात मेरी नहीं है, मेरी पत्नी की है, मेरा परिवार कभी यह बर्दाश्त नहीं कर पाएगा, सुजाता के मामा तो हिंसक प्रवृत्ति के हैं, कुछ भी कर गुजरने में पीछे नहीं रहेंगे, इसलिए बेटा अपनी और सुजाता की भलाई के लिए दोस्ती तक ही सीमित रहो तो बेहतर होगा ” कश्यप साहब ने अपनी स्थिति स्पस्ट की।
“अंकल, आप ही ऐसी बातें करेंगे तो कैसे काम चलेगा” किशन ने कहा।
“किशन, मैंने अपनी स्थिति स्पष्ट की है, मैं जानता हूँ कि कितनी ही बहस कर लोगे फिर भी नतीजा एक ही निकलेगा, मैं अपनी पत्नी को ही नहीं समझा पाऊँगा, तो फिर किसी और के बारे में क्या कहूँ,” कश्यप साहब ने असमर्थता व्यक्त की।
“अंकल, प्लीज… आप एक बार आंटी से बात करके तो देखिए”,…किशन ने आग्रह किया।
“ठीक है, तुम कहते हो तो बात करके देखूँगा, किंतु तुम कोई उम्मीद मत लगाना।”

किशन कुछ देर बाद चला गया । कश्यप साहब निढाल हो कुर्सी की सीट पर टिक गए, उन्हें आज के जमाने का अंदाज तो है ही, लेकिन उनकी नन्ही परी बड़ी हो गई, कब प्यार करने लगी उन्हें खबर तक नहीं हुई, वह तो उसकी शादी के लिए लड़कों को देखने के लिए एक नजरिया ही तैयार करते रहे, ऐसा नहीं, ऐसा लड़का उनका दामाद बनेगा। और आज पता चला कि बेटी ने खुद अपनी पसंद का लड़का चुन लिया । हालांकि किशन जैसे लड़के की चाह उन्हें भी थी, किंतु किशन नहीं, अपने ही समाज का ऐसा लड़का होता तो सुजाता की मां को समझाना आसान हो जाता।

कश्यप साहब ने जब पत्नी से बात की तो वह सकते में आ गई। उनकी बेटी ने ऐसे कैसे किया। उन्होंने वही किया था जो उनके माता-पिता को उचित लगा था उसने तो कोई इक्छा नहीं रखी न ही उनके निर्णय का विरोध किया, फिर उनकी बेटी ने ऐसा करने की हिम्मत कैसे की।
“यह शादी हरगिज़ नहीं होगी, इसकी पढ़ाई बंद करो, बिरादरी का लड़का तलाश करो, और जितनी जल्दी हो सके शादी कर दो” दो टूक जवाब दे दिया सुजाता की मां ने।

कश्यप साहब ने जमाना देखा हैं, बालिग बच्चों पर जोर जबरदस्ती के परिणाम भी देखते सुनते रहे हैं, यदि पहले न बता कर शादी के बाद बताते तब क्या करते, सोच कर ही सहम जाते हैं। सुजाता की मां का तर्क हैं कि ऐसे में सुजाता के लिए हम लोग मर गए होते, हम उसका मुँह भी नहीं देखते।

कश्यप साहब सुजाता से किस ढंग से बात करें, यही सोचते रहे, डर बना रहा कि यदि बगावत पर उतर आई, तो क्या कर लेंगे, बच्चों से इस तरह डरना पड़ेगा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था। डर था ही इस बात का कि सुजाता से किशन की बात करने पर सहमति की मोहर ही लगेगी, जिसे वह जानते बूझते भी सुनना नहीं चाहते हैं।

पति पत्नी की मानसिक उथल-पुथल में सुजाता की हिम्मत व उसके साहस पर उन्हें आश्चर्य होता कि इस लड़की ने ऐसा कार्य किया कैसे, कहाँ हमसे चूक हो गई इसकी परवरिश में? जिससे इसने हमारी इज्जत को दांव पर लगा दिया । क्यों नहीं सोचा कि हम कैसे जीयेंगे इस समाज में, सारी जिंदगी दूसरों की नजरों में दया के पात्र बने रहेंगे, लोग हम पर तरस खाएंगे, हमारी ही ढील व ठीक परवरिश न कर पाने का ताना मारा करेंगे, कैसे जीयेंगे हम, सुजाता से दूर रह पायेंगे, उसने तो हमसे दूर रहने का फैसला कर लिया है। इस सोच के पीछे गुस्से की एक ऐसी परत थी जो शांत हो ही नहीं रही थी। रह रहकर कई तीखे सवालों के दंश उनको बुरी तरह आहत किए दे रहे थे, उनके सामने वह घट रहा था जो अन सोचा था,जिसका जवाब तो था लेकिन गहरे पैठी मान्यताओं के रहते कसमकस बरकरार हैं।

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