ग़ज़ल
बिन तुम्हारे जहाँ भी जाती हूँ,
साथ मुश्किल तमाम पाती हूँ।
बर्फ पर्वत से अब नही आता,
दर्द नदिया का सब सुनाती हूँ।
आज जंगल उदास हैँ सारे,
उसकी बर्बादियाँ बताती हूँ।
नाव बनकर लगाया पार मुझे,
डूबने पर भी मुस्कुराती हूँ।
कर रहे हैँ सितम जहां वाले,
मैं उसे भी कहाँ सताती हूँ।
झूठी शोहरत बटोरते साथी,
सोचकर मैं ये कांप जाती हूँ।
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