कर्णावती एक अनोखी रानी…शत्रुओं की नाक कटवाने वाली
अपनी सूझबूझ और अपनी कार्यशैली से राजवंशों के शासनकाल में पहचाने जाने वाली रानी कर्णावती अपने युद्ध कौशल और शासन कौशल के लिए महान नारी शक्ति के रूप में उभरकर गढ़वाल शासन की सम्राज्ञी कहलाती हैं।
इनका इतिहास पढ़ते हैं तो सीना गर्व से फूल जाता है कि महिला होकर इतने बड़े-बड़े निर्णय लेना और इतने बड़े साम्राज्य को संभालना कितना मुश्किल रहा होगा, लेकिन अपना रास्ता स्थापित करना और प्रजा के ऊपर शासन करना यह तो कुशलता की निशानी है। इतिहास में जब -जब भी किसी भी राज्य पर संकट या ऐसी परिस्थितियाँ आई है जहाँ की रानियों ने शासन किया है। उन्होंने अपने कौशल से राज्य को तो सम्भाला ही साथ ही उन्होंने प्रजा के बीच अपनी छवि भी अंकित की। ऐसी महान आत्माएँ पृथ्वी पर जन कल्याण के लिए और संदेश देने के लिए ही आती है।
भारत की विदुषि वीरांगनाओं में एक रानी कर्णवती का नाम आता हैं जो उत्तराखंड के गढवाल की महारानी थीं। उनके बारे में कहाँ जाता है कि वह अपनी आज्ञा का उल्लंघन न करने वाले व्यक्ति की नाक कटवा देती थीं । इतिहास में जिनका नाम..नाक काटने वाली रानी.. के नाम से उल्लेख मिलता है। इसको पढ़ते ही समझ आता है कि बहुत ही बर्बर और निरंकुश शासिका रही होंगी, लेकिन अपने राज्य को चलाने के लिए कई बार कठोर निर्णय के साथ प्रजा और राज्य की भलाई को सर्वोपरि रखा जाता है और सफलतापूर्वक शासन कर जाना उस राज्य की शासिका के लिए गौरव की बात थी।
उस समय हिंदुस्तान पर मुगलों ने अपना विस्तार करना शुरू कर दिया था। हर उस राज्य पर आक्रमण करने का प्रयास करते जिस राज्य के राजा का निधन हो गया हो और उसका उत्तराधिकारी अगर उसका पुत्र नाबालिग हो तो वह कोशिश करते थे कि उस राज्य का संचालन वह खुद करें, लेकिन इतिहास में इस तरह के राज्यों में हमेशा बहादुर रानियों ने अपने राज्य को और अपने उत्तराधिकारीओं को बड़ी कुशलता से बचाया भी और उन्हें राज्य सौंपा भी। इतिहास में कई रानियाँ वीरगति को भी प्राप्त हुई, लेकिन उन्होंने अपने राज्य को आसानी से नहीं छोड़ा।
रानी कर्णावती का विवाह गढवाल के राजकुमार महीपति शाह के साथ हुआ था. बहुत ही कुशल और महा प्रतापी राजा थे। उन्होंने अपने शासनकाल में अनेक युद्ध किए और विजय प्राप्त की। उनकी युद्ध कौशल की रणनीतियाँ बहुत ही सदी हुई और सटीक होती थी, जिसमें वे अपनी विजय को सुनिश्चित करते थे। वह अपनी पराक्रम गाथाओं से बाद में “महाराजा गर्वभंजन महीपति शाह” के नाम से प्रसिध्द हुए । लेकिन जुलाई. 1631 में अल्मोडा के युध्द में महीपति शाह के मारे जाने के बाद उनके पुत्र पृथ्वीपति शाह का सात साल की उम्र में राजतिलक कर दिया गया लेकिन उसके वयस्क होने तक पूरा राजकाज रानी कर्णावती ने संभाला।
पति के साथ सती होने की प्रथा को ठुकराते हुए उन्होंने अपने पुत्र को पालने का व राज्य भार को संभालने का निर्णय लिया, और उन्होंने अपना राज्य कार्य शुरू कर दिया।
रानी कर्णावती ने निर्माण कार्यो के अलावा गढवाली सेना को भी पुनर्गठित एवं संगठित किया। मुख्य सेनाध्यक्ष माधोसिंह भण्डारी के नेतृत्व में सेना को सुव्यवस्थित करने में उन्हें अच्छी सफलता मिली।
महाराजा महीपति शाह के शासनकाल में उनकी सेना में दोस्तबेग मुगल नाम का एक मुसलमान सेनानायक नियुक्त था , जो अपनी कुशाग्र बुद्धि के लिए जाना जाता था। राजमाता कर्णावती ने इसी सेनानायक के परामर्श से राज्य को संगठित करने और अपराधियों मैं भय कायम रखने के लिए उन्होंने विद्रोहियों तथा आतताईयों को कठोर दण्ड देना शुरु किया तथा अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वालों की नाक कटवा देने की प्रथा डाली। इसी कारण वह नाक काटने वाली रानी के नाम से जानी गयी।
इतिहासकार कैप्टन शूरवीर सिंह पवार राजमाता कर्णावती के विषय में लिखते हैं…”वह अपनी विलक्षण बुध्दि एवं गौरवमय व्यक्तित्व के लिए प्रसिध्द थीं। अपने पुत्र के नाबालिग होने के कारण वह कर्तव्यवश जन्मभूमि गढवाल के हित के लिए अपने पति की मृत्यु पर सती नहीं हुईं और बडे धैर्य और साहस के साथ उन्होंने पृथ्वीपति शाह के संरक्षक के रूप में राज्यभार संभाला। रानी कर्णावती ने राजकाज संभालने के बाद अपनी देखरेख में शीघ्र ही शासन व्यवस्था को सुदृढ किया।”
राज्य शासन संभालते हुए रानी कर्णावती ने राज्य की जनता के लिए बहुत से जन कल्याण के कार्य किए। जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें नैसर्गिक आवश्यकताएंँ पूरी करने के साधन जुटाए।
गढवाल के प्राचीन ग्रंथों और लोक गीतों में रानी कर्णावती की प्रशस्ति में उनके द्वारा निर्मित भवन, मंदिरों, बावडियों. तालाबों , कुओं आदि का वर्णन आता है।
यह बहुत ही अद्भुत और अनोखी भेंटवार्ता थी जिसे ऐतिहासिक संयोग ही कहेंगे, सन् 1634 में बदरीनाथ धाम की यात्रा के दौरान छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास की गढवाल के श्रीनगर में सिख गुरु हरगोविन्द सिंह से भेंट हुई। इन दो महापुरषों की यह भेंट महासंगम थी और साथ ही बडी महत्वपूर्ण भी क्योंकि दोनों का एक ही उद्देश्य था , मुगलों के बर्बर शासन से मुक्ति प्राप्त करके हिन्दू धर्म व राज्य की रक्षा करना।
इतिहासकार कैप्टन पंवार लिखते हैं,.. देवदूत के रप समर्थ गुरु स्वामी रामदास 1634 में श्रीनगर गढवाल पधारे और रानी कर्णावती को उनसे भेंट करने का सौभाग्य प्राप्त किया। समर्थ गुरु रामदास ने रानी कर्णावती से पूछा …”क्या पतित पावनी गंगा की सप्त धाराओं से सिंचित भू , खंड में यह शक्ति है कि वैदिक धर्म एवं राष्ट्र की मार्यादा की रक्षा के लिये मुगल शक्ति से लोहा ले सके”।
इस पर रानी कर्णावती ने विनम्र निवेदन किया..” पूज्य गुरुदेव , इस पुनीत कर्तव्य के लिये हम गढवाली सदैव कमर कसे हुए उपस्थित हैं।”
रानी कर्णावती के शासन के समय दिल्ली के तख्त पर मुगल सम्राट शाहजहाँ आसीन था। महाराजा महीपति शाह के शासनकाल में मुगल सेना गढवाल विजय के बारे में कभी सोचती भी नहीं थी लेकिन जब वह युध्द में मारे गए और रानी कर्णावती ने गढवाल का शासन सम्भाला तब मुगल शासकों ने सोचा कि रानी कर्णावती से शासन छीनना आसान होगा।
तैयारियाँ शुरू कर दी गई लेकिन तभी शाहजहाँ को समर्थ गुरु रामदास और गुरु हरगोविन्द सिंह के श्रीनगर पहुंचने और रानी कर्णावती से सलाह मशविरा करने की खबर लग गयी थी।
नजाबत खां नाम के एक मुगल सरदार को गढवाल पर हमले की जिम्मेदारी सौंपी गयी और वह 1635 में एक विशाल सेना लेकर आक्रमण के लिये आया। उसके साथ पैदल सैनिकों के अलावा घुडसवार सैनिक भी थे । सिरभौर के राजा मान्धाता प्रकाश ने उसकी सैनिक सहायता भी कर दी। उस समय भी कुछ गढ़वाली राजा आतताईयों का साथ देने के लिए मजबूर हुआ करते थे।
इसलिये शुरुआती प्रयास में ही मुगल सेना ने दूनघाटी के शेरगढ, ननारगढ , सतूरगढ आदि केन्द्रों पर अधिकार करने के साथ ही कालसी तथा बैरागढ को भी गढवाली सेनाओं से छीन लिया और उन्हें सिरभौर के राजा को सौंपकर वह गढवाल के मुख्य भू , भाग पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगी।
रानी कर्णावती ने मुगल आक्रमण की खबर पाते ही राजधानी श्रीनगर की ओर प्रस्थान किया और अपने सलाहकारों से परामर्श किया। तब तक नजाबत खां के नेतृत्व में मुगल सेना दून ने घाटी को रौंदती हुए और वहाँ के कई किलों पर अधिकार करने के बाद हरिद्वार से चण्डीघाट पर नदी को पार करके उसके पूर्वी किनारों से आगे बढती हुए और सलाण के इलाके , नीला , मोहरी कुमाऊं , लक्ष्मण झूला और मोहन नट्टी के मार्ग से श्रीनगर की ओर बढने की तैयारियाँ शुरु करने लगी थी।
यह वह समय था जिस समय रानी कर्णावती को अपनी सूझबूझ का परिचय देना था, और विजय हासिल करने के लिए रणनीति बनानी थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में रानी कर्णावती ने सीधा मुकाबला करने के बजाय कूटनीति से काम लेना उचित समझा।
उन्होंने नजाबत खां के पास संदेश भेजा कि.. वह बादशाह की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार है और यदि उन्हें दो हफ्ते की मोहलत दी जाये तो वह उन्हें दस लाख रुपये भेंट स्वरुप दे सकती हैं।
नजाबत खां ने दो सप्ताह की अवधि मंजूर कर ली और मुगल सेना को आगे बढने से रोक दिया। रानी रूपये भेजने में बहाने और विलंब करने लगीं। मोहलत मांगती रही साथ ही विश्वास दिलाती रही। बार -बार धमकियाँ देने और प्रयत्न करने पर डेढ माह बीत जाने के बाद नजाबत खां को बडी मुश्किल से रानी कर्णावती ने केवल एक लाख रूपये ही भेजे।
नजाबत खां अनुभवहीन सरदार था क्योंकि अभी तक लगातार विजय प्राप्त करने के गर्व में मतान्ध था, ऐसे संकट से बचने की कोई तरकीब नहीं थी उसके पास, और वह रानी कर्णावती के झांसे में आसानी से फस गया था।
डेढ महीने तक रूपयों के इंतजार में शाही सेना की रसद समाप्त हो गयी। नजदीक कोई गाँव या नगर न होने से मुगल सेना को खाद्य सामग्री मिलने की कोई संभावना भी नहीं थी। । खान पान का सामान इतना घट गया कि मुगल सैनिक भूखों मरने लगे। गढवालियों ने सब मार्ग बंद कर दिये , इसलिये जो भी मुगल सैनिक दूर स्थित ग्राम, नगरों में रसद लाने के लिये जाता था उसे वह लूट लेते थे। सेना में भीषण ज्वर फैल गया जिससे सैनिक बडी़ संख्या में मरने लगे। ज्वर और भूख से व्याकुल शत्रु सेना को गढवाली सैनिकों ने घेर लिया।
युध्द में शाही सेना के अनेक सैनिक मारे गये और लगभग सभी के घोडे और युध्द सामग्री छीन ली गयी। नजाबत खां अब सजग हुआ और अपने प्राण तथा नाक की रक्षा के लिये जंगलों के रास्ते से मैदान की ओर भागा ।
मुगल सैनिकों के हथियार छीन लिए गए थे और आखिर में उनके बचे सैनिकों की एक-एक कर नाक काट दी गई थी ।
उसके अधिकतर सैनिक नाक कटवा रानी के चंगुल से बचने के लिये पैदल ही भाग गये।
इस तरह मोहन चट्टी में मुगल सेना को नेस्तनाबूद कर देने के बाद रानी कर्णावती ने जल्द ही पूरी दून घाटी को भी पुन: गढवाल राज्य के अधिकार क्षेत्र में ले लिया। गढवाल की उस जीवट रानी ने गढवाल राज्य की विजय पताका फिर शान के साथ फहरा दी और समर्थ गुरु रामदास को जो वचन दिया था, उसे पूरा करके दिखा दिया।
रानी कर्णावती के गढवाल राज्य की संरक्षिका के रूप में 1640 तक शासन करते रहने के प्रमाण मिलते हैं। युवराज पृथ्वीपति शाह के बालिग होने पर उन्होंने 1642 में उन्हें शासनाधिकार सौंप दिया , और अपना बाकी जीवन एक वरिष्ठ परामर्शदात्री के रूप में बिताया । एक भरपूर सफल जीवन जीकर वह इस पृथ्वी से विदा हुई ।
शाहजहाँ की कार्यकाल पर बादशाहनामा या पादशाहनामा लिखने वाले अब्दुल हमीद लाहौरी ने भी गढ़वाल की इस रानी का जिक्र किया है। शम्सुद्दौला खान ने ” माहिर कल उमरा” में गढ़वाल की रानी कर्णावती का उल्लेख किया है।
इटली के लेखक निकोलाओ मानुची जब सत्रहवीं सदी में भारत आए थे, तब उन्होंने शाहजहाँ के पुत्र औरंगजेब के समय मुगल दरबार में इतिहास लेखन का काम किया था! उन्होंने अपनी किताब “स्टोरिया डो मोगोर,” यानी “मुगल इंडिया,” में गढ़वाल की एक रानी के बारे में बताया है, जिसने मुगल सैनिकों की नाक काटी थी।
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