चलते रहे

घर में ऊँची-ऊँची
उड़ाने भरकर
पंख लहुलुहान
कर लिए हैं
आशाओं के अनगिनत
हौसलों के घौंसले
तमाम जगह बिखरे पड़े
उन्हें यूं रौंदा जाना देखकर
दर्द से भर गये समंदर
अब तो न ही
अपना आसमान
चुनने का शौक रहा
न ही अपने होने का
उत्साह कायम है
जीवन का मकसद
गुजर जाये बची जिंदगी
यूं ही जिम्मेदारी को
निभाते-निभाते
मकसद अब
यही बचा है
क्योंकि चलते रहने
का नाम ही
जिंदगी जो है।

©A

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