उत्तराखण्ड की प्राकृतिक व ऐतिहासिक पृष्ठभूमि…The natural and historical background of Uttarakhand..

उत्तराखण्ड (पूर्व नाम उत्तरांचल), उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है, जिसका निर्माण 9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात् भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया था। सन् 2000 से 2006 तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया।

∆> घाटी की खुबसूरती फूलों की बहार

सुंदरता की कोई मिसाल नहीं है क्योंकि कुमाऊँ में रंग बिरंगे फूल बहुत होते हैं जिसमें मुख्य ये हैं – बेला, चमेली, चंपा, गुलाब, कुंज, हंसकली, केवड़ा, जुही (जाई), रजनीगंधा (हुस्नहाना), गेंदा, गुलदावरी, डलिया, गुलबहार, मोतिया, नरगिस, कमल, सूर्य व चन्द्र तथा अन्य प्रकार के। शिलिंग, जिनकी सुगंध दूर तक फैलती है, इन पर्वतों का एक खआस फूल है। यह सितंबर के बाद फूलता है। बुरांस जब बसंत में जंगलों में खिलता है, तो टेसू से कई गुना सुन्दर दिखाई देता है। गुल बाँक भी कई तरह के होता है।

अँग्रेजी फूलों में ऐस्टर, बिगोनिया, डलिया, हौलीहौक, कैलोसिया, कौक्स कौम, टफूशिया, स्वीट विलियम, स्वीट सुल्तान, जीरेनियम, पिट्रेनियाँ, जिनियाँ, डेजी, कागजू फूल आदि होते हैं।

देशी फूल खुशबूदार होते हैं। अँग्रेजी फूल देखने में उत्तम होते हैं, पर विशेषत: निर्गेध होते हैं।

हिमालय के पास तथा जंगलों में नाना प्रकार के जंगली फूल खिलते हैं, जिनमें कई बड़े सुन्दर या खुश्बुदार होते हैं। कुछ जहरीले भी होते हैं।

∆> कला और शिल्प की परम्परा

 कुमाऊँ मंडल की कला और शिल्प की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। इनकी हस्तकला तो विरासत में प्राप्त हुई है। कुमाऊँ वासियों की अर्थव्यवस्था इससे काफी सुदृढ़ बनी है। सुदुर अंचलों में, हिनालय की बर्फीली वादियों में भी शिल्प की परम्परा हर क्षण पल्लवित होती रही। कालीन, गलीचे, दन, कम्बल, चुटके, थुलमें जैसी हस्तशिल्प की परम्परा एक ओर तिब्बत का सीमा क्षेत्र करीब होने तथा स्थानीय जरुरतों से घर-घर में पनपी तो दूसरी ओर किंरगाल तथा बांस के बने डोके, डलिया सूपे आम जन की रोजमर्रा की जिन्दगी की अनिवार्य वस्तु हो जाने के कारण इनकी निर्माण विद्या स्थानीय उद्योग के रुप में विकसित हुई। ताँबे के बर्तन बनाने का कारोबार तो आज भी हजारों लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार प्रदान करता है। कभी कुमैंया भदेले (लोहे की कढ़ाई) लोहाघाट का प्रमुख उद्योग स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पेड़ – पौधों से रेशे निकालकर वस्र बनाने की परम्परा भी समृद्ध थी। घरों में प्रयुक्त होनेवाले दूध-दही के बर्तन भी काष्ट निर्मित होते थे। इनमें से कुछ उद्योग या तो धीरे – धीरे समाप्त हो गए या फिर कुछ उद्योग ऐसे हैं जो केवल कहीं-कहीं गाँव-देहात में जैसे तैसे अपने आप को बचाये हुए हैं।

∆> सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल

राज्य की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश इसकी सीमा से लगे राज्य हैं। सन 2000 में अपने गठन से पूर्वयह उत्तर प्रदेश का एक भाग था। पारम्परिक हिन्दू ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखण्ड के रूप में किया गया है।

हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है। राज्य में हिन्दू धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान हैं।

आइए, आज हम उत्तराखण्ड के इतिहास पर एक दृष्टि डालें। इसके लिए हमें उत्तराखण्ड को अधिक गहराई से जानना होगा। देहरादून, उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी होने के साथ इस राज्य का सबसे बड़ा नगर भी है। गैरसैण नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित तो किया गया है किन्तु विभिन्न विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून अस्थाई राजधानी बना हुआ है। राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है। आइये उत्तराखण्ड के इतिहास को खंगालते हैं।

उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति बहुत ही बेहतरीन रही है वहां प्रकृति ने अपनी भरपूर संपदा दी है तो वही प्राचीन काल में कई ऐसी जातियां थी जिन्होंने शासन किया, कुछ जातियों का हम नाम ले सकते हैं जैसे कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाली पहली राजनैतिक शक्ति थी।

∆> पहली राजनितिक शक्ति कुणिन्द….

कुणिन्द प्रारंभ में मौर्यों के अधीन थे। कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाले पहली राजनीतिक शक्ति का उल्लेख हमें प्रमाण के तौर में अशोक के कालसी अभिलेख से मिलता है। कर्तपुर राज्य के संस्थापक भी कुणिन्द ही थे, कर्तपुर में उत्तराखण्ड,हिमाचल प्रदेश तथा रोहिलखण्ड का उत्तरी भाग शामिल था। कुणिन्द वंश के सबसे शक्तिशाली राजा अमोधभूति की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड के मैदानी भागों पर शकों ने अधिकार कर लिया।

∆> यौधेयों वंश, शकों वंश….

कुछ जानकारी हमें जौनसार बाबर तथा लेंसडाउन (पौड़ी) से जो मुद्राएं मिली है उससे पता चलता है कि उत्तराखण्ड में यौधेयों वंश के शासन करने के भी के प्रमाण मिलते हैं। शकों के बाद तराई वाले भागों में कुषाणों ने अधिकार कर लिया। अलग-अलग इतिहासकारों ने इसे प्रमाणित करने का प्रयास किया है और यह सामने आया है कि दोनों वंशज के प्रमाण मिल रहे हैं। ‘बाडवाला यज्ञ वेदिका’ का निर्माण करने वाले शील वर्मन को कुछ विद्वान कुणिन्द व कुछ यौधेय मानते हैं।

कर्तपुर के कुणिन्दों को पराजित कर ‘नागों’ ने उत्तराखण्ड पर अपना अधिकार कर लिया। नागों के बाद कन्नोज के ‘मौखरियों’ ने उत्तराखण्ड पर शासन किया। मौखरी वंश का अंतिम शासक ‘गृह्वर्मा’ था।

∆> हर्षवर्धन काल….

हर्षवर्धन ने गृह्वर्मा’ की हत्या करके शासन को अपने हाथ में ले लिया। इसी हर्षवर्धन के शासन काल में चीनी यात्री व्हेनसांग उत्तराखण्ड भ्रमण पर आया था। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड पर अनेक छोटी-छोटी शक्तियों ने शासन किया।

∆> कार्तिकेयपुर राजवंश….

इसके पश्चात 700 ई. में कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश के तीन से अधिक परिवारों ने उत्तराखण्ड पर 700 ई. से 1030 ई. तक लगभग 300 साल तक शासन किया। इस राजवंश को उत्तराखण्ड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश कहा जाता है। प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजवंश की राजधानी जोशीमठ (चमोली) के समीप कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी परन्तु बाद में राजधानी बैजनाथ (बागेश्वर) बनायी गई।
इस वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था किन्तु बसंतदेव के बाद के इस वंश के राजाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।

∆> खर्परदेव वंश….

इसके बाद ‘खर्परदेव’ के शासन के बारे में जानकारी मिलती है।  खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन का समकालीन था।  इसके बाद इसका पुत्र ‘कल्याण’ राजा बना। खर्परदेव वंश का अंतिम शासक ‘त्रिभुवन राज’ था।

∆> गढ़वाल पर आक्रमण और निम्बर वंश….

“नालंदा अभिलेख”..में बंगाल के पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने की जानकारी मिलती है। इसी आक्रमण के बाद कार्तिकेय राजवंश में खर्परदेव वंश के स्थान पर राजा ‘निम्बर’ वंश की स्थापना हुई। निंबा राजाओं ने उत्तरांचल को समृद्ध बनाने के लिए बहुत से सामाजिक और आर्थिक कार्य किए एक महत्वपूर्ण कार्य था
निम्बर ने जागेश्वर में विमानों का निर्माण करवाया था।

निम्बर के बाद  उसका पुत्र ‘इष्टगण’ शासक बना, उसने समस्त उत्तराखण्ड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था। जागेश्वर में नवदुर्गा, महिषमर्दिनी, लकुलीश तथा नटराज मंदिरों का निर्माण कराया। इष्टगण के बाद उसका पुत्र ‘ललित्शूर देव’ शासक बना तथा ललित्शूर देव के बाद उसका पुत्र ‘भूदेव’ शासक बना इसने बौध धर्म का विरोध किया तथा बैजनाथ मंदिर निर्माण में सहयोग दिया।

∆> सलोड़ादित्य वंश की स्थापना….

कार्तिकेयपुर राजवंश में सलोड़ादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने सलोड़ादित्य वंश की स्थापना की। कार्तिकेयपुर शासकों की राजभाषा संस्कृत तथा लोकभाषा पाली थी। कार्तिकेयपुर शासनकाल में आदि गुरु… शंकराचार्य उत्तराखण्ड आये। उन्होंने बद्रीनाथ व केदारनाथ मंदिरों का पुनरुद्धार कराया और सन 820 ई. में केदारनाथ में ही उन्होंने अपने प्राणोत्सर्ग किया।

∆> कत्यूरियों का शासन….

कार्तिकेयपुर वंश के बाद कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन हुआ
कत्यूरी वंश मध्यकाल में कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन था इसके बारे में जानकारी हमें स्थानीय लोकगाथाओं व जागर से मिलती है।


सन् 740 ई. से 1000 ई. तक गढ़वाल व कुमाऊं पर कत्यूरी वंश के तीन परिवारों का शासन रहा, तथा इनकी राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) थी। आसंतिदेव ने कत्यूरी राज्य में आसंतिदेव वंश की स्थापना की और अपनी राजधानी जोशीमठ से रणचुलाकोट में स्थापित की।

कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था। यह एक अत्याचारी शासक था, जागरां में इसे वीरमदेव कहा गया है। ‘जियारानी’ की लोकगाथा के अनुसार 1398 में तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया और ब्रह्मदेव ने उसका सामना किया और इसी आक्रमण के बाद कत्यूरी वंश का अंत हो गया।

1191 में पश्चिमी नेपाल के राजा अशोक चल्ल ने कत्यूरी राज्य पर आक्रमण कर उसके कुछ भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 1223 ई. में नेपाल के शासक काचल्देव ने कुमाऊं पर आक्रमण किया और कत्यूरी शासन को अपने अधिकार में ले लिया।

∆> चन्द वंश….

कुमाऊं का चन्द वंश कुमाऊं में चन्द वंश का संस्थापक ‘सोमचंद’ था जो 700 ईई. में गद्दी पर बैठा था। कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने ‘चम्पावत’ को अपनी राजधानी बनाया।

प्रारंभ में चम्पावत के आसपास के क्षेत्र ही इनके अधीन थे लेकिन बाद में वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र इनके अधीन हो गए। राज्य के विस्तृत हो जाने के कारण भीष्मचंद
ने राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थान्तरित कर दी जो कल्याण चंद तृतीय के समय (1560) में बनकर पूर्ण हुआ। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा ‘गरुड़ चन्द’ था।

∆> प्राचीन अल्मोड़ा बसा….

प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया।

कुछ वर्षों बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा 1568 में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई।  चंद राजाओं के समय में इसे राजपुर कहा जाता था। ’राजपुर’ नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।

कल्याण चन्द चतुर्थ के समय में कुमाऊं पर रोहिल्लों का आक्रमण हुआ तथा प्रसिद्द कवि ‘शिव’ ने “कल्याण चंद्रौदयम’ की रचना की।

∆> कत्यूर वंश का खात्मा….

चन्द शासन काल में ही 1661 में वीरबाला तिल्लोतमा ने कत्यूर वंश का समूल नाश किया, यही कन्या तीलू रौतेली के नाम से जानी गयी। चन्द राजाओं के शासन में ग्राम प्रधान की नियुक्ति तथा भूमि निर्धारण की प्रथा प्रारंभ हुई। चन्द राजाओं का राज्य चिन्ह गाय थी।

∆> नेपाल के गोरखा….

1790 ई. में नेपाल के गोरखाओं ने चन्द राजा महेंद्र चन्द को हवाल बाग के युद्ध में पराजित कर कुमाऊं पर अपना अधिकार कर लिया, इसके साथ ही कुमाऊं में चन्द राजवंश का अंत हो गया।

∆> ‘गढ़ों’ में विभाजन, शक्तिशाली भानुप्रताप….

गढ़वाल का परमार (पंवार) राजवंश ईस्वी सन् 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा थे जिन्हें  ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। इनमे सबसे शक्तिशाली चांदपुर गढ़ का राजा ‘भानुप्रताप’ था।

887 ई. में धार (गुजरात) का शासक कनकपाल तीर्थाटन पर आया। भानुप्रताप ने इसका स्वागत किया। अपनी बेटी का विवाह उसके साथ कर दिया और अपना राज्य भी उन्हें दे दिया। कनकपाल द्वारा 888 ई. में चाँदपुरगढ़ (चमोली) में परमार वंश की नींव रखी।

∆> परमार वंश, शाह उपाधि….

ईस्वी सन् 888 से 1949 ई. तक परमार वंश में कुल 60 राजा हुए। इस वंश के राजा प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजाओं के सामंत रहे लेकिन बाद में स्वतंत्र राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गए।  इस वंश के 37वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़पतियों को जीतकर गढ़वाल भूमि का एकीकरण किया। इसने अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ के पहले देवलगढ़ फिर 1517 ई. में श्रीनगर में स्थापित किया। परमार शासकों को लोदी वंश के शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि से नवाजा, सर्वप्रथम बलभद्र शाह ने अपने नाम के आगे शाह जोड़ा। परमार राजा पृथ्वीपति शाह ने मुग़ल शहजादा दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को आश्रय दिया था।

∆> महारानी कर्णावती…

1636 ई. में मुग़ल सेनापति नवाजत खां ने दून-घाटी पर हमला कर दिया। उस समय की गढ़वाल राज्य की संरक्षित महारानी कर्णावती ने अपनी वीरता से मुग़ल सैनिको को पकड़वाकर उनके नाक कटवा दिए।  इसी घटना के बाद महारानी कर्णावती को ‘नाककटी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

1790 ई. में गोरखाओं ने कुमाऊं के चन्दों को पराजित कर, 1791 ई. में गढ़वाल पर भी आक्रमण किया लेकिन पराजित हो गए। गढ़वाल के राजा ने गोरखाओं पर संधि के तहत 25000 रुपये का वार्षिक कर लगाया और वचन लिया कि अब ये गढ़वाल पर आक्रमण नहीं करेंगे, लेकिन 1803 ई. में अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गौरखाओं ने भूकम्प से ग्रस्त गढ़वाल पर
आक्रमण कर उनके काफी भाग पर कब्ज़ा कर लिया।

∆> कुमाऊं की सत्ता अंग्रेजों को सौपी…

27 अप्रैल 1815 को कर्नल गार्डनर तथा गोरखा शासक बमशाह के बीच हुई संधि के तहत कुमाऊं की सत्ता अंग्रेजों को सौपी दी। कुमाऊं व गढ़वाल में गोरखाओं का शासन काल बहुत ही अत्याचार पूर्ण था। इस अत्याचारी शासन को गोरख्याली कहा जाता है।
धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्व बढ़ता गया और इन्होनें लगभग 12 वर्षों तक राज किया। इनका राज्य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्ट इंडिया कम्पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्य पुनः छीन लिया।

 14 मई 1804 को देहरादून के खुड़बुड़ा मैदान में गोरखाओं से हुए युद्ध में प्रद्युमन्न  शाह की मौत हो गई। इस प्रकार सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊं में नेपाली गोरखाओं का अधिकार हो गया। प्रद्युमन्न  शाह के एक पुत्र कुंवर प्रीतमशाह को गोरखाओं ने बंदी बनाकर काठमांडू भेज दिया, जबकि दूसरे पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रहकर स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहे और उनकी मांग पर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज ने अक्तूबर 1814 में गोरखा के विरुद्ध अंग्रेज सेना भेजी और 1815 को गढ़वाल को स्वतंत्र कराया लेकिन अंग्रेजों को लड़ाई का
खर्च न दे सकने के कारण गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा।

सुदर्शन शाह  ने 28 दिसम्बर 1815 को अपनी राजधानी श्रीनगर से टिहरी गढ़वाल स्थापित की। टिहरी राज्य पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को 1 अगस्त 1949 को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।

∆> ब्रिटिश शासन….

अप्रैल  1815 तक कुमाऊं पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने टिहरी को छोड़ कर अन्य सभी क्षेत्रों को नॉन रेगुलेशन प्रांत बनाकर उत्तर पूर्वी प्रान्त का भाग  बना दिया और इस क्षेत्र का प्रथम कमिश्नर कर्नल गार्डनर को नियुक्त किया। कुछ समय बाद कुमाऊं जनपद का गठन किया गया और देहरादून को 1817 में सहारनपुर जनपद में शामिल किया गया। 1840 में ब्रिटिश गढ़वाल के मुख्यालय को श्रीनगर से हटाकर पौढ़ी लाया गया व पौढ़ी गढ़वाल नामक नये
जनपद का गठन किया। 1854 में कुमाऊं मंडल का मुख्यालय नैनीताल बनाया गया। 1891 में कुमाऊं को अल्मोड़ा व नैनीताल नामक दो जिलो में बाँट दिया गया।

∆> तीन जिले….

स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुमाऊं में केवल तीन ही जिले थे। अल्मोड़ा, नैनीताल, पौढ़ी गढ़वाल। टिहरी गढ़वाल क्षेत्र एक रियासत के रूप में था। 1891 में उत्तराखंड से नॉन रेगुलेशन प्रान्त सिस्टम को समाप्त कर  दिया गया। 1902 में सयुंक्त प्रान्त आगरा एवं अवध का गठन हुआ और उत्तराखंड को इसमें सामिल कर दिया गया। 1904 में नैनीताल “गजेटियर” में उत्तराखंड को हिल स्टेट का नाम दिया गया।

∆> स्वतन्त्रता आन्दोलन….

उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया।

∆> नया राज्य….

एक नए राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम,  2000) उत्तराखण्ड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

हम इस तरह एक नजर उत्तराखंड के अतीत से लेकर वर्तमान तक की यात्रा कर आए हैं और बहुत ही रोचक और मनमोहक कहानियाँ हमें पढ़ने को मिली हर राज वंश के शासनकाल में कुछ अच्छाइयाँ थी तो बहुत कुछ बुराइयाँ भी पढ़ने को मिली, कुछ राजा दयालु थे तो कुछ आक्रान्ता, जहाँ मन प्रश्न भी हुआ तो वही दुखी भी हुआ।

उस समय की वीरांगनाओं ने जो अद्भुत कार्य किया है और शत्रुओं के साथ लोहा लिया है यह महिला सशक्तिकरण का एक बेहतरीन उदाहरण पेश करती हैं उस समय की परिस्थितियों के चलते अगर वीर बालाएँ शत्रुओं से टक्कर ले रही थी तो यह बहुत ही गौरव का विषय है हम इस यात्रा में उत्तराखंड के विभिन्न आयामों से भी रूबरू हुए और अलग-अलग उनका अध्ययन करने पर वह अलग विषय ही बनते चले गए, इसलिए हमने संपूर्ण उत्तराखंड को काल खण्ड और समय के अनुसार, राजवंशों के बदलते रहने को रेखांकित किया है जिसे समझना आसान होगा।

©A

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