​​​​​​ग्वालियर में महान क्रांतिकारियों का प्रवेश और रानी लक्ष्मीबाई की 18 दिन की अंतिम यात्रा 

Anjana chhalotre
अंजना छलोत्रे

कालपी से छिटकर सभी क्रांतिकारी नेता आगामी योजना बनाने के लिए ग्वालियर से 46 मील दूर गोपालपुर में डेरा डाला ।  वास्तव में इस समय विजय का कोई आसार नहीं थे।  नर्मदा से यमुना तक और यमुना से हिमाचल तक सारे प्रदेश अंग्रेज फिर से जीत चुके थे । क्रांतिकारियों के पास सैन्य बल नहीं था।  किले आदि भी नहीं थे। बार-बार हार होते रहने से नई सेना का संगठन करना भी असंभव सा ही था । लेकिन इन सब परिस्थितियों के बावजूद लक्ष्मीबाई ने प्रतिशोध की भट्टी में सद्गुणों के कण  का चमत्कार 18 57 की क्रांति में अमूल्य रत्न जड़ दिया,जो स्वतंत्र भारत के मस्तक पर आज भी देदीव्यमान है। 

 
 
सूचना भेजी

गई 31 मई सन 1858 को क्रांतिकारी सेना बड़ा गाँव पहुँची जो ग्वालियर से मात्र 6 मील की दूरी पर था।  महाराजा शिंदे ने क्रांतिकारी सेना के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए पुरुषोत्तम राव और कामराज को भेजा।  वह राव साहब से मिले।  राव साहब ने कहा ” हम यहाँ लड़ने नहीं आए हैं ,हम लोग कुछ दिन यहाँ आराम करेंगे, रसद और कुछ धन लेकर दक्षिण चले जाएंगे, हमारे पास ग्वालियर से 200 पत्र आए हैं, जिसमें हमें ग्वालियर आने का निमंत्रण और सहायता का आश्वासन दिया गया है, ऐसी स्थिति में अकेले महाराजा शिंदे और उनके दीवान क्या कर सकते हैं। 

प्रतिउत्तर में आक्रमण …

राव साहब को विश्वास नहीं हुआ कि महाराजा शिंदे की सेना आक्रमण करेगी , वह यही सोच रहे थे कि महाराजा उनके स्वागत के लिए आ रहे हैं , थोड़ी ही देर में तोपों का गर्जन सुनाई देने लगी, फिर भी राव साहब की यह धारणा थी कि उनके स्वागत में सलामी दी जा रही है, कुछ समय बाद राव साहब की सेना पर गोले बरसने लगे, सेना में हड़बड़ी मच गयी, सिपाही इधर उधर भाग कर अपनी सुरक्षा व शस्त्र तलाशने लगे, इस संकट की घड़ी में रानी लक्ष्मीबाई ने अपने 300 सैनिकों के साथ जयाजीराव शिंदे के  तोपखाने पर धावा बोल दिया, थोड़े ही समय में जयाजीराव शिंदे और उसके अंगरक्षक हताश से लगने लगे, देशभक्त महादजी शिंदे का कितना अंश फिरंगी भक्त जयाजी में उतरा है कि तलवारे चमक उठी, सभी भाले लेकर घाटी में वीर दीखने लगे। फिर भी उसका तोपखाना अवश्य अपनी शक्ति दिखा देता । ग्वालियर की सेना ने तात्या टोपे को देखा और अपनी शपथ स्मरण कर,  राव साहब के विरुद्ध लड़ने से साफ इंकार कर दिया।  मुख्य सेना अधिकारियों के साथ सारी सेना पेशवा के साथ हो गई , तोपखाना रखा रह गया । ग्वालियर के हर सैनिक ने स्वराज के झंडे को प्रणाम किया ।
कायर जया जी उनका मंत्री दिनकर राव दोनों केवल रणभूमि ही नहीं , ग्वालियर छोड़कर आगरा भाग गई।

ग्वालियर में प्रवेश….

1 जून….,ग्वालियर में प्रवेश करने ओर महाराजा शिंदे तथा उनके मंत्रिगण के आगरा भाग जाने की खबर 1 जून को सुबह की सुनहरी किरणों के साथ रानी लक्ष्मीबाई ने राव साहब को पहुँचाई  । ग्वालियर में इन महान क्रांतिकारियों का प्रवेश हुआ । ग्वालियर की सेना ने तोपों दागकर उनको सलामी दी । सड़कों के दोनों ओर खड़े होकर लोगों ने राव साहब , रानी लक्ष्मीबाई तथा तात्या टोपे के वीर सैनिकों का स्वागत किया। रहने का स्थान तलाशकिये गये, राव साहब का महाराजा के महल में रहना निश्चित हुआ ।  बांदा नवाब ने रहने के लिए दिनकर राव राजवाड़े का बाड़ा पसंद किया । तात्या टोपे का नगर के बाहर अपनी सेना के साथ कंपू में रहने का निश्चय हुआ।  रानी लक्ष्मीबाई ने लश्कर के साथ नौलखा बाग में रहने का स्थान चुनाव । किन्तु वह वहाँ नहीं रही।  एक तांगे वाले के घर में छुप कर रही।  वह रोज रात को घर – घर जाकर पता लगाती कि सरदार फालके वहाँ छुपा है या नहीं । पता लगते ही सरदार फालके के घर रात 2:00 बजे आवाज देकर कहती ….”चौकीदार.. चौकीदार  तुम्हारा सरदार कहाँ है , क्या चूड़ियाँ पहन कर बैठा है।” चौकीदार गोपाल राव बाहर आया,  उसने देखा तीन चार घुड़सवार दरवाजे पर खड़े हैं , और मर्दाना वेश धारण किए हैं लेकिन जनाना आवाज में निश्चय ही यह क्रांतिकारी हैं , रानी रात भर गश्त लगाती थी , शहर के हालचाल पूछती,  तथा सतर्क रहती थी कि किसी भी समय अंग्रेज आक्रमण कर सकते हैं । ग्वालियर में प्रवेश करते ही क्रांतिकारी सैनिकों ने सबसे पहले रेजीडेंसी पर आक्रमण किया, पहले तो उसे लूट लिया बाद में उसमें आग लगा दी । अंग्रेजों के पक्षपाती माहुरकर और बलवंत राव आदि सरदारों के मकान लूट लिए गए तथा उसमें आग लगा दी गई । बाद में ग्वालियर में राव साहब की कड़ी सुरक्षा के चलते लूटमार बंद हुई । महाराजा जियाजी राव शिंदे ने शेखरवारा के खरगजीत सिंह,  डूंगर सिंह शाह , बख्तावर सिंह आदि को विद्रोह के अपराध में जेल में बंद कर दिया था । उन्हें व अन्य क्रांतिकारियों को जेल खाने से आजाद कर दिया गया , तथा उन्हें सेना में उच्च अफसर भी नियुक्त किया गया ।  तात्या टोपे ने सेना की एक टुकड़ी किले पर भेजी किले के रक्षक सूबेदार बलदेव सिंह और नवाब सूबेदार अनंतराम ने क्रांतिकारी सैनिकों के आते ही किले का फाटक खोल दिया । 
2 जून… को राव साहब ने शिंदे राजपरिवार से मित्रता के संबंध स्थापित करने का प्रयत्न किया।  जब महाराजा युद्ध क्षेत्र से भागकर आगरा की ओर रवाना हुए,  तो राव साहब ने महाराजा के एक निकट संबंधी रामराव पवार को उन्हें समझा बुझाकर ग्वालियर वापस लाने के लिए भेजा । राव साहब ने उन्हें हर प्रकार के आश्वासन दिए , किन्तु वह ग्वालियर लोटने के लिए तैयार नहीं हुए । जब  राज माता बायजीबाई को महाराजा तथा दीवान के भाग जाने की खबर मिली,  वह भी महाराजा चिमना राजा और अन्य राजकुल की महिलाओं के साथ ग्वालियर से 6 मील दूर पनिहार नामक स्थान पर चली गई थी । उनकी सुरक्षा के लिए उनके साथ 15 सौ सैनिक तथा 5 सरदार थे । 

3 जून…,  राव साहब ने उन्हें ग्वालियर वापस आने और अपना राज्य वापस लेने के लिए दो पत्र लिखें , जिनका बायजीबाई ने कोई जवाब नहीं दिया , बल्कि उन्होंने उन दोनों पत्रों को मध्य भारत के पोलिटिकल एजेंट सर रॉबर्ट हैमिल्टन के पास भेज दिए । ग्वालियर के राजकुल से मित्रता का प्रयास असफल रहा।  महाराजा शिंदे के शासन काल में ग्वालियर में जैसा शासन प्रबंध था,  राय साहब ने उसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया,  जो पुराने अधिकारी राव साहब के अधीनता में काम करने को तैयार हुए उन्हें उनके पदों पर ही रहने दिया गया, जो अधिकारी ग्वालियर से भाग गए थे,  तथा जो स्थान रिक्त हो गए थे उन स्थानों पर राव साहब ने नये आदमियों को नियुक्त किया । दिनकर राव की जगह  राजराव गोविंद देशमुख,  दीवान के पद पर नियुक्त किए गए । तात्या टोपे सेनापति बनाए गए।  तथा उन्हें रत्न जड़ित तलवार दी गई । अमरचंद बांठिया कोष अध्यक्ष नियुक्त हुए , और मोरोपंत सहायक कोषाध्यक्ष बनाए गए ।  सैनिकों को 20 लाख रुपए बांटे गए।  पुराना कोतवाल बायजीबाई  के साथ भाग गया था,  उसके पद पर नायक कोतवाल पदोन्नत कर कोतवाल बनाया गया।  जियाजी राव के संबंधी राम राव पेशवा ने  पेशवा की अधीनता में काम करना स्वीकार किया , अतः वह रसद विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। ग्वालियर के कुछ लोगों ने पत्र लिखकर , ग्वालियर की घटनाओं की सूचनाएँ अंग्रेजों तथा महाराजा के पास भेजने का प्रयास किया , किंतु क्रांतिकारियों ने ग्वालियर से बाहर जाने वाले विभिन्न मार्गों पर अपने पहरेदार नियुक्त  किए थे,  इन पहरेदारों ने इस प्रकार के कई पत्र पकड़ लिए,  उनके लिखने वालों को पकड़ लिया गया तथा उन को मृत्युदंड दिया गया ।

 सेना का पुनर्गठन आरंभ…. 

तात्या टोपे ने सेना का पुनर्गठन आरंभ कर दिया,  शिंदे के जो सैनिक अधिकारी क्रांति सेना में काम करने को तैयार थे उन्हें सेना में उच्च पद प्रदान किए गए ।  राव एडजूटेंट जनरल और केशवराव लग्गर को बिग्रेडियर के पद पर नियुक्त किया। माधवराव हांडे जिन्होंने दिनकर राव की आज्ञा से जयाजीराव को आगरा तक सुरक्षित पहुंचया था , अब क्रांतिकारी सेना के ब्रिगेडियर मेजर बनाए गए । इसी प्रकार जियाजी राव के विश्वसनीय भाऊ गायकवाड तथा चिमणराव को सेना में उत्तरदायित्वपूर्ण पद प्रदान किए गए । इन्हीं लोगों की सहायता से तात्या ने सेना में नई भर्ती आरंभ की । गाँव में सैनिक भर्ती करने के लिए लोगों को भेजा गया । प्रत्येक जागीरदार को आदेश दिया गया कि वह कम से कम 25 जवानों को सेना के लिए ग्वालियर भेजें । इस प्रकार तात्या ने अत्यंत अल्पकाल में एक बड़ी सेना तैयार कर ली।  नए रंगरूटों को सैनिक शिक्षा देने और उनकी प्रतिदिन कवायत कराने का काम विद्रोही सेना के शिक्षित अफसरों को सौंपा गया।  साथ ही सेना का  विस्तार तीव्र गति से किया जाने लगा । 
महदजी महाराजा की खजाने की खोज में उन्हें गंगाजली नाम से खजाना मिला । महाराजा शिंदे ग्वालियर के कोषाध्यक्ष अमरचंद बांठिया राज्य का सारा खजाना राव साहब को सौंप दिया । राव साहब की सेना व उसके साथियों के रहने की तथा अन्य आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करने का भार सौंपा गया। खजाना हाथ आते ही राव साहब ने सबसे पहले ग्वालियर सेना के सिपाहियों को तीन-तीन माह का वेतन दिया।  साथ ही प्रत्येक सिपाही को दो-दो माह का वेतन पारितोषिक स्वरूप दिया गया । इस काम में 9 लाख रुपए खर्च हो गए।  राव साहब ने अपनी सेना में 7:30 लाख रूपय वितरित किए। रानी लक्ष्मीबाई को 20 हजार और बांदा नवाब को 60 हजार रुपये दिए गए।  राव साहब ने स्वत: 15 हजार मोहरे , राज परिवार की महिलाओं के 536 रत्न,  शिंदे की पायगाह से 18 बढ़िया घोड़े ,  11 हाथी , कुछ ऊँट लिए , जो सरदार जयाजीराव या बायजीबाई के साथ भाग गए थे उनकी संपत्ति जप्त कर ली गई।
3 जून.. सन1858 को महाराज के महल में एक शानदार दरबार किया गया । यह विजय उत्सव उस समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रचार प्रसार के लिए भी जरूरी था । राव साहब एक ऐसे केंद्र-बिंदु का निर्माण कर रहे थे जहाँ देशभर के बागी सैनिक जुटे हो सकते थे । राव साहब तात्या टोपे को उम्मीद थी कि दक्कन के मराठा राजवाड़े भी उनकी मुहिम में शामिल हो जाएंगे क्योंकि उन्हें पेशवा परिवार से गहरी सहानुभूति और प्यार था । राव साहब के सहायक सरदार राजनीतिज्ञ शिलेदार आदि योग्य स्थानों पर खड़े थे ।  तात्या टोपे तथा सेना के अधिकारी सैनिक गणवेश धारण कर दरबार में उपस्थित हुए । स्वयं राव साहब राजसी पोशाक पहनकर, संपूर्ण वैभवयुक्त होकर चोपदार और बंदी जनों की मंगल स्वीकार करते हुए राव साहब सिंहासन पर विराजमान हुए । सरदारों, जागीरदारों और अधिकारियों ने उन्हें नजरें दी । राव साहब ने सबका यथायोग वस्त्र, पोशाक आदि प्रदान कर सम्मान किया । यही तात्या टोपे का एक तलवार भेंट की गई। 

उत्सव ही उत्सव…

 4 जून.. , शहर के चारों ओर उत्सव मनाया जाने लगा,  नाच गानों के जलसे होने लगे । नव प्राप्त वैभव का खूब प्रदर्शन किया जाने लगा । ब्राह्मणों को भोजन कराया जाने लगा तथा उन्हें खूब दक्षिणा दी जाने लगी। नाना साहब पेशवा के प्रतिनिधि राव साहब ने इस तरह एक नया सिहासन जमाया, एक नई आशा , नया प्राण क्रांति दल में प्रेरित किया और विश्रृंखलित क्रांतिकारियों को एक सूत्र में पिरोने के लिए एक नया केंद्र स्थापित किया। जिस चतुरता और नीतिग्यका का परिचय ग्वालियर पर कब्जा करने में तात्या और रानी लक्ष्मीबाई ने दिया, उसके बारे में  मैलसन  लिखता है —“असंभव संभव कैसे बन गया यह बताया गया है।”   ” ह्मूरोज.. को यह भी मालूम हुआ कि अब और देर करने का परिणाम क्या होगा । क्रांतिकारियों के हाथ से यदि ग्वालियर शीघ्र न छीना गया तो क्या भयंकर परिणाम होंगे । उसकी कल्पना करना कठिन था।   ग्वालियर पर दखल करने से जो असीम राजनीति के बाद सैन्य शक्ति तात्या ने प्राप्त की और जो  मानव शक्ति , धन , युद्ध सामग्री के साधन उसे  मिले थे,  उस के बल पर कालपी में बिखरी सेना को एकत्रित कर,  फिर से नई सेना खड़ी करेगा , और भारत भर में मराठों का उत्थान होगा, अपने स्वाभाविक जीवटता के बलबूते पर वह दक्षिण महाराष्ट्र में फिर से पेशवा का झंडा लहराने में समर्थ होगा । उस प्रदेश से हमारी अर्थात् अंग्रेजी सेना निकाली गई थी और यदि मध्य भारत में तात्या को विशष विजय मिल जाए तो वहां के लोग पुन:  साधना में लग जाएंगे । इसी साधना को पूरा करने में उसके पूर्वजों ने अपनी शक्ति क्षीण की थी, अपना खून बहाया था ।” 

5 जून ..,एक प्रकार से कई दिनों तक ग्वालियर आनंद उत्सव उल्लास, रंग,  रांग और उत्सव में मग्न हो गया।  पुने में अस्तांचल हुई  पेशवाई , ग्वालियर में पुनर्जीवित हो गई तथा निर्माण पूर्व की दीप शिखा की तरह वहां। यहा कुछ क्षणों के लिए जगमग उठी  थी । उधर ह्मूरोज को ग्वालियर पर आक्रमण करने का दायित्व मिलते ही अपनी सेना की कमान अपने हाथ में ले ली , तथा 5 जून को व सेना के साथ ग्वालियर की ओर रवाना हुआ। 

6 जून.., लक्ष्मी बाई मैं कुछ दिनों तक समारोह की धूम धाम कम हो जाने का धैर्य पूर्ण इंतजार किया लेकिन राव साहब के व्यवहार में कोई परिवर्तन मैं देख कर उन्होंने अपनी नाराजगी वक्त की तथा नो ने उसको और समारोह से दूर रहकर अपनी 80 प्रति और आप प्रसन्नता जाहिर की थी लक्ष्मीबाई और टाटा टॉपर इन उत्सव में अमूल्य समय नष्ट होती देख चिंतित थी वह समझते थे कि ग्वालियर का विशेषण इक आग है तथा उन ऐसी ग्र उन्हें शीघ्र रणक्षेत्र में उतरना पड़ेगा इसके लिए अगर तैयारी न की गई तो क्रांति की सफलता ही की रही सही आज ही नष्ट हो जाएगी रानी सहारा समय आने वाले दिनों की तैयारी में लगी रहती थी . उन्हें सेना प्रमुख ने 8 हजार इन्फैक्ट्री तथा 4 हजार कब्लरीे उपलब्ध करवाई । इस बात से खुश होकर रानी लक्ष्मीबाई ने उस मराठा सेना प्रमुख को अपनी हीरे की अंगूठी तथा एक कटार सम्मान स्वरूप भेंट की।
 
7 जून… , तात्या टोपे राव साहब के कर्मचारी थे । वे राव साहब से कुछ कहने का साहस कैसे करते , किंतु रानी लक्ष्मीबाई ने रायसाहब की हरकतों पर साफ – साफ बात करने का फैसला किया , स्पष्ट शब्दों में रानी ने राव साहब को बता दिया कि शिंदे को जीतकर उनका सिर फिर गया है और वह अपने आप को संपूर्ण धरती का मालिक समझने लगे हैं , उनका यह बर्ताव आगे चलकर गंभीर खतरा पैदा कर सकता है ,  उन्होंने राव साहब को सावधान भी किया कि वह दुश्मन की तातक व  श्रोंतों  को कम करके ना आंके और यह भी ना बोलो कि अंग्रेज बहुत चालाक नहीं हैं , उन्होंने राव साहब को समझाया कि ग्वालियर का किला जीतकर और शिंदे की फौज पर अधिकार प्राप्त कर उन्हें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए , बल्कि अब उन्हें अधिक सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि दुश्मन आक्रमण किसी भी दिशा से और कभी भी कर सकता है।
 
8 जून ….इस समय ग्वालियर में क्रांतिकारियों के हाथों में युद्ध के सभी साधन आ गए थे , ग्वालियर की सहायता शिंदे की शिक्षित सेना में कुल मिलाकर 20 हजार  सैनिक थे,  तोपों बंदूक के गोले,  गोलियों , शस्त्र आदि विपुल मात्रा में थे, धन की भी अब उनके पास कोई कमी न थी।  यह  युद्ध सामग्री इतनी प्रचुर मात्रा में थी , कि इस सामग्री के साथ वर्षों तक युद्ध चलाया जा सकता था ।
 
9 जून … आवश्यकता केवल इन मिले हुए अवसर और साधनों का भाग्य से प्राप्त इस अनुकूलता का अपनी और अन्य क्रांतिकारियों की स्थितियों को मजबूत करना चाहती थी लक्ष्मीबाई । लेकिन राव साहब उनकी चेतावनी को अनसुना कर समय बर्बाद करते गए और खजाने को फिजूलखर्ची तथा मौज मस्ती में उड़ाते रहे । रानी लक्ष्मीबाई अपन कोे छुपाते हुए इस समय नाना बाई की कोठी में रह रही थी।
 
 10 जून …क्षणिक अधिकार प्राप्त राव साहब ने गोपालपुर में बैठ कर किया गया निश्चय को अपनी किस्मत पटल से निकाल दिया था , और आलम यह ढाक के तीन पात वाला ही था।
 
 उधर ग्वालियर पर शीघ्र से शीघ्र विजय प्राप्त करने के लिए ह्मूरोज उस पर एक साथ चारों ओर से आक्रमण करने की योजना बना रहा था । उसने मेजर ‘अोर’ को हैदराबाद की सेना के साथ ग्वालियर तथा शिवपुरी के बीच पनिहार नामक स्थान पर पहुंचने का आदेश दिया ताकि क्रांतिकारी दक्षिण की ओर बढ़ न सके।
 
 
 
11 जून — को भी ग्वालियर का विजयोन्माद बरकरार था। ह्मूरोज ने बिग्रेडियर स्मिथ को राजपूताना की सेना के साथ कोटा की सराय की ओर भेजा , यह स्थान ग्वालियर से 5 मील की दूरी पर दक्षिण की ओर था।  कर्नल रिडले को आज्ञा दी गई कि वह आगरा मार्ग से ग्वालियर की ओर बढ़े , स्वयं ह्मूरोज,  हैमिल्टन तथा मेकफर्सन के साथ पूर्व की ओर से ग्वालियर के लिए रवाना हुआ , इन लोगों को अनुभव पूर्ण सलाह विशेषकर मेकफर्सन की स्थानीय जानकारी का उन्हें बहुत लाभ हुआ। योजना के अनुसार चारों दिशाओं की सेनाओं को 19 जून 1858 तक अपने – अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। 

12 जून– ग्वालियर में सत्ता के साधनों को हासिल करना और उन्हें प्रभावशाली तरीके से कायम रखना दो अलग-अलग बाते हैं । यह तभी संभव है, जब सभी क्रांतिकारी नेता एक मत हो इस पर विचार करते । ह्मूरोज की सेना इंदुरी नामक गाँव के निकट पहुँची । वह वहाँ से 12 जून को ही रवाना होकर पहुज नदी पार कि । इसके बाद का मार्ग पहाड़ी था, इस पर आगे बढ़ने में सैनिकों को बड़ी परेशानी हुई , यहीं पर जनरल नेपियर अपनी सेना के साथ अवध से  आकर ह्मूरोज  की सेना से मिल गया।

 13 जून …को ह्मूरोज को समाचार मिला कि क्रांतिकारी सेना मुरार के पास उसकी सेना का सामना करने के लिए मोर्चेबंदी कर रही है, तो ह्मूरोज ने तुरंत चारों ओर के महत्वपूर्ण स्थानों पर अधिकार कर लिया । यह समय दोपहर का था , सूर्य की तेजी भी विकराल रुप धारण करती जा रही थी।  इस बात की खबर जब राव साहब को लगी तो उन्होंने तात्या टोपे को अंग्रेजी सेना का सामना करने की आज्ञा दी ।  तात्या ने मुरार के निकट मोर्चाबंदी की तथा युद्ध की तैयारी करने लगे , पर अंग्रेजों की अनुशासित व सुसज्जित सेना का सामना करने के लिए जिस प्रकार की सैनिक व्यवस्था  करने की आवश्यकता थी उसके लिए समय कम था और वह हो  भी नहीं सकी। ह्मूरोज ने एक ओर घुड़सवार सेना तथा दूसरी ओर तोपखाना रखा तथा अपनी सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी।  ज्यों ही  यह सेना क्रांतिकारियों की तोपों की मार के अंदर पहुंची , वैसे ही उस पर गोले बरसने लगे , साथ ही  बंदूकों की बौछार भी प्रारंभ हो गई । अंग्रेजी तोपखाना ने भी आग उगलना आरंभ कर दिया ।  एक नाले के पास पहुंचते ही क्रांतिकारी सेना और अंग्रेजी सेना में भिड़ंत हुई । बहुत संख्या में यहां गोरे  सैनिक मारे गए,  लेफ्टिनेंट नीव इस युद्ध में घायल हुआ,  और मारा गया।  इस समय अंग्रेजी सेना बड़े संकट में पड़ गई थी,  ऐसा लगता था,  कि एक भी गोरा सैनिक जीवित नहीं बचा सकेगा।  इसी समय लेफ्टिनेंट रोज एक दल के साथ उनकी सुरक्षा करने आ पहुँचा।  भीषण संघर्ष हुआ और कुछ समय बाद क्रांतिकारी सेना  भागने लगी । अंग्रेजी सेना ने आगे बढ़कर मुरार की छावनी पर अधिकार कर लिया । गोरे सैनिकों की पहली जीत थी।
 
 
14 जून–  मुरार की पराजय से क्रांतिकारियों में निराशा छा गई। राव साहब व अन्य की भी आनंदोत्सव की खुमारी उतर गई । राव साहब घोड़े पर सवार होकर विभिन्न मोर्चों का निरीक्षण करने निकल पड़े । चारों ओर के महत्वपूर्ण स्थानों पर सेना को भेजा जाने लगा। विभिन्न मार्गों पर तोपों के मोर्चे तैयार किए जाने लगे । अब क्रांतिकारी दल ने जोरदार तैयारी आरम्भ कर दी । रानी लक्ष्मीबाई , राव साहब से असंतुष्ट होकर निराशा और असहाय भाव से सब देख रही थी । वह अनुभव करने लगी थी कि क्रांतिकारी सेना में अंग्रेजी सेनाओं का सामना करने में सफल होने की बहुत कम संभावना है । इस से बहुत दुखी थी । तात्या टोपे उनसे पास सलाह करने लगे। 14 जून सन् 1858 को अंग्रेजों ने ग्वालियर पर हमला करने के लिए देशद्रोही शिंदे को लाए थे , और यह घोषणा की थी कि अंग्रेज केवल शिंदे के लिए लड़ेंगे । यह  घोषणा ग्वालियर की भोली प्रजा को धोखा देने के लिए थी , किंतु अब लोगों की आंखें खुल गई थी । क्रांतिकारियों को संगठित करने में कुशल तात्या अंग्रेजों का मुकाबला करने को तैयार था।   15 जून –तात्या से द्रवित हृदय से लक्ष्मीबाई बोली “आज तक कठोर परिश्रम पूर्वक अनेक प्रयत्न किए गए, पर वह सब  निष्फल होते दिखाई दे रहे हैं , उचित समय पर हमने जो सलाह दी थी वह राव साहब के दुराग्रहपूर्ण विजय रंग के कारण व्यर्थ की गई । अंग्रेजी सेना सिर पर आ पहुंची है । तब भी हमारी सेना का कोई प्रबंध नहीं किया गया है । ऐसी दशा में अंग्रेजी सेना से युद्ध कर विजय की आशा करना व्यर्थ ही है । यह सब होने पर भी हमें धीरज नहीं खोना चाहिए । चारों तरफ सुयोग्य सरदारों को भेज कर व्यवस्था करें , और शत्रुओं को आगे बढ़ने से रोके , मैं अपना कर्तव्य पूरा करने को तैयार हूं , आप अपना कर्तव्य पूरा करें ।” ग्वालियर का  पूर्वी मोर्चा संभालने का अनुरोध तात्या ने लक्ष्मीबाई से  किया जिसे लक्ष्मीबाई ने सहर्ष स्वीकार किया।

 15 जून…, को स्मिथ अपनी सेना के साथ आंतरिक पहुँचा यही मेजर और का दल उससे आ मिला यहां से रवाना होकर यह सेना 16 जून को कोटा की सराय पहुँची यह स्थान ग्वालियर से केवल 5 मील की दूरी पर था स्मिथ यहाँ तक आराम से पहुँच गया अब उसे क्रांतिकारी सेना के घुड़सवार और पैदल ऊँचे स्थान पर दिखाई देने लगे
 
16 जून— रानी ने अपना सैनिक गणवेश धारण किया,  अच्छे घोड़े पर सवार हुई ,,रत्न जडित खड़ग को म्यान से बाहर निकाला और सैनिकों को “आगे बढ़ो ” की आज्ञा दे दी । कोटा की सराय के आसपास जिसकी रक्षा का भार उन पर था मोर्चाबंदी की ।  

 17 जून– लक्ष्मीबाई ने  अत्यंत चतुरता से भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आसपास की पहाड़ियों पर तोप लगाई गई थी । जगह – जगह पर बंदूकधारी सैनिक नियुक्त किए गए थे । सबसे आगे रानी की स्वयं की वीर सेना,  उसके पीछे घोड़ों का रिसाला तथा अन्य पैदल सेना थी ।अंग्रेजो के बाडे में लक्ष्मीबाई ने आग लगवा दी , जिसमें कई अंग्रेज जलकर मर गए ।स्मिथ के सामने ऊंची नीची भूमि थी , उसके मार्ग में अनेक नाले पढ़ते थे , इस मार्ग से आगे बढ़ना कोई सरल काम नहीं था , पर इन कठिनाइयों की चिंता किए बिना उसने पहले ही आगमन करने का निश्चय किया । गोरी सेना के आगे बढ़ते ही रानी के   तोपखानों ने उन  पर गोले बरसाना आरंभ कर दिया । इससे वह आगे न बढ़ सकी। गोले दागना रुकते ही विलायती सैनिकों ने उन  पर आक्रमण कर दिया । भयंकर युद्ध होने लगा । अनेक गोरे सैनिक मारे गए । शीघ्र ही कर्नल रेंस ने एक नाला पार कर रानी की सेना के  पिछले भाग पर आक्रमण कर दिया , साथ ही सामने से भी हमला होता रहा , इस प्रकार रानी की सेना पर आगे और पीछे दोनों ओर से एक साथ आक्रमण होने लगा।  परिणाम स्वरुप रानी की सेना। को पीछे हटना पड़ा।  अब स्मिथ का हौसला बढ़ा, उसने  घुड़सवारों को आज्ञा दी की क्रांतिकारी सेना के बीच में घुसकर रास्ता बना कर वार  करें, अपनी सेना को पीछे हटता  देख रानी लक्ष्मी बाई संयम तलवार  संभालती सेना के आगे भाग में आ पहुंची , और शत्रु सेना पर टूट पड़ी ,  उनके साहस और जोश को  देखकर क्रांतिकारी सेना में जोश का संचार हुआ ,  वह भी अंग्रेजों से पुन: दृढ़ता  से सामना करने लगे । अब गोरी सेना में  घबराहट बढ़ने लगी,  स्मिथ ने और सैनिक दल मोर्चे पर भेजें और आक्रमण जारी रखा ।  जैसे ही अंग्रेजी सेना आगे बढ़ी वैसे ही रानी ने भी अपनी सेना को आगे बढ़कर इसका सामना करने की आज्ञा दी । इस घनघोर युद्ध में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए,  रानी और सेना के पराक्रम के सामने अंग्रेजी सेना टिक न सकी।   रानी के सैनिक अंग्रेजी सैनिकों की संख्या में बहुत कम थे,  फिर भी वह इतनी वीरता से लड़े की गोरी  सेना को पीछे हटना पड़ा।
 
18 जून आई—– जेष्ठ शुक्ल सप्तमी । शुक्रवार। सफेद और पीली सुबहने धरती पर आगमन किया। आकाश में स्वच्छ हवा ने अपना वर्चस्व जमाया । रानी ने गीता के आठवें अध्याय का   पाठ से निवृत हो चुकी थी। रानी ने अपने रसाले की लाल कुर्ती,  मर्दाना पोशाक पहनी , दोनों और एक- एक तलवार बांधी और पिस्तौले लटकाई , गले में मोती और हीरो की माला पहनी,  जिससे संग्राम के घमासान में उनके सिपाहियों को उन्हें पहचानने में असुविधा न हो । लोहे के कुले पर चंदेरी का जरदारी लाल साफा बांधा । लोहे के दस्ताने और भुजबंद पहने।  इतने में उनके पांचों सरदार आ गया। 
 मुंदर ने कहा —“कि सरकार घोड़ा लंगड़ाता है , कल की लड़ाई में या तो घायल हो गया है या ठोकर खा गया है।”
रानी ने आज्ञा दी –“कि दूसरा अच्छा और मजबूत घोड़ा ले आओ ।”
मुंंदर न्यास अस्तबल से एक तगड़ा और देखने में ऊँचा पूरा घोड़ा चुना ।
अस्तबल के प्रहरी ने बताया -“कि सरकार शिंदे का खास घोड़ा है ।”
“घोड़ा खास ही चाहिए , हमारी सरकार की सवारी में आएगआएग।” मुंदर बोलती हुई निकल गई। 
रानी ने अपने सरदारों को हिदायत दी— “कि कुंवर गुल मोहम्मद आज तुमको हम अपने जोहर का जौहर दिखाना है कल की लड़ाई का हाल देख कर आज जीत की आशा होती है परंतु यदि पश्चिम और उत्तर का मोर्चा उखड़ जाए तो उसको संभालना , और दक्षिण चल पढ़ने की तैयारी में रहना।” 
गुल मोहम्मद बोला –“हम सब पठान आज कर जाने की कसम खाते हैं , जो बचेंगे वह देखने जाएंगे ।
“आप भी देखने जाना सरकार । हमारा राहतगढ़ लेना । हमारे बहुत पठान वहा मारे गए हैं । उनकी यादगार  बनवाना ।” 
रानी ने कहा …”दक्षिण जाने की बात तो तब उठेगी,  जब यहाँ कुछ हाथ न रहे । फौजदार के विचार में जीतने की बात पहले उठनी ही चाहिए , परंतु दूसरी बात जो तय की जाए वह यह कि बच निकलने और फिर कहीं जमकर युद्ध करने की है ।”
 मुंदार बोली–” सरकार , जलपान कर ले ।” 
रानी ने कहा –“तुम लोग कुछ खा लो,  मैं केवल शरबत पिऊँगी।”
 मुंदर और रघुनाथ सिंह ने कुछ भी न खाकर,  जेबों में कलेवा डाला और पीठ पर पानी का बर्तन कस लिया।  झटपट शरबत बनाया। 
रघुनाथ सिंह ने कहा– “रानी साहिबा का साथ एक क्षण के लिए भी मत छोड़ना आज का युद्ध महत्वपूर्ण है।” 
” आप कहाँ रहेंगे”,  मुंदर ने पूछा।
 रघुनाथ ने स्पष्ट किया कि –” जहाँ सरकार की आज्ञा होगी, वैसे आप लोगों के समीप ही रहने की कोशिश करूंगा।” 

दूर से दुश्मन के बिगुल के शब्द की झाई कान में पड़ी । सुंदर ने  रघुनाथ सिंह को मस्तक नबाकर प्रणाम किया । दोनों शरबत लेकर रानी के पास पहुंचे । मुंदर ने  जूही को शरबत दिया । रघुनाथ सिंह ने रानी को शरबत दिया । तभी अंग्रेजों के बिगुल का साफ शब्द सुनाई दिया , तोप का  धडका हुआ , गोला सन्नाकर उपर से निकल गया , रानी दूसरा कटोरा शरबत नहीं पी सकी।  मुंदर घोड़ा ले आई , उसकी आंखें छलछला  रही थी।  अब की बार कई तोपों का धडका हुआ ।
 रानी मुस्काई और बोली– ” यह तात्या की तोपों का जवाब है। मुंदर  यह समय आंसुओं का नहीं है , जा तुरंत अपने घोड़े पर सवार हो ।” 
नया घोड़ा देख रानी बोली-“यह अस्तबल को प्यार करने वाला जानवर है, परंतु अब दूसरे को चुनने का समय ही नहीं है, इसी से काम चलाऊँगी।” 
रानी ने जूही के सर पर हाथ फेरते हुए कहा- – “जा जूही अपने तोपखाने पर, छका तो दे इन बेरियों को आज तू।” 

 अंग्रेजों के गोलो  की वर्षा हो उठी। रानी के सब सरदार और सवार  घोड़ों पर जम गए । जूही का तोपखाना आग उगलने लगा । रानी के घोड़े को एड लगाई , घोड़ा पहले जरा हिचका,  फिर तेज हो गया । रानी ने सोचा —कई दिनों का। बंधा होगा, थोड़ी देर में गर्म हो जाएगा , रानी ने घोड़ा दौड़ाया और  तलवार हाथ में लेकर शत्रु पर धावा बोल दिया । उत्तर और पश्चिम की दिशाओं में तात्या और राव साहब के मोर्चा थे , दक्षिण में बांदा के नवाब का , रानी ने पूर्व की ओर झपट लगाई।
 
 
अन्तिम पहर
 
गत दिवस की हार के कारण अंग्रेज जनरल सावधान व चिंतित हो गए थे । इन लोगों ने अपनी पैदल पलटनें  पूर्व और दक्षिण कि बिहड में छुपा ली और हुजर सवारों के साथ  कई दिशाओं में आक्रमण की योजना बनाई । तोपे पीठ पर रक्षा के लिए थी ही । हुजर सवारों ने  पहला हमला कडाबीन बंदूकों  से किया । बंदूकों का जवाब बंदूकों से दिया गया।  रानी ने आक्रमण पर आक्रमण करके हुजर सवारों को पीछे हटाया। दोनों ओरो से सवारों  की बेहिसाब दौड़ से धूल के बादल छा गए । रानी के रण कौशल के मारे अंग्रेज जनरल थार्रा  गए।

काफी समय हो गया परंतु अंग्रेजों को पेशवाई मोर्चा से निकल जाने की गुंजाइश न मिली । जूही की तोपों को अंग्रेज नायक ने उसकी  तोपों का मुँह बंद करना तय किया । क्योंकि जूही की तो तोप गजब ढा रही थी। हुजर सवार बढ़ते जाते , मरते जाते , लेकिन इस तरफ की तोपों का मुँह बंद करने का उन्होंने भी निश्चय कर लिया था।   
रानी ने जूही की सहायता के लिए कुमुक भेजी।  उसी समय पता चला की ग्वालियर की सेना अपने सरदारों के साथ अपने महाराजा शिंदे की शरण में चले गए हैं । रानी ने देखा कि अंग्रेज सेना पीछे से आक्रमण कर रही है,  क्योंकि पीछे से रक्षा करने वाले क्रांतिकारी सेना की पत्तियों को उन्होंने तोड़ दिया था। उस तरफ की  तोपें  ठंडी पड़ी थी।  मुख्य सेना तितर-बितर हो गई थी । अंग्रेजी सेना रानी को चारों तरफ से घेर कर आक्रमण कर रहे थे । रानी के पास मात पन्द्रह बीस सवार थे । इस विषय में एक अंग्रेज लिखता है —“तत्काल वह सुंदरी मैदान में उतरी और ह्मूरोज का डटकर सामना किया,  अपनी सेना के आगे रहकर पूरी मार काट  करवाती , यद्यपि उसकी साफों को चीरकर अंग्रेज जाते , फिर भी रानी हरावल में दिखाई पड़ती थी । अपनी टूटी पंक्तियों को फिर से संगठित कर अतुल शौर्य का परिचय देती थी । इसके बावजूद ह्मूरोज ने स्वयं अपने ऊंट दल के जोर पर आखिरी पंक्ति तोड़ ही दी , फिर  भी रानी अपने स्थान पर डटी रही ।  अपनी दोनों सखियों के साथ रानी ने घोड़े को ऐड लगाई और शत्रु की पत्तियों को चीरकर वह पहले सिरे  पर लड़ने वाले सैनिकों से मिलना चाहती थी , गोरे घुड़सवार शिकारी कुत्तों की तरह उनका पीछा कर रहे थे । किंतु रानी ने तलवार के बल पर अपना मार्ग बनाया और आगे बढ़ी ….. और उसी समय एक चीज सुनाई दी …बाई साहब …मैं मेरी ।  रानी ने घूम कर देखा , मुंदर को अंग्रेजों की गोली लगी थी,  वह घोड़े से गिर रही थी।  बिजली की गति से दौड़ कर रानी ने एक ही बार में उस फिरंगी के दो टुकड़े कर दिए।  मुंदर का प्रतिशोध ले लिया । अब वह आगे बढ़ी । मार्ग में एक नाला आया। बस  घोड़े की  एक छलाँग से रानी अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त । किन्तु नया घोड़ा वही अड गया। रानी का पूराना घोड़ा होता तो इतिहास कुछ और ही होता। जितना रानी उसे एड लगाती वह किसी सम्मोहन के तहत   गोल – गोल चक्कर लगाने लगा।  रानी ने घोड़े की पीठ पर हाथ मारा और कहा – ” अपने मालिक की तरह बेजान है ।” क्षणभर में ही गोरे सैनिक रानी के करीब आ गए,  और इस घिरी हुई अवस्था में भी एक तलवार ने अनेको तलवारों का सामना किया , किंतु एक तलवार एक ही है। उन अग्रेजों में से एक ने पीछे से रानी के सर पर वार किया । सिर का दाहिना हिस्सा और दाई आँख निकलकर बाहर लटकने लगी,  उसी समय दूसरा वार छाती पर हुआ , दुर्भाग्य से एक गोली रानी की जांघ पर आकर लगी , अपनी इस अवस्था के बावजूद अपने ऊपर वार करने वाले अँग्रेज के टुकडे कर डाले रानी के।  अब रानी की अंतिम सांसे चल रही थी । वह भूमि पर गिर पड़ी। पठान सरदार गुलाम मोहम्मद जो अब भी रानी के साथ था, प्रतिशोध से पागल होकर गोरे सवारों  पर झपटा।  उस का रौद्र रूप देखकर। सवार भाग खड़े हुए।  रानी का विश्वास पात्र सरदार रामचंद्र राव देशमुख पास ही था,  उसने रानी को उठाया और पास की एक झोपड़ी में उन्हें ले गया । यह झोपड़ी बाबा गंगादास की थी । जिसमें कई साधु  गंगादास की शाला में रहते थे । इस युद्ध में 745 साधुओं ने अंग्रेजी सेना के साथ दो दो हाथ किए और खेत रह गए।  बाबा गंगादास ने रानी को ठंडा पानी पिलाया और रक्त से लथपथ उस देवी के शरीर को बिछौने पर लिटा दिया।  उस महान आत्मा ने शरीर का साथ छोड़ दिया । अंतिम सांस के समय  रानी की अंतिम इच्छा के अनुसार रामचंद्र राव देशमुख ने शत्रु की आंख बचाकर घास का ढेर लगा दिया और उसी चिता पर लिटाकर पराधीनता के अपवित्र  स्पर्श के भय से अग्नि संस्कार कर डाला । 18 जून चारों और गोलियां बरस रही थी।  तलवारों की खट खटाहट से वातावरण गूंज रहा था। किन्तु रानी की मृत्यु के साथ ही महाशक्ति और तेजस्वीता राव साहब और तात्या तोपे अब अपने को निर्बल समझने लगे। रानी की मृत्यु से अंग्रेजों का प्रतिकार करने का संकल्प कमजोर हो गया । परिणाम स्वरूप जीयाजी राव ने अंग्रेजों के बल पर पुन: ग्वालियर पर अधिकार कर लिया।  क्रांति की  अग्रदूत रानी की मृत्यु से क्रान्ति की प्रखरता नष्ट हो गई।
 
 
 
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संदर्भ ग्रंथ  

 1. इंडियन म्यूटिनी खंड 1 2 3 …लेखक …मैलसन…. प्रकाशन विभाग भारत सरकार नई दिल्ली। 

  1. आर्य प्रकृति …लेखक…. रजनीकांत गुप्त (बंगाल)
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  2. असली पत्र।        लेखक…..कॉलिस  नैरेटिन।
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  4. झांसी की रानी का चरित्र ……लेखक…..पारसनी ।
  5. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई …..लेखक…..विवेक मोहन।8.  आंखों देखा गदर ……लेखक ….अमृतलाल नागर ….प्रकाशक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया नई दिल्ली ।
    9.  झांसी की रानी लक्ष्मीबाई …..लेखक….कल्पना गांगुली। 10. मध्यप्रदेश गजटियर …….मध्यप्रदेश शासन ।
    11.  उत्तर प्रदेश गजट …..उत्तर प्रदेश शासन ।रानी लक्ष्मीबाई …….लेखक….वृंदावन लाल वर्मा।
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    13.  मध्य प्रदेश में स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास गवर्नमेंट रीजनल प्रेस ग्वालियर भारत का वृहत इतिहास…… गवर्नमेंट रीजनल प्रेस ग्वालियर।
  7. भारत का वृहद इतिहास…. तृतीय भाग (आधुनिक भारत) मजूमदार आदि मैकमिलन एंड कंपनी ।
  8. आधुनिक भारत ……..लेखक……एल पी शर्मा।
  9. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास…..लेखक…. रामगोपाल ।पुस्तक केंद्र लखनऊ।
    17.  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास , प्रथम खंड…..लेखक…. ताराचंद ….प्रकाशन विभाग भारत सरकार नई दिल्ली ।
  10. भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास……लेखक…..मंन्मथनाथ गुप्त।.. आत्माराम एंड संस कश्मीरी गेट दिल्ली।

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