ग़ज़ल
रात भर रो-रो के सपने बो गई,
सुबहदम जाने मैं कैसे सो गई।
उठके जब पलकें लगी गिरने यूंही,
बर्फ से अरमान जो थे धो गई।
याद आती जा रही है एक-इक,
चूक दिल से ही कहीं तो हो गई।
कुछ लगी थी धड़कने बढ़ने मेरी,
शब्द के मोती टांकती मैं गई।
दौड़ दुनिया की, हैं रिश्ते प्यार के,
बाँध बंधन सांझ होती सुरमई।
कल्पना तेरे बिना जीने की क्या,
एक खालीपन ही धड़कन बो गई।
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