ऐ दिल सम्हल जा जरा

(भाग 3)

आदर्शिनी को नौकरी मिल गई। उसने एक पत्र रघुवीर के नाम लिखकर छोड़ा और आपने घर को लौट आई, आगामी आठ दिनों के अन्दर उसे नौकरी पर आना है, तनख्वा अच्छी है इसलिए सलोनी ने सोचा, अभी समय काट लेते हैं। रघुवीर को कमरा देखने का कह आई है उसके फोन के इंतजार में पांच दिन निकल गये। आदर्शिनी को
चिन्ता होने लगी, मकान न मिला तो वह कैसे रह पायेगी। छटवें दिन रघुवीर का फोन आया। रघुवीर के घर के पास ही में एक कमरा मिल गया है ।

“आदर्शिनी, एक घर देखा है आकर देख लेना, पसंद नहीं आया तो दूसरी जगह तलाश लेंगे।”…

आदर्शिनी आठवें दिन ही सामान के साथ रघुवीर के घर पहुँच गई। निश्चित हुआ था कि चूँकि नया घर देखा हुआ नहीं है, अतः रघुवीर के घर ही सामान रखा और रघुवीर का इंतजार करने लगी।

शाम को दोनों घर देखने गये, पसंद क्या रहने की जगह चाहिए थी सो है। रघुवीर का कमरा भी पास में ही है, यह बात महत्वपूर्ण है।

रघुवीर के व्यवहार से यह नहीं लग रहा था कि वह इस बात से खुश है कि आदर्शिनी को पास में बसा कर अपनी जद्दोजहद वाली ज़िन्दगी दिखाए, लेकिन फिर सोचता अगर अभी ही यह सब देख, सुन लिया तो बुरा क्या है ज़िन्दगी की सड़क कितनी उबड़-खाबड़ है
यह जानना आदर्शिनी के लिए बहुत जरूरी है। जिसके साथ
ज़िन्दगी गुजारना है वह अगर यर्थाथ में जी कर ज़िन्दगी की सच्चाई जाने तो उसे समझाने-समझने के लिए मसक्कत नहीं करना पड़ती है।
ज़िन्दगी कमरेनुमा घर से दफ्तर के बीच टहलती रही और दोनों बेहतर नौकरी की तलाश में लगे रहें।

इस बीच आदर्शिनी दो बार घर हो आई। उसकी मम्मी भी उसके पास रहकर चली गई। रघुवीर ने अपना कमरा बदल लिया है, आदर्शिनी के पड़ोस का कमरा ले लिया गया है। अब दोनों की मुलाकातें और लगभग सुबह – शाम का खाना साथ होने लगा है।

आदर्शिनी के दफ्तर में नये बड़े बाबू प्रथम पंडित आया हैं। वह जितने, ऊंचे पूरे स्मार्ट है, उतने ही मृदुभाषी, बोलते वक्त लगता है शहद में डुबोकर एक-एक शब्द कहा जा रहा है। एक नजर में आदर्शिनी को वह अच्छे इंसान लगे।

पूर्ण व्यक्तित्व का धनी यह इंसान जहाँ भी जाता है सभी की नजर अपनी तरफ खींच लेता है, ईश्वर ने भरपूर सौन्दर्य के साथ, इन्सानियत
का ऐसा उपहार प्रथम पंडित को दिया है जिसका कोई जवाब नहीं है। किसी की भी फाइल उनके टेबल पर पड़ी नहीं रहती वह फौरन उसे बड़े साहब तक पहुँचा देता हैं।

आदर्शिनी जब भी प्रथम पंडित को देखती मन में रघुवीर के नाम की जड़ी पर्ची फड़फड़ाती सी लगती, मानो तेज हवा के झोंके से पर्ची उड़कर जाने कहाँ चली जायेगी और उसी झन्झावत आँधी में एक पर्ची प्रथम पंडित की उड़कर आती है और मन में उसी जगह चस्पा हो जाती है जहाँ रघुवीर के नाम की पर्ची लगी है आदर्शिनी को अपनी इस दिल मैं उठ रही आँधी से शुरू में कोफ्त होती रही लेकिन अब वह इस बात की आदी सी होती जा रही है।

आदर्शिनी को अपने यौवन के दिन याद आते जब वह सुबह दोपहर शाम तक नये चेहरे में अपने प्यार को तलाश करती डोलती फिरती। लेकिन एक भी चेहरा स्थाई नहीं हो पाया और सभी जाने कहाँ गुम हो गये। कालेज में रघुवीर मन को भाने लगा तो अब प्रथम पंडित अच्छा लगने लगा।

अपने मन की उच्श्रृंखलता से कभी-कभी खुद ही परेशान हो जाती है जाने क्यों यह मन मुआ उसे एक जगह टिकने ही नहीं देता है। यह जीवन के कैसे रंग है जहाँ मन का भटकाव चलता रहता है वह एक उपेक्षित सी हुक भरती है और पुनः अपने रोजमर्रा के काम निपटाने लगती है।

रघुवीर ने एक इन्टरनेशनल कम्पनी ज्वाइन कर ली है जिसमें उसे छः माह के लिए शीप पर ही रहना होगा, कान्ट्रेक्ट बेस पर यह नौकरी करना रधुवीर ने अच्छे अनुभव के संकलन के तहत स्वीकार की है। उसे आदर्शिनी को एक अच्छा जीवन देने व दोनों की खुशाहाल ज़िन्दगी के लिए प्रयास तो करना ही होगा। आदर्शिनी ने भी कुछ समय सोच-विचार के लिए लिया फिर भविष्य के सुनहरे सपनों को साकार करने की रघुवीर के प्रयास को भारी मन से स्विकृति दे दी।

रघुवीर अपनी नई नौकरी पर चला गया। आदर्शिनी का दिल कुछ समय रघुवीर की याद करता रहा, दुःखी हुआ, रघुवीर के खत आते, फोन पर बातें होती धीरे-धीरे आदर्शिनी को रघुवीर से दूर रहकर जीने की आदत पड़ गई ।

यह मन चंचला है जो विकल्प ढूंढता रहता है, प्रथम पंडित में खुशी ढूंढने के प्रयास करने लगी। प्रथम पंडित मस्तमौला है जो अपने में ही रहने वाला, किसी भी दायरे में नहीं बन्धता, वह स्वच्छन्द प्राणी अपनी धुन का मनमौजी इंसान हैं, कभी भी किसी विवाद में उलझना या विवादित होना उनका गुण नहीं है। आदर्शिनी बस ख्याली पुलाव
पकाती, और जलाती रही पर हाथ एक भी दाना नहीं लगा।

क्रमश:..

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