कालान्तर में हरदा और सीवनी-मालवा कि एतिहासिक पृष्ठ भूमि

                                                       *अंजना छलोत्रे 'सवि'

अमरकंटक से हरदा तक क्षेत्ररक्षण के लिए माँ नर्मदा ने अकूत सम्पदा के भंडार दिये हैं तो वहीं अनेक आक्रमणों को भी झेलना पड़ा, यह क्षेत्र हमेशा हर युग में राजाओं का केंद्र बिंदु रहा। यहाँ कि संपदा के लिए ही इस क्षेत्र को हड़पने के लिए बहुत से युद्ध हुए और बहुत मार काट भी हुई।

नर्मदा नदी पर पुरापाषाणिक तथा लघु पाषण काल में आदि मानव कोअपने किनारे पर बसने के लिए आकर्षित किया, जब स्तनपायी जीव मुक्त रूप से विचरण करते थे और वह पृथ्वी की सभ्यता अपनी प्रारंभिक अवस्था(प्लीस्टोसीन) से गुजर रही थी। खुदाई के दौरान जिले में पर्याप्त सामग्री यथावत पाई गई जो इसका प्रमाण है। सन् 1958-59 तथा 1963-64 के दौरान होशंगाबाद में तथा अमरकंटक से हरदा तक नर्मदा के उपरी कछार में किये गए समन्वेषण कार्य में 35 जीवाश्मयुक्त तथा उपकरण संकुल स्थलों का पता चला, जिसमेें कुछ ज्ञानवर्धक तथा सीमेंट्युक्त बजरी के विस्तृत भंडार है। इन स्थानों से 1000 से अधिक पुरापाषाणकालीन हथियार, जिनमें 150 यथावत तथा लगभग 200 बांस(मृगवर्ग) एलीफेस (हस्तिवर्ग) दरियाई घोड़ों तथा अन्य अज्ञात पशुओं की अस्थियाँ व कई के स्तनि जीवाश्म मिले हैं । तथापि, यह उल्लेखनीय है कि नर्मदा पुरापाषाणविक उद्योग में स्तरिय विकास की अन्य कोई समानता नहीं है।(1)।

नर्मदा की सहायक नदी गंजाल में किये गये समन्वेषण के दौरान छिदगाँव तथा रायबोर में प्रारंभिक तथा मध्य पाषाण युगीन औजार मिले थे।(2)। महेश्वर से लेकर जबलपुर तक नर्मदा का समन्वेषण कार्य पुनः 1962-63 में किया गया था। इससे डे टेरा तथा पेटरसन की त्रिचक्रिय परिकल्पना की पुष्टि होती है(3) नर्मदा के समीप बोल्डर संगुटिकाओ में ऐवेबिलीयन तथा एजूलियन औजार और साथ ही मध्ययुगीन प्लीस्टोसीन जीवाश्म युक्त पशु अस्थियाँ भी मिली है। होशंगाबाद तथा जबलपुर में बोल्डर संगुटिकाओं के भंडार के ऊपरी भागों में कतिपय मध्य पाषाणयुगीन औजार पाये गये हैं।(4)।

कतिपय पुराण लेखकों ने जिले के पश्चिमी भागों का तुमुरा जनपद के रूप में उल्लेख किया है ऐसा प्रतीत होता है कि यह नर्मदा के दक्षिणी कछार में विद्यमान था तथा उसमें होशंगाबाद जिले का आधा पश्चिमी भाग आता था जो सिवनी मालवा के पास केंद्रित था।(5)।

स्थानीय दन्तकथा के अनुसार सुहागपुर, प्राचीन काल में सोणितपुर कहलाता था। हरिवंश के आख्यान के अनुसार, सोणितपुर राक्षसराजा बाणासुर की राजधानी थी, जिसकी पुत्री उषा का कृष्ण के नाती अनिरुद्ध ने राजधानी से अपहरण कर लिया था।(6) ऐसा विश्वास किया जाता है कि पांचों पांडव भाइयों ने अपने अज्ञात वास का अधिकांश समय इसी जिले में बिताया था। अपनी धारणा की पुष्टि के लिए स्थानीय लोग पचमढ़ी की पांच शैल गुफाओं को आश्रम स्थल बतलाते हैं तथा सांडिया घाट का वह स्थान भी बतलाते हैं जहाँ उन्होंने एक बार विश्राम किया था तथा भोजन बनाया था। इसी प्रकार वह शिव का संबंध महादेव पहाड़ियों से जोड़ते हैं। स्कन्दपुराण के रेवा खंड में नर्मदा तथा उसके तट पर स्थित पवित्र तीर्थ स्थानों का विषद वर्णन है।

सन् 812 के कुछ समय पूर्व मन्याखेट से राष्ट्रकूट राजवंश के गोविंद तृतीय ने मालवा को जीत लिया और अपने परमार सामंत उपेंद्र व कृष्णराज को गद्दी पर बैठाया। इसके पश्चात प्रतिहारों ने मालवा के अपने खोए हुए राज्य को शीघ्र ही जीत लिया था। उसे ई.सन् 946 तक अपने अधिपत्य में रखा । इसके बाद राष्ट्रकूट कृष्ण ने मालवा को पुनः प्राप्त करने के लिए उसी वंश के अपने परमार मित्र वैरीसिंह द्वितीय की सहायता की। उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार उसने अपनी शक्ति से यह सिद्ध कर दिया कि धार पर उसी का अधिकार था ।(7)।

दिल्ली के सुल्तानों के आक्रमण के अतिरिक्त 13 वीं शताब्दी में परमार राजाओं को तोमर तथा चौहान वंश के राजाओं के अधीन भी रहना पड़ा था। तोमर तथा चौहान वंश के राजाओं का उन इलाकों पर जो अब होशंगाबाद जिले में समाविष्ट है, आधिपत्य था या नहीं यह बात स्पष्ट नहीं है तथापि यह जिला मांडू (मालवा) के धुरी सुल्तान के राज्य में शामिल था जिसने तोमर तथा चौहान राजाओं को इस क्षेत्र से खदेड़ दिया था ।(8)।

देवपाल की मृत्यु हो जाने के बाद णलगभग 12 34 ई. में उसका पुत्र जैतुगीदेव गद्दी पर बैठा । उसके शासनकाल में मालवा पर चारों ओर से आक्रमण हुये। जैतुगीदेव के पश्चात उसका छोटा भाई जयवर्धन- द्वितीय गद्दी पर बैठा और उसके बाद जयसिंह द्वितीय, अर्जुनवर्मन- द्वितीय तथा भोज द्वितीय गद्दी पर बैठे। इस संपूर्ण काल में मालवा पर अनेक आक्रमण हुए (9) जिसके कारण इस इलाके पर परमारों का प्रभुत्व कमजोर होता गया।

भोज द्वितीय के पश्चात 1305 ई. में जब महलक देव मालवा पर शासन कर रहा था अलाउद्दीन खिलजी ने देश पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई में महलक देव का सेनापति कोकादेव (गोगा) प्रधान मारा गया। और महलक देव को मांडू के किले में शरण लेनी पड़ी। यहाँ से अलाउद्दीन के सेनापति आइन-उल-मुल्क ने मार डाला और मालवा दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। तब मांडू तक का संपूर्ण मालवा प्रदेश आइन-उल-मुल्क को उसकी शानदार सफलता एवं विशिष्ट सेवाओं के लिए सौंप दिया गया।(10)।

खिलजियों के बाद मालवा तुगलकों के नियंत्रणधीन रहा। मुहम्मद तुगलक का विशाल साम्राज्य तेईस प्रांतों में विभक्त था जिसमें मालवा भी शामिल था ।(11)।

मालवा के सुबेदार के रूप में अपनी नियुक्ति के पश्चात दिलावर खान ने धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार आस-पास के क्षेत्रों में तक बढ़ा लिया और प्रांत में शांति स्थापित कर ली। किंतु सुल्तान महमूद तुगलक के गद्दी पर बैठने के बाद हुए उपद्रवों के दौरान उसने दिल्ली शासन को नजराना देना बंद कर दिया।(12)।

1308 ई. में तैमूर द्वारा महमूद की पराजय के बाद सुल्तान दिल्ली से भाग निकला और एक भगोड़े के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान भटकता रहा । सुल्तान महमूद के मालवा कि सीमा के पास आने पर दिलावर खान ने गर्मजोशी से स्वागत किया तब महमूद को धार लाया गया जो वहाँ हिजरी सन् (1401- 2 ई.) तक रहा और जब वह दिल्ली के सस्थानीय संमन्तों के निमंत्रण पर वहाँ चला गया। (13)।

दिलावर खान की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अल्प खान, हिजरी सन् 809 (1406 ई.) में मालवा की गद्दी पर बैठा और उसने होशंगशाह की उपाधि धारण की । ऐसा कहा जाता है कि होशंगाबाद नगर की स्थापना होशंगशाह घुरी ने की। (14)।

होशंगशाह द्वारा बैतूल जिले से खेरला के गौड़ नरेश तथा बरार के बहमनी राजाओं के विरुद्ध हमले के अड्डे के रूप में बनाया गया। खेरला नरेश पर चढ़ाई करते समय होशंगशाह सदैव हंडिया मार्ग से ही जाता था। खेरला के राजा ने उसे अपना अधिपति मान लिया था वह उसे नजराना देता था। कहा जाता है कि हंडिया का पत्थर का किला भी (हरदा से 12 किलोमीटर दूर) होशंगशाह द्वारा बनवाया गया था जो अब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है ।(15)।

महमूद खिलजी की मृत्यु के पश्चात, उसका ज्येष्ठ पुत्र शहजादा मोहम्मद 3 जून 1469 ईस्वी को गियासुद्दीन। (गियाथ शाह) कि उपाधि धारण कर मालवा कि गद्दी पर बैठा। उसकी नीति डुलमूल रही जिस करण वह आक्रमणों वह युद्धों से दूर रहा। इस प्रकार उसने मालवा साम्राज्य के पतन का मार्ग प्रशस्त किया।(16)। गियासुद्दीन (गियाथ शाह) का जेष्ठ पुत्र अब्दुल कादिर अपने पिता के जीवनकाल में ही अब्दुल मुजफ्फर नासिर शाह कि उपाधि के साथ मालवा (1500ई.) को दिल्ली पर बैठा। उसने मालवा पर 10 वर्ष से अधिक अवधि तक शासन किया और दिसंबर 1510 ई.में उसकी मृत्यु हो गई। (17)।

नासिरूद्दीन (नासिर शाह) ने शासन काल के दौरान, चंदेरी के सूबेदार शेरखान ने महावत खान के उकसाने पर हंडिया नगर को लूटा (18)। नासिर शाह की मृत्यु के पश्चात उसका तृतिय पुत्र महमूद शाह मालवा कि गद्दी पर बैठा। उसका राज्य अभिषेक 2 मई 1511 ई. को बेहीष्टपुर ग्राम में हुआ था। वहाँ शादियाबाद (मांडू) में महमदू खिलजी द्वितीय कि उपाधि धारण कर 3 जुलाई 1511ई. को औपचारिक रूप से मालवा की गद्दी पर बैठा ।(19)।

गुजरात का बहादुर शाह ने 1531 ई. में मालवा में प्रवेश किया और मांडू के किले पर घेरा डाला तथा 28 मार्च 1531 को उस पर अधिकार कर लिया। उसने महमूद और उसके साथ अमीरों को बंदी बना लिया। 31 मार्च 15 से 31 को बहादुर शाह ने अपने नाम का खुतवा पढ़वाया और मालवा को गुजरात में मिलाने की घोषणा कर दी। इसके बाद महमूद और उसके पुत्र बंदियों के रूप में चम्पानेर के किले में भेज दिये गये। चम्पानेर के रास्ते में महमूद ने भागने कि कोशिश कि किंतु वह असफल रहा और उसके पुत्रों के साथ वह मारा गया । महमूद तथा उसके पुत्रों कि मृत्यु से मालवा में खिलजी वंश का अंत हो गया।(20)।

इस प्रकार मालवा के सुल्तानों के अधीन मालवा राज्य में वह इलाके शामिल थे जो अब होशंगाबाद जिले में समाविष्ट है। मालवा गुजरात राज्य का एक भाग बन जाने के बाद बहादुर शाह ने उज्जैन, सारंगपुर, भिलसा को सिलहादी के अधीन रहने दिया और सातवास के अपने इलाके पर मुइन खान का अधिपत्य बने रहने दिया। बाद में बहादुर शाह ने रायसेन के किले पर घेरा डाला और मई 15 32 ई. में उस पर कब्जा कर लिया(21) रायसेन कि विजय के पश्चात बहादुर शाह ने इस्लामाबाद और होशंगाबाद के आस-पास के क्षेत्रों गुजराती अमीरों को बांट दिया और इस प्रकार उसने उस क्षेत्र के पुराने मालवी जमीदारों को बेदखल कर दिया ।(22)।

बाद में हम देखते हैं कि मालवा पर मुगलों का प्रभाव पढ़ा। मुगल सम्राट हुमायूं ने मंदसौर के निकट बहादुर शाह के शिविर को घेर लिया और उसे शिविर से भागना पड़ा। दूसरे दिन हुमायूं ने बहादुर शाह के शिविर पर कब्जा कर लिया। हुमायूं ने मांडू के किले पर घेरा डाला और उस पर कब्जा कर लिया इस प्रकार 1553 ई. के मध्य तक हुमायूं का मांडू पर पूर्णतः कब्जा हो गया। (23)।

कुछ महीनों के अभियान के दौरान हुमायूं मालवा तथा मध्य गुजरात पर कब्जा करने में सफल हो गया। उसने अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया और उसे प्रांत का मुख्यालय बनाया। इसके बाद वह मालवा की और बढ़ा, जहाँ उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर स्थानीय लोगों ने संगठित होकर मुगलों का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। मांडू के मल्लू खान, सतवास के मुईन सिकंदर खान और हंडिया (होशंगाबाद जिले) के मिहितार जम्बूर ने एक साथ मिलकर उज्जैन पर आक्रमण कर दिया जिस पर दरवेश अली ने हुमायूं का कब्जा बनाए रखा था, उज्जैन पर कब्जा कर लिया गया और सेनापति लड़ाई में मारा गया, बाद में हुमायूं मांडू में कुछ समय तक रुका रहा, किंतु उसने प्रांत में प्रशासन कि स्थापना कि दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इस प्रकार 1 वर्ष कि अवधि तक मालवा प्रांत मुगल सम्राट हुमायूं के अधिकार में रहा, जिसे उसने उसके साम्राज्य के अध्यक्ष भागों में कुछ गड़बड़ी के कारण छोड़ दिया। (24)।

बाद में बहादुर शाह ने मिरान शाह असीरी को मालवा का संपूर्ण प्रभार सौप कर मालवा पर औपचारिक नियंत्रण बनाये रखा। (25)।

बहादुर शाह की मृत्यु (1537 ई.) के पश्चात मल्लू खान, कादिर शाह की उपाधि धारण कर मालवा का शासक बना और अपने नाम के सिक्के ढलवाये तथा खुतबा पढ़ाया ।(26)।

कादिर शाह के शासनकाल के दौरान शेर खान (शेर शाह) मालवा कि ओर बढ़ा और उस पर (1542 ई.) में कब्जा कर लिया। तत्पश्चात उसने शुजात खान को हंड्डिया और सतवास में और हांजी खान तथा जुनाइद खान को मांडू और धार में नियुक्त कर नई प्रशासनिक व्यवस्था लागू की । बाद में उसने 1543 ई. में रायसेन के किले पर घेरा डाला और उस पर कब्जा कर लिया और शुजात खान को मालवा का हाकिम (गवर्नर) बना दिया ।(27)।

इस्लाम शाह की मृत्यु के पश्चात हिजरी संवत 961 (1533-34 ई.) में मोहम्मद शाह आदिल उसका उत्तराधिकारी बना। नये सुल्तान ने शुजात खान को पुनः मालवा का हाकिम नियुक्त किया। शुजात खान ने नई प्रशासनिक व्यवस्था लागू की। उसने दौलत खान अजियाला को उज्जैन और उसके इलाके, तथा अपने छोटे पुत्र मलिक मुस्तफा को रायसेन और भिलसा में और बयाजिद को हंडिया और आष्टा में नियुक्त किया और सारंगपुर को अपनी राजधानी बनाया। (28)।

शुजात खान की मृत्यु के पश्चात उसका बड़ा पुत्र बायाजिद हंडिया से सारंगपुर की ओर बढ़ा और उसने शासन कि बागडोर तत्काल अपने हाथों में ले ली । उसने अपने पिता कि पूरी संपत्ति और नौकर-चकरों को अपने अधीनस्थ में ले लिया, किंतु शीघ्र ही भाइयों के बीच शक्ति के लिए संघर्ष छिड़ गया और अंततः उनका परस्पर हल निकल आया।यह समझौता हुआ कि दौलत खान के अधिकार में उज्जैन और मांडू कि सरकारें तथा आस-पास के इलाके रहेंगे, और बायजिद के अधिकार में सारंगपुर और शुजात खान के खालसा महलों सहित हड्डिया और कोटडी बिराह कि जागीर और साथ ही भीलवाड़ा भी रहेगा। मालिक मुस्तफा के अधिकार में रायसेन,भिलसा और उसके आस-पास के महल रहेंगे। इस प्रकार वर्तमान होशंगाबाद जिला मालवा के सुल्तान बायाजिद के सीधे नियंत्रण में आ गया ।(29)।

इस प्रकार तय कि गई व्यवस्था न्यायोचित थी और ऐसा प्रतीत होता है कि इससे सभी संतुष्ट थे, किंतु बयाजिद के प्रतिद्वंदी उसके वास्तविक उद्देश्य को नहीं समझ सके। उसने अचानक उज्जैन पर आक्रमण कर दिया और दौलत खान को मार डाला। इस प्रकार बायाजिद ने बादशाहत प्राप्त कर ली और हिजरी सन् 693 (15 55 ई.) में बाज बहादुर शाह कि उपाधि प्राप्त कर ली ।(30)।

इसके बाद बाज बहादुर रायसेन की ओर बढ़ा। मलिक मुस्तफा ने उसका कड़ा विरोध किया परंतु अंत में वह हार गया और मालवा से भाग निकला । तत्पश्चात बाज बहादुर ने रायसेन और भिलसा का शासन अपने ही आदमियों को सौंप दिया और राजद्रोही अफगानों को दंडित करने के लिए कर्दुला कि ओर बढ़ गया। उसने कर्दुला में नई व्यवस्था कायम की और सारंगपुर लौट आया। बाज बहादुर कि सैनिक कार्यवाहीयों में उस समय विराम लगा जब उसने गढ़ा को अपने अधिकार में लेने का प्रयास किया। गढ़ा उस समय रानी दुर्गावती के योग्य शासन के अंतर्गत था। गौडों ने बाज बहादुर को बुरी तरह हराया। वह अपनी जान बचा कर भाग निकला, किंतु उसकी सर्वोत्तम सेनापति मारे गये थे, और उसका शिविर तथा साज समान रानी दुर्गावती के हाथ लग गया। बाज बहादुर अब अपना अधिकांश समय संगीत तथा ललित कलाओं के संवर्धन में लगाने लगा । वह रात दिन (भोग विलास) आमोद-प्रमोद और मनोरंजन में व्यतीत करने
लगा ।(31)।

मुगल सम्राट अकबर ने बाज बहादुर के अधीन मालवा कि स्थिति का लाभ उठाते हुए मालवा पर आधिपत्य जमाने के लिए 1561 ई. में अधम खान, पीर मोहम्मद खान, किया खान, सादिक खान और अन्य सेनापतियों के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। जब सम्राट की सेना सरगंपुर के निकट पहुँची तब बाज बहादुर मुगलों से लड़ने के लिए आगे आया, किंतु वह हार गया और उसे खानदेश कि ओर भागना पड़ा और सारंगपुर को अधम खान के लिए छोड़ गया। इस प्रकार विजयी मुगल सेना ने नगर में प्रवेश किया और महल पर कब्जा कर लिया । अधम खान फौरन वहाँ पहुँचा और उसने हरम और साथ ही खजाने, गड़े हुए और अन्य प्रकार के खजाने को, अपने अधिकार में ले लिया।

लेकिन अधम खान रूपमती को प्राप्त नहीं कर सका क्योंकि उसने जहर का प्याला पी कर अपनी इज्जत बचा ली थी (32)।

विजय के पश्चात मालवा को प्रशासन कि दृष्टि से चार भागों में बांट दिया गया । पीर मोहम्मद खान को मांडू तथा उज्जैन सौंपा गया, किया खान को हंडिया सरकार दी गई और सादिक खान को मंदसौर और उसके अधीनस्थ इलाकों कि देखभाल के लिए नियुक्त किया गया ।(34)।

अधम खान ने अकबर को कफी नाराज कर दिया और इसलिए वापस बुला लिया गया और मालवा का प्रभार पीर मोहम्मद खान को सौंप दिया गया। (35)।

पीर मोहम्मद ने बुरहानपुर नगर को लूटा और वापस लौटने लगा, उसे तत्काल में पता चला कि बाज बहादुर सेना एकत्र कर उसका पीछा कर रहा है। पीर मोहम्मद ने बाज बहादुर से युद्ध किया किंतु हार गया और नर्मदा की ओर लौटने के लिए बाध्य हुआ। उसने नर्मदा को ऐसे स्थान से पार करने का प्रयास किया जहाँ पानी अधिक गहरा था और परिणामस्वरुप वह डूब गया । पीर मोहम्मद कि मृत्यु से मुगल शिविर में हड़कंप मच गया। इस प्रकार बहुत ही शीघ्र साथ बहादुर ने मालवा पर कब्जा कर लिया और मुगल सेनापति आगरा लौट गये (36)।

इसलिए अकबर ने मालवा को जीतने के लिए अब्दुल्लाह खान उजवेक को नियुक्त किया । जब बाज बहादुर को मुगलों के नये आक्रमण कि जानकारी मिली तो वह साहस खो बैठा और उसने मालवा छोड़ दिया, किंतु मुगल सेना ने उसका पीछा किया और उसे युद्ध के लिए मजबूर कर दिया और पराजित किया। अब बाज बहादुर गोंडवाना कि ओर भाग गया। अब्दुल्लाह खान ने शीघ्र ही मालवा पर कब्जा कर लिया और मांडू को अपना मुख्यालय बनाया। मुगल अधिकारियों को सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर भेजा गया और देश में शांति कायम कि गई।

मुगल प्रशासन व्यवस्था में होशंगाबाद जिले के भाग मालवा सूबा कि हंड्डिया सरकार में सम्मिलित कर दिए गया था। तब हंडिया सरकार में 23 महल शामिल थे जिनमें से चार महल हंडिया, हरदा, सिवनी-मालवा, और बिछौला सभी वर्तमान हरदा तहसील में है, आधुनिक होशंगाबाद जिले में सम्मिलित किये गये थे।(37)

मुगलों के अधीन दक्षिण में सभी अभियान हंडिया तथा बुरहानपुर के मार्गों से ही किये गये थे, तब होशंगाबाद में न तो सरकार थी न महल ही थे, किंतु मालवा सूबा ऐसे स्थान के रूप में उल्लेख किया गया है जहाँ जंगली हाथी पाये जाते थे (38)।

मालववा के गर्वनर अब्दुल्ला खान उजबेक यद्यपि कुशल प्रशासक था किंतु वह लालची तथा विद्रोही सिद्ध हुआ, अंत: अकबर ने 15640ई. में उसके विद्रोह का दमन किया तथा कारा बहादुर खान को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया। तब मुकरिब खान को हंडिया के जागीरदार के रूप में पदस्थ किया गया। (39)।

वर्ष 1585 में अकबर ने मालवा के सूबेदार खान-ए-आजम को बरार पर विजय प्राप्त करने के लिए दक्षिण में जाने का आदेश दिया। मीर फतेह उल्लाह शिराजी जिसने आजाद-उद-दौला कि उपाधि धारण कर ली थी उसके अभियान के राजनैतिक तथा कूटनीतिक मामलों का प्रभारी रखा गया था, तथापि खान-एक-आजम तथा शिहाब-उद्दू-दीन अहमद खान के बीच मतभेद हो गये और मुगल सेना बरार को कूच करने के पूर्व लगभग 6 माह के लिए दक्षिण की सीमा पर हंड़िया में रुक गई।(40)।

शाहजहाँ तथा औरंगजेब के शासनकाल में मालवा प्रांत अपनी मध्यवर्ती स्थिति तथा महत्त्वपूर्ण कृषि उत्पादों कि विपुलता के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण बना गया था। उत्तर भारत को दक्षिण से जोड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग भी इस क्षेत्र से होकर गुजरता था।(41)।

औरंगजेब के शासनकाल की समाप्ति पर इंडिया के फौजदार नवाब जलाल खान कांकर ने अपने पत्र में इस बात का उल्लेख किया है कि होशंगाबाद तथा सिवनी मालवा उसके प्रभाराधीन थे, जिन्हें सावलीगढ़ तथा गिन्नौर के राजाओं से जो लूटपाट करने तथा राज्य को नष्ट करने के लिए आमादा थे, बचाना मुश्किल हो रहा था।(42)।

18 वीं शताब्दी के प्रारंभ में जब मुगल शासन का पर्याप्त पतन हो चुका था जिले के पूर्वी भाग में स्थित राजवाड़ा परगना पर 4 राजाओं ने अधिकार कर लिया था जो गढ़ा-मंडला के गोंड राज्य के सामंत के अधीन थे।

होशंगाबाद तथा उसके आसपास के तालुका गन्नौर के राजा के नियंत्रण में थे। सावलीगढ़ (बैतूल जिले में स्थित) का राजा, सिवनी-मालवा तथा हरदा के उत्तरी क्षेत्र पर राज्य करता था जितने उसके पर्वत दुर्ग के अधीन आते थे, उसका अधीनस्थ रहटगाँव में रहता था। सिवनी-मालवा का शेष भाग तथा हरदा का उत्तरी भाग हंडिया, तब तक मुसलमान फौजदार के अधीन रहा जब तक वहाँ फौजदार रहा। मकड़ाई के राजा के पास हरदा तहसील के साथ-साथ चारूवा परगना का भी क्षेत्र का अधिकांश भाग था जिसका मुख्यालय कालीभीत में था (जो हरसूद तहसील में है)। (43)।

मकड़ाई के राजा के पूर्वजों ने ताप्ती से लेकर नर्मदा तक और गंजाल से लेकर छोटा तवा तक संपूर्ण पुरानी हरदा तहसील के क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर रखा था, उज्जैन किंतु सही बात तो यह प्रतीत होती है कि मुगल शासन काल के दौरान वह एक मामूली पहाड़ी सरदार था, जिसका मुख्यालय कालीभीत में था, बाद में जब मराठों के हमलों के कारण मुसलमानों कि शक्ति कमजोर पड़ गई तब राजा मकरंद शाह अपने दूरस्त पहाड़ी हमलों के कारण मुसलमानों कि शक्ति कमजोर पड़ गई तब राजा मकरंद शाह अपने दूरस्त पहाड़ी आश्रयस्थल से नीचे आये और पहाड़ियों में दूर उत्तरी शिखर पर मकड़ाई कि स्थापना की, जहाँ से हरदा के मैदान दिखाई देते थे। (44)।

मुगल फौजदार के शासनकाल के अधीन हंडिया एक बड़ा तथा घना आबाद नगर हो गया था। हंडिया का महत्व दिल्ली से दक्षिण को जाने वाले राजमार्ग पर नर्मदा पर बने घाट के कारण था। ऐसा प्रतीत होता है कि मुगल शासन में यह एक बड़ा स्थान रहा है।

हंडिया के मुगल फौजदारों में सबसे अधिक दमदार जलाल खान कांकर था, जिसने औरंगजेब के शासन काल के अंत में अपने भाई जबरदस्त खान के साथ अपनी शक्ति में वृद्धि की। जलाल खान कांकर ने हंडिया में बड़े मकानों का निर्माण कराया और यही उसकी मृत्यु भी हुई थी । जब मुगलों का क्षेत्र से प्रभुत्व समाप्त हो गया और बाद में महू से बुरहानपुर तक एक सीधी सड़क का निर्माण हो गया तो उसका महत्व समाप्त हो गया।

होशंगाबाद जिले के पूर्वी भाग में फतेहपुर संग्राम शाह के शासनकाल के दौरान 16वीं शताब्दी में गढ़ा राज्य में 750 ग्रामों एक गढ़ या कहें जिला आ गया था। इस प्रकार मुसलमानों की विजय के पूर्व गढ़ा और उसके पश्चात गढ़ा ‘सरकार’ आधुनिक होशंगाबाद जिला का भाग बन गया ।(45)।

मराठा

1740 ई. में पेशवा द्वारा निजाम के बीच मुंगे पेटन की संधि द्वारा हंडिया कि सरकारों के साथ-साथ बीजागढ़ तथा संपूर्ण उत्तरी निमाड़ कि जागीर निजाम द्वारा पेशवा को दे दी गई थी (46)। किंतु हंड़िया के मुगल अधिकारियों ने इसका समर्थन नहीं किया, इसलिए हंडिया का वास्तविक आधिपत्य 1742 ई. के आरंभ में उस समय सम्भव हो सका था, जब पेशवा बालाजी बाजी राव ने बंगाल पर आक्रमण करने के लिए कूच किया और गंजाल नदी के पश्चिम कि ओर से जाते हुये उसने हंडिया से मुगल अधिकारियों को खदेड़ दिया और भुसकुटे परिवार के नारू तथा रामचंद्र को इंडिया का आमील नियुक्त किया। 1750 ई. मैं इन भाइयों ने मकड़ाई क्षेत्र पर कब्जा करने की योजना बनाई और मकड़ाई के राजा पर दबाव डाला कि वह एक संधि पर हस्ताक्षर कर अपना आधा क्षेत्र पेशवा को दे दे। मकड़ाई के राजा को अपने अधिकारों के 862 गाँव में से 431 गाँव देने पड़े ।(47)।

1761 के पानीपत युद्ध से मराठा शक्ति को भारी धक्का लगा और मकड़ाई के राजा ने हंडिया के आमील को खदेड़ कर अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया, किंतु राजा की पराजय हुई और वह गोसाइयों कि सेना द्वारा मारा गया ।(48)।

नारू तथा रामचंद्र हिंदू भाइयों ने इस क्षेत्र में शांति स्थापित कर तथा खानदेश से कृषकों को लाकर यहाँ बसा कर पेशवा कि अच्छी सेवा की। उन्होंने उनकी सेवाओं के लिए पुरस्कार के रुप में सन् 1751 में मंडलोई तथा सर कानूनगो का वंशानुगत पद और साथ ही गाँवों तथा लगान मुक्त भूमि खण्ड, प्रतिशत हिस्सा तथा कर वसूली करने का अधिकार प्राप्त हुआ। 1777 ई. में माधव राव पेशवा ने उन्हें टिमरनी ग्राम तथा किला स्थाई बंद के रुप में दे दिया(49)। इसके पश्चात दौलत राव सिंधिया ने उन्हें 2 गाँव और मकड़ाई के राजा के 3 गाँव दिये।

इसी बीच भोंसले घाटी और अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए सतत प्रयास कर रहा था। 1739 तथा 1775 के बीच धीरे-धीरे आक्रमण और अतिक्रमण कर जिले के उन भागों पर कब्जा करने में सफल हुये जो गंजाल नदी के पूर्व में है (50)। लगभग 17 39 ई. में सिवनी-मालवा पर भोसलों का आधिपत्य था । 1756 ई. में उन्होंने सोहागपुर (सांगखेड़ा भूखंड को छोड़, जो भोपाल के शासक के अधीन था) को भी अपने अधीन ले लिया । 1775 ई. तक फतेहपुर के राजा भी भोसलों के अधिपत्य में आ गये। 1778 ई. में हरदा-हंडिया क्षेत्र द्वारा पेशवा द्वारा सिंधिया को दे दिया गया।

दौलतराव सिंधिया ने जिनके पास सिवनी-मालवा लगभग 3 वर्ष से था उसे भोसलों को लौटा दिया।(51) इस प्रकार हरदा, हंडिया के भू-भाग को छोड़कर, होशंगाबाद जिला भोंसला राज्य का एक अंग बन गया।

बढ़ती हुई अंग्रेजी सेना ने अमीर खान को सिरोंज कि ओर वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया और वजीर मोहम्मद अंग्रेजों से अच्छे संबंध बनाए रखना चाहता था, किंतु यह जिला शेष बचे पिन्डारी गिरोह कि विनाशकारी लीला से अछूता न रह सका। जिस इलाके में पिन्डारियों द्वारा बुरी तरह लूटपाट कि गई वह सुहागपुर परगना था। 1803 से 1818 के बीच उसे इस बुरी तरह उजाड़ दिया गया था कि बावई क्षेत्र में मुश्किल से तीन या चार आबाद ग्राम रह गये थे और अधिकांश ग्रामों में पटेल तथा कृषक लगभग गायब ही हो गये थे इसके अतिरिक्त जिले में ऐसा कोई भी ग्राम नहीं बचा था जो इन 15 वर्षों के दौरान एक या दो बार जलाया न गया हो। लोग आपसी सुरक्षा की दृष्टि से सुहागपुर, सिवनी-मालवा तथा टिमरनी के किलों में संरक्षण प्राप्त करने के लिए एकत्र हो जाते थे। (52)।

1817 में अप्पासाहेब ने सहायक संधि के परिणाम स्वरूप उत् पन्न हुई पराधीनता से मुक्त होने का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप उसी वर्ष 26 से 27 नवंबर को सीताबर्डी की लड़ाई हुई । जिसमें अंग्रेजों को विजय प्राप्त हुई और उन्होंने उस पर एक नई संधी थोप दी।(53) इसके अनुसार अप्पा साहब के अधिकार का अधिकांश भाग, जिसमें होशंगाबाद भी शामिल था अंग्रेजों के पास चला गया। (54)। हरदा, हंडिया का क्षेत्र सिंधिया के पास ही बना रहा।

1818 की संधि द्वारा अधिगृहीत क्षेत्रों के प्रशासन कि ओर अंग्रेजों ने अपना ध्यान केंद्रित किया। प्रभावी नियंत्रण बनाये रखने के प्रयोजन के लिए क्षेत्र को सिवनी-मालवा तथा होशंगाबाद के जिलों में बांट दिया गया और मेजर मेक्फर्सन उसका प्रभारी बनाया गया।

14 फरवरी 1818 को जब मेजर मेक्फर्सन सिवनी का प्रभार लेने के लिए पहुँचे, तब प्रेमसुख नगर-प्रधान था और खंडु पंडित उसका आसन्न वरिष्ठ अधिकारी था।(55)उन्होंने कड़ा प्रतिरोध किया । उनके बीच लड़ाई हुई, जिसमें प्रेमसुख पकड़ लिया गया और उसे कैद में डाल दिया गया, परंतु खंडु पंडित बच निकले। बाद में मेजर मेक्फर्सन ने प्रेमसुख को होशंगाबाद के किले में कैद कर दिया। मेजर मेक्फर्सन ने माखन सिंह सेठ को जिले का प्रशासन चलाने के लिए 50 सिपाहियों सहित एक सूबेदार के सामान्य नियंत्रण के अधीन सिवनी-मालवा का नगर-प्रधान नियुक्त किया। (56)

विभिन्न स्थानों के थानों को पहले की तरह कार्य करते रहने की अनुमति दे दी गई थी । स्थानीय व्यक्तियों को सूचित कर दिया गया कि उनके विवाद तथा शिकायतें पहले सेठ तथा सूबेदार द्वारा सिवनी- मालवा में सुनी जायेंगी और यदि उनका निर्णय पक्षकारों को असंतोष जनक लगे तो उन्हें मेजर मेक्फर्सन को अपील करने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी। (57)।

सिवनी मालवा में इन व्यवस्थाओं को करने के पश्चात मेक्फर्सन होशंगाबाद पहुँचा, उन्होंने अपने स्वयं के अधीन नगर को बड़ा डिपो में बदल दिया।(58) और इसके प्रति दिन कि व्यवस्था का काम स्वयं कि सामान्य देखरेख के अधीन खेमचंद सेठ को सौंप दिया। विद्यमान ग्राम व्यवस्था तथा जागीर पद्धति के सूक्ष्म ब्यौरे तैयार करने के लिए का आदेश जारी किया गया और भूतपूर्व सरकार की नियतकालिन दान दिये जाने को जारी रखने क अनुमति दी गई।

वर्ष 1820 में अप्पा साहेब तथा पेशवा द्वारा छोड़े गये जिलों को अंग्रेजों द्वारा “सागर तथा नर्मदा क्षेत्र” के नाम से संगठित किया गया और उन्हें गर्वनर जनरल के एक एजेंट के अधीन रखा है जो जबलपुर में रहता था । इस समय होशंगाबाद में सुहागपुर कि गंजाल नदी तक का इलाका शामिल था और हरदा हंडिया सिंधिया के पास रहा।

होशंगाबाद जिले में 1857 के महान विप्लव के कारण अनेक उथल-पुथल हुई। उस समय होशंगाबाद में 18 वीं मद्रास इन्फेंट्री तैनात थी लेफ्टिनेंट जे.सी.बुड जिले का डिप्टी कमिश्नर था वस्तुतः तूफान आने से कम से कम 6 माह पूर्व से उसके आने के आसार दिखाई देने लगे थे । मेजर एर्सकिन ने इस बात का उल्लेख किया है कि सागर तथा नर्मदा क्षेत्रों के अधिकांश जिलों में जनवरी में किस प्रकार रहस्यमय तरीके से छोटी-छोटी रोटियाँ गाँव-गाँव भेजी गई थी। (59)।

28 अक्टूबर 1858 को छिंदवाड़ा जिले के इतवाहा गाँव का एक कोटवार एक गेरुए रंग का झंडा, एक नारियल, एक सुपारी तथा एक पान का बीड़ा लेकर खबरें जाने आया। यह सोचा गया कि यह झंडा तथा उसका अन्य साथ सामान जनता को जागृत करने के लिए गाँव-गाँव ले जाया जा रहा था।

नाना साहब पेशवा तथा यात्रा टोपे के दूत के जरिए उस दिशा में उनके आगमन कि सूचना देने के लिए घुमाया जा रहा था। अंग्रेजों ने तत्काल कार्रवाई की। नागपुर के कमिश्नर ने पड़ोसी जिले के अधिकारियों को परिस्थिति से निपटने के लिए सतर्क कर दिया। जैसे कि आशंका व्यक्त की गई थी तात्या टोपे जो महान विप्लव के अग्रगण्य में से एक थे, ने गेरुआ झंडा लेकर एक बड़ी सेना के साथ, होशंगाबाद(60) से ऊपरी दिशा में 45 मिल दूर फतेहपुर के निकट सूरेला या संदिया घाट से नर्मदा पार की। फतेहपुर के राजा ने उनका स्वागत किया और तात्या टोपे उनके यहाँ एक रात रूके और राजा से आवश्यक सामग्री तथा मार्गदर्शन लेने के बाद वह आगे बढ़ गए। (61) उन्होंने सीधे दक्षिण और पचमढ़ी पहाड़ी के मार्ग से छिंदवाड़ा से 250 मील दूर एक पुलिस चौकी जामई कि ओर कूच किया। जहाँ उनकी सेना ने 17 सिपाहियों को मार डाला और बैतूल जिले से मुलताई कि ओर बढ़े तथा अंत में 19 नवंबर को भी खरगोन पहुँचे।

जिन व्यक्तियों ने तात्या टोपे की सहायता की थी उनकी सूची स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा तैयार की गई और उन्हें दंडित किया गया। फतेहपुर के राजा पर तात्या टोपे को सामग्री तथा मार्गदर्शन प्रदान करने का आरोप लगाया गया और उसे एक लंबे समय तक उसका फल भुगतना पड़ा । (62)जांच के दौरान उनके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं मिला।

तत्पश्चात ट्ंटया भील ने चारवा इलाके की शांति अनेक वर्षों तक भंग कर रखी थी अन्तत: माफी पाने की आशा में उसने अंग्रेजों के सामने समर्पण कर दिया।

18 57 के महान विप्लव की घटनाओं से जनता को विक्षिब्ध कर दिया और उनमें आक्रोश पनपता रहा। जहाँ अंग्रेज अधिकारी तथा सिविलियन पदोन्मत हो कर देश को पददलित कर रहे थे वही भारत का स्वरूप धीरे-धीरे परिवर्तित हो रहा था। जिले में ऐसी मदोन्मत्रता का स्पष्ट उदाहरण 1891-92 में देखने को मिला (63) होशंगाबाद का डिप्टी कमिश्नर, मकड़ाई के राजा द्वारा उसके कतिपय आदेशों का पालन न किए जाने से नाराज हो गया था। इसलिए डिप्टी कमिश्नर ने राजा पर ट्ंटया भील के प्रति सहानुभूति रखने का आरोप लगाया और उसे तीन वर्ष के लिए गद्दी से उतरवा दिया। (64) जनता जानती थी कि राजा निर्दोष है किंतु वह असमर्थ थी।

स्वतंत्र आंदोलन का उद्भव के समय भी हरदा शहर कि महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।

असंतोष जो अभिव्यक्ति का मार्ग ढूंढ रहा था पहले-पहल धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों के आंदोलन के रूप में व्यक्त हुआ। ऐसे अनेक आंदोलन हुए जिसमें मुख्यता: आर्य समाज, गोरक्षा सभा और गोंड महासभा थी। जिले में जागृति के चिन्ह प्रथमत: 1883 में दिखाई दिए। जबकि सूचना तथा ज्ञान के प्रसार के लिए सिवनी मालवा में ‘नेटिव रीडिंग रूम’ का गठन किया गया और प्राचीन विद्या के उत्थान के लिए संस्कृत सभा भी आरंभ की गई।(65) साथ ही साथ मौजे-ए-नर्मदा, साप्ताहिक उर्दू (होशंगाबाद ) न्याय सभा, अंग्रेजी- मराठी समाचार पत्र (हरदा) तथा सत्य प्रकाश (हरदा) ने जनता में राजनीतिक जागृति के लिए पर्याप्त योगदान दिया और स्वतंत्रता आंदोलन के विकास का मार्ग प्रशस्त किया (66)1905 में बंग विभाजन के बाद हरदा क्षेत्र में कुछ अंग्रेजी विरोधी गतिविधियाँ देखी गई, जिसका श्रेय आत्माराम लाखंडे शास्त्री को दिया जाता है ।(67)।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जब इन्फ्लूएंजा की महामारी फैली तब कुछ प्रबुद्ध कार्यकर्ताओं ने लोगों को सेवा करने की दृष्टि से एक सेवा समिति का गठन किया। बाद में बड़ी संख्या में स्वतंत्रा सेनानी जिन्होंने 1920- 21 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था इसी सेवा समिति के लिए आ गए थे ।(68)।

दूसरा मुद्दा जिसके कारण संपूर्ण देश में राजनीतिक उथल-पुथल मच गई थी और जो जिले में राजनीतिक जागृति का सूचक था वह 1923 का प्रसिद्ध “झंडा सत्याग्रह” था। जय सत्याग्रह प्रांतीय शासन द्वारा जारी किए गए आदेश के कारण भड़क गया था जिसमें नगरपालिका समितियों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के फहराये जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

वर्ष 1926 को मोतीलाल नेहरू तथा मदन मोहन मालवीय जैसे राष्ट्रीय नेताओं की यात्रा से जिले में राष्ट्रीय चेतना को अधिक बल मिला दोनों नेता हरदा आए थे और सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के चुनाव के बारे में आम सभाओं को संबोधित किया ।(69)।

6 अप्रैल 1930 को गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा और होशंगाबाद भी नमक कानून तोड़ा गया। लाला अर्जुन सिंह और शंभू दयाल मिश्रा ने एक आम सभा में नमक तैयार किया और निषिद्ध साहित्य पढ़ा। हरदा में सीता चरण दीक्षित, ठाकुर गुलजार सिंह, दादाभाई नाइक तथा महेशदत्त मिश्र ने भी नमक कानून तोड़ा और निषिद्ध साहित्य पड़ा(70) सुहागपुर के सैयद अहमद ने जबलपुर में एक सभा को संबोधित किया। बाद में इन सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।

स्वतंत्रता प्राप्त करने की जनकांक्षा, सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान, जिले के अनेक भागों में उनकी विशाल उपस्थिति से प्रदर्शित हो रही थी। जब मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू को रेल द्वारा यरवदा जिले के नैनी केंद्रीय जेल ले जाया जा रहा था उस समय का वर्णन जवाहरलाल नेहरू करते हैं:- प्लेटफार्म पर अपार जनसमूह उमड़ रहा था और कहीं-कहीं तो विशेष रूप से हरदा, इटारसी तथा सुहागपुर में जनसमूह ने रेल पटरियों तक को घेर रखा था दुर्घटनाएं होते-होते बची। (71)।

जेल से छूटने पर गांधी जी ने हरिजनों के उद्धार के लिए कार्यक्रम प्रारंभ किया। नवंबर 1933 में उन्होंने एक 10 महीने की लंबी यात्रा प्रारंभ की,, जिसके दौरान वह इटारसी, सोहागपुर, बाबई तथा हरदा की आये।

30 नवंबर 1933 को गांधी जी बैतूल से इटारसी पहुँचे। इटारसी का प्लेटफार्म उनके स्वागत के लिए खचाखच भरा हुआ था । हिरालाल चौधरी की अध्यक्षता में गांधी जी ने आम सभा को संबोधित किया।(72) इस यात्रा के दौरान गांधी जी सेठ लखमी चंद्र की धर्मशाला भी गए थे। अगले दिन करेली के लिए रवाना हो गए। बाद में वे मंडला से जबलपुर लौटते समय 6 दिसंबर को सुहागपुर पहुँचे ।(73)।

इस अवसर पर सेमरी के गोखले ने हरिजन निधि के लिए गांधी जी को एक थैली भेंट की और बिचपुरा के दीवान की ओर से सैयद अहमद ने इसी प्रयोजन के लिए आभूषणों का जोड़ा भेंट किया(74) उसी दिन गांधी जी माखनलाल चतुर्वेदी की जन्म स्थली बाबई गए। इसके बाद गांधी जी वापस सुहागपुर आए और वही रात्रि विश्राम किया(75) अगले दिन वह रेल से हरदा पहुँचे। स्वागत समिति की ओर से बेनी माधव अवस्थी तथा गोदावरी बाई ने उनकी अगवानी की। गांधीजी गणेश चौक तथा हरिजन छात्रावास में गए । उनके द्वारा संबोधित की गई सभा की व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि गांधी जी ने उसका उल्लेख “हरिजन साप्ताहिक” में किया। सभा में उन्हें हरिजन निधि के लिए रुपए 1,111 की राशि भेंट की गई ।(76)यहाँ से गांधी जी खंडवा के लिए रवाना हो गए।

गांधी जी के तूफानी दौरे से राष्ट्रीय आंदोलन को बल मिला। कांग्रेस 1937 में अपना मंत्रिमंडल बनाने में समर्थ हो गई थी। जबकि 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हुआ, तब कांग्रेस ने इस युद्ध में सहयोग देने से इनकार कर दिया, क्योंकि साम्राज्यवादी नीति पर लड़ा जा रहा था और उसका एक कारण व्यक्तिगत सत्याग्रह आरम्भ करना भी था जिले के लगभग 50 व्यक्तियों ने इस सत्याग्रह में भाग लिया था।(77)।

इस समय तक आजाद हिंद फौज के कैदियों पर चलाए जा रहे मुकदमों के कारण सार्वजनिक प्रदर्शनों कि एक दूसरी लहराई आई।
जिसका नारा था–“ब्रिटिश साम्राज्य का नाश हो।”

नए मध्य प्रदेश राज्य का गठन सन् 1956 में किया गया, जिसमें होशंगाबाद जिला भोपाल संभाग का एक भाग बन गया। इसके बाद सन् 1971 में होशंगाबाद को एक राजस्व संभाग बनाया गया था जिसमें तवा परियोजना के विकास के लिए केवल होशंगाबाद जिला शामिल था।

बीच में बहुत सी घटनाएँ हुई है जो आवश्यक तो है लेकिन इस लेख के लिए आवश्यक नहीं है इसलिए इसे हरदा, सिवनी मालवा, होशंगाबाद और बुरहानपुर तक ही सीमित रखा गया। मकसद है कि हम जिस पृष्ठभूमि पर रहते हैं कितनी पावन और संघर्षपूर्ण रही हैं जहाँ पर ऐसे वीरों ने जन्म लिया और ऐसे महान नेतृत्व के धनी द्वारा पदार्पण किया गया है हम उस जगह पर रह कर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं।

वर्तमान पता:- कान्हाश्री फिलिंग सेंटर
एन एच A59 बहरागाँव त. रहटगाँव
जि हरदा (मध्य प्रदेश)


संन्दर्भ

1.. इंडियन आर्कियालॉजी-ए रिव्य,1959-60, पृ.22
2..वहीं, 1961-62, पृ. 22 तथा 99.
3..वहीं,1962-63, पृ.10, डेरेटा एण्ड पेटेसन, स्टडीज इन आइस एज इन इंडिया एण्ड एसोसिएटेड ह्यूमन कल्चर पृ.312-26.
4..वहीं 1962-63,पृ.14.
5..एम. एस. अली, दी जिओग्राफी ऑफ दी पुराण,पृ.161.
6.. किंतु वाणासुर के मुख्यालय के रूप में सुहागपुर का दावा संदेह के परे नहीं है। केदार गंगा या मंदाकिनी नदी के किनारे कुमाऊ क्षेत्र में ऊषामठ से लगभग 6 से 9 किलोमीटर की दूरी पर एक अन्य स्थान है जो सोणितपुर के नाम से विख्यात है। वहीं पहाड़ी कि चोटी पर जीर्ण शीर्ण किला है जो आज भी बाणासुर का किला कहलाता है । मत्स्य पुराण में बाणासुर को त्रिपुरा, त्रिपुरी का सम्राट कहा गया है। असमिया का दावा है कि तेजपुर प्राचीन सोणितपुर था। देखिए -एन.एल.डे. कि ज्योग्राफीकल ऑफ एशियंट एंड मेडिवल इंडिया पृ.189.

7..डी.सी.गांगुली, हिस्ट्री ऑफ दी परमार डायनेस्टी,पृ 131.
8.. होशंगाबाद डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, 1908,पृ. 25. हीरालाल मध्य प्रदेश का इतिहास,पृ. 72.
9.. दि स्ट्रगल फॉर दी एंपायर, पृ. 71-72.
10..वही, यूं.एन.डे.पूर्वो, पृ 6 के. जब.एल.लाल, हिस्ट्र ऑफ दि खिल्जीज,पृ113-115 तथा 261, द देह्ली सुल्तनेट, पृ.29.

11..मेहदी हुसैन, तुगलक डायनेस्टी, पृ.106-07.
12..वही पृ.15-16.
13..फरिश्ता, हिस्ट्री ऑफ दी मोहम्मडन पावर इन इंडिया टिल दी ईयर एक.डी.1612,जाॅन ब्रिग्स द्वारा अनुदित, जिल्द चार पृ.168-169,तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन भाग, दो पृ. 486.
14.. कैंब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, जिंद तीन पृ. 352 में इस कथन की पुष्टि न तो तबकात-ए-अकबरी और न ही फरिश्ता द्वारा की गई है।
15.. दि गजेटियर ऑफ द सेंट्रल प्राविंसेस,1870,पृ.201, होशंगाबाद डिस्ट्रिक्ट गजेटियर,1908,पृ.25 होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867.
16..यू.एन.डे.पूर्वो,पु.पृ.220-221 तथा 235.
17..वहीं,पृ.242-243, 64-65.
18..दि तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन, भाग दो पृ.566.
19..यू.एन.डे.पूर्वो. पु. पृ. 267-68.
20..यू.एन.डे., पूर्वो. पु. पृ.307-09; दि तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन, भाग दो पृ.612-15.
21.. यू.एन.डे., पूर्वो. पु. पृ. 312-315-19.
22..वही, पृ. 319.
23..वही, पृ. 323-26.
24..वही, पृ. 327-329; दि तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन भाग दो पृ.617.
25..यू.एन.डे., पूर्वो. पु. पृ.329.
26..वही, पृ. 331.
27..दि तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन, भाग दो पृ.617; फरिश्ता, जिल्द चार, पृ. 271.
28..फरिश्ता, जिल्द चार, पृ.275.दि तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन, भाग दो पृ.628.
29..वही, पृ.628-29; फरिश्ता, जिल्द चार, पृ. 279.
30..दि तबकात-ए-अकबरी, जिल्द तीन, भाग दो पृ.629.
31..वही, पृ.6-30; फरिश्ता, जिल्द चार, पृ. 277।
32.. अबुल फजल,अकबरनामा,बेवरिज द्वारा अनूदित, जिल्द दो पृ.207-14.
33..वहीं पृ. 214.
34..ब्यौरे के लिए देखे वही पृ.214,218-19, 221-222 तथा 235.
35..वहीं पृ. 256-59.
36..अबुल फजल आइन-ए-अकबरी,फांसिस ग्लेडविन दरवाजा अनूदित,जिल्द एक,1885 पृ. 94.
37..एम.एल.श्रीवास्तव,पूर्वो, पुस्तक,जिल्द एक,पृ. 14-15.
38..वहीं पृ. 352तथा 420.
39..थे.एन.सरकार, हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब, जिल्द पांच,280.
40.. होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867.पृ. 23.
41..ब्यौरे के लिए देखे होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867.पृ. 23-27.
42..होशंगाबाद डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पृ. 28.
43.. सी यू विल्स, दि राज-गोंड महाराजा ऑफ सतपुड़ा हिल्स, पृ. 112 तथा 122.
44.. निमाड़ डिस्ट्रिक्ट गजेटियर पृ. 35.
45..होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867.पृ. 28.
46..वही.
47..होशंगाबाद डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पृ. 29.
48..होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867.पृ. 29.
49..होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867.पृ. 29.
50..वहीपृ. 33 होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट, पृ. 31.
51..होशंगाबाद डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पृ. 33.
52.. हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन मध्य प्रदेश पृ. 7.
53..आर. एम. सिन्हा, भोसलाज ऑफ नागपुर, दि लास्ट फेम, पृ. 3.
54..एच.एन. सिन्हा, पूर्वोपु. पृ.8.
55.. वही,पृ. 13.
56..वही.
58..बेलेन्टाइन ब्लेकर,मेमायर्स ऑफ दि आपरेशन ऑफ ब्रिटिश आर्मी इन इंडिया ड्यूरिंग दि मराठा वार ऑफ1817,1818 तथा 1819, पृ.119.
59..डब्ल्यू एर्सकिन, नरेटिव ऑफ इवेंट्स अटेण्डिंग दि आउटब्रेक ऑफ डिस्टरवेंसेस एंड दिरेस्टोरेशन ऑफ अथारिटी इन दि सागर एंड नर्मदा टेरीटोरीज इन 1857,aपृ. 2.
60..डाॅ.धर्मपाल, तात्याटोपे पृ. 201.
61..होशंगाबाद डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, पृ. 38.
62..एस.बी.चौधरी, पूर्वो; पृ. 228
63..होशंगाबाद सेटेलमेंट रिपोर्ट,1867, एस.बी.चौधरी, पूर्वो; पृ. पृ.54.
64..मौजा-ए-नर्बदा, होशंगाबाद,(साप्ताहिक उर्दू), 16 सितम्बर,1812.
65..सी.पी.एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट,1886-87.
66..वहीं। प्रयाग दत्त शुक्ला,क्रांति के चरण,4-5 और 64.
67..स्मारिका,म्युनिसिपल कमेटी, हरदा1975.
68..स्मारिका, म्युनिसिपल कमेटी, हरदा1975.
69..डी.पी. मिश्रा, लिविंग एन जरा पृ. 93;स्मारिका,म्युनिसिपल कमेटी, हरदा1975.
70..वहीं, पृ. 71.
71.. जवाहरलाल नेहरू आटोबायोग्राफी, पृ. 230.
72.. मध्य प्रदेश और गांधी जी,पृ. 35.
73..वही पृ. 44.
74..वही पृ. 45.
75..वही पृ. 46.
76..वही,
77..वही पृ. 46; स्मारिका, म्युनिसिपल कमेटी, हरदा1975.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *