दर्द के पर कतरे

पीली सैल्फ चेक की साड़ी, चौड़ा प्रिंटेड बॉर्डर पर कंट्रास्ट आँचल की सादगी देखते ही बनती है, वैदेही ने माणिक मोती और पन्ने से बना लंबा गुलुबंद, मांग का टीका और कानों में भारी झुमके पहन रखे हैं, जो बरबस ही सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं।

आज वैदेही ने सजने, सवरने में पर्याप्त समय लगाया है, दर्पण के सामने खड़ी होकर वह सभी कोणों से अपने को जांच परख रही है कि कहीं कोई कमी तो नहीं।

आज उसकी बेटी का पहला जन्मदिन है, राहुल इस शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में गिने जाते हैं, गीतांजलि के जन्म पर वह मायके में थी, इस कारण उसका उत्सव नहीं मना पाये, इसलिए पहला जन्मदिन बड़ी धूम-धाम से प्रतिष्ठा के अनुसार मनाना निश्चित हुआ।

वैदेही का मन तो अतुल के इसी शहर में नौकरी पर आने और चार दिन पहले मिली, वैदेही ने उसे आमंत्रित कर लिया, अतुल से फिर भेंट होगी का रोमांच हो रहा है, दिल उत्साह से लबालब भर गया है, वह इन चार दिनों से पुरानी यादों में ही तो विचार रही है, आज इस कदर बनना सवरना अतुल की उपस्थिति से उपजे उत्साह का नतीजा है।

लगभग तीन वर्ष पहले वैदेही का विवाह उसकी सुंदरता पर फिदा होकर रणजीत के साथ सास- ससुर की सहमति से कर दिया गया, बड़े घरों के रिवाज भी अलग होते हैं, और सबसे खास होता है अहम।

वैदेही को देखते ही अपना बनाने का सोच लिया रणजीत ने, फिर क्या था, बिना दहेज के शादी को तैयार कर लिया था वैदेही के माता-पिता को।

उस समय अतुल नौकरी की तलाश में था, निश्चित काम धंधा न होने से अतुल कह तो कुछ नहीं पाया, किंतु ऐसा कुछ अचानक घटा की वैदेही, अतुल देखते रह गए और वैदेही विदा हो गई ।

उसका मन कभी यहाँ नहीं लगा, उसे प्यार करता रणजीत तो लगता, पैसे की बदौलत यह मुझे खरीद लाया है। गीतांजलि के आने के बाद से मन उसी में लगने लगा, बहुत सा समय उसे सम्हालने, सहेजने में ही निकल जाता, अपने को वैदेही ने गीतांजलि के साथ व्यस्त कर लिया है।

चार दिन पहले तक जन्मदिन मनाने में उसे कोई उत्साह नहीं था, अतुल से मिलने व उसके आने की सहमति ने उसके सूखे पड़े स्रोत आज लबालब भर कर बह निकले, वह पानी-पानी हो कर जलतर हो गई, जाने कब से आईने के सामने खड़े होकर वह अपने से ही बातें किए जा रही है।

“मेम साहब, बाहर साहब बुला रहे हैं।”.. सेवली ने कहा तो उसकी तंद्रा टूटी।

“अच्छा अभी आती हूँ।”.. कहकर एक भरपूर नजर पुनः दर्पण पर डाली और कमरे के बाहर आ गई।

राहुल मेहमानों को यथास्थान बैठा रहा हैं, वैदेही को दरवाजे से निकलता देखा तो ठगा सा रह गया, आज तो गजब ढा दिया वैदेही ने, इतना प्रसन्न चेहरा तो आज के पहले कभी देखा नहीं, रणजीत को संतोष हुआ कि वैदेही खुश रहना सीख गई है।

“वैदेही, आज तुम बहुत प्यारी लग रही हो।”..नजदीक आते हुए रणजीत बोला।

हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए वैदेही महिलाओं की तरफ बढ़ गई, उसकी नजर पूरे पंडाल में घूम गई, कहीं अतुल नहीं दिखा, द्वार पर नजर बार-बार उठ जाती, समय बीता जा रहा है पर कहीं अतुल का अता-पता नहीं है, इसलिए तो वादा ले लिया था आएगा जरूर, पर इतनी देर क्यों लगा दी, कहाँ रह गया, वैदेही स्वयं ही सवाल जवाब के घेरे में घूमती रही।

मेहमानों के जाने का समय हुआ, तब अतुल का आना हुआ, वैदेही तुरंत उसके पास पहुँची, इतनी देर से दबा इंतजार तड़फ गया, आँखें तरल हो गई।

“कहाँ रह गये थे, कुछ हुआ तो नहीं।”.. बेचैन होकर पूछा वैदेही ने।

अतुल उसे निहारता रहा, एक बेबस सी फीकी मुस्कान के साथ, कितनी सुंदर लग रही है वैदेही, इतनी खूबसूरत कि इसको मैं तमाम उम्र अपने छोटे से घर में कैसे रख पाता, कहीं अन्याय नहीं होता यह, तभी तो कहते हैं कि जो जब होता है ठीक ही होता है।”… वह विचारों में उलझ गया, उसे यूं गुमसुम देखकर वैदेही तड़प उठी।

“तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं।”…

“तुम्हारी, इस तरह पूछने की आदत गई नहीं।”.. अतुल बोला।

“मैंने, कुछ पूछा है।”…शब्द दबाकर कहा।

“कुछ नहीं हुआ, यहाँ आने के लिए तरह-तरह के तर्कों में उलझ गया था, इसलिए देर हो गई।”…अतुल ने कहा।

“ओह!”…

वैदेही ने इस तरह कहाँ, मानो उसके तपते कलेजे को ठंडा पानी पड़ गया हो।

“चलो, तुम्हें रणजीत से मिलवा दूँ।”… वैदेही चलने को उद्धत हुई।

“वैदेही, मैं तुमसे मिलकर बस, अब वापस जाना चाहता हूँ।”..

“क्यों ? “…

“समझा करो, बिना वजह तुम्हारे हंसते-खेलते परिवार पर शक का बीज नहीं बोना चाहता।”…समझाने की गरज से अतुल बोला।

“चलो भी, इसमें हम दोनों की कोई गलती है क्या, जोर जबरदस्ती करके तो रणजीत ने शादी करवाई है।”…वैदैही थोड़ी देर सोचती रही, फिर उसकी बांह थाम कर बोली।

“वैदेही, तुम तो समझदार हो, फिर क्यों रणजीत की नजरों में मुझे छोटा बनाना चाहती हो, फिर समाज की नजरों में तुम ही उनके घर की रौनक हो, जहाँ तुम्हारा भी कोई कर्तव्य है, देखो.. यदि हमारा मिलन होना होता तो यह सब थोड़े ही घटता, फिर हम दोनों ने अच्छे दोस्त बने रहने का वादा किया है।”… समझाने के अंदाज में अतुल बोला।

उसे मालूम है वैदेही सच बात फट से कह देती है, उसे अपनी चाहत के लिए दुराव, छिपाव पसंद नहीं है, उसकी साफगोई कभी-कभी उलझन में डाल देती है।

“तुम्हें तो आदर्श मां बनना है, पति का मान बरकरार रखना है,और इन सब के साथ खुश रहना है, क्या तुम यह नहीं कर पाओगी, इतनी कमजोर तो नहीं हो।”…उसे चुप देखकर अतुल पुनः समझाने लगा।

“फिर मुझे उलझा दिया न, बड़ी-बड़ी बातों में।”.. वैदेही बोली।

“अरे क्यों उलझ रहे हैं आप लोग, जब यह कह रही हैं तो जनाब मिल लीजिए हमसे, हम भी आपसे मिलकर खुश होंगे।”… जाने कब से रणजीत नजदीक आकर खड़े हो गए थे, शायद पूरी बातें भी सुन लीं।

“यह मेरे दोस्त हैं अतुल, इसी शहर में सेल टैक्स ऑफिसर बन कर आए हैं, और अतुल यह मेरे पति रणजीत।”… वैदेही ने परिचय कराया।

दोनों मिलकर खुशी हुए, रणजीत ने अतुल को जाने नहीं दिया, सभी चले गए तो अतुल ने भी इजाजत मांगी।

“आप, अकेले हमारी मैडम की तरफ से मेहमान है, बताइए आप बीच में ही छोड़ कर जा रहे थे, बैठिए थोड़ी गपशप हो जाये।”…

“नहीं रणजीत साहब, रात बहुत हो चुकी है, अब मुझे चलना चाहिए, वैदेही, चलता हूँ फिर आऊँगा।”… कहता हुआ लंबे-लंबे डग भरता अतुल बाहर निकल गया,बिना स्विकृति की राह देखे।

बहुत सा समय सरक गया, यूँ ही तीनों मिलते रहे, रणजीत, अतुल को खुद ले आता, इतने दिनों में वह यह जान गया था कि बैदेही, अपनी इच्छाशक्ति की पक्की है, किसी से दोस्ती है तो बस दोस्ती, उसे गलत- सलत रिश्तों का जामा पहनाना उसे कतई पसंद नहीं, दुराव-छिपाव रिश्तों में नहीं करती, इसलिए शक की गुंजाइश भी नहीं देती।

उसका हमेशा से मानना रहता है की अपने को जान लो, दुनिया अपने आप, आपको समझ लेगी, रणजीत के लिए भी वह समर्पित रहती है, जब विचारों की टक्कर होती है तो कोई न कोई सुमझा देता है, तीनों के विचार खुलते जा रहे हैं, वे रिश्तों से ऊपर उठ गए, अतुल अब रणजीत का भी अच्छा दोस्त बन गया है।

समय का चक्र चलता रहा। एक दिन पता चला, रणजीत को ब्रेन ट्यूमर है, रणजीत ने अतुल से चर्चा की और कहा, वैदेही को यह बात नहीं बताई जाए।

“वैदेही, को बाद में पता लगने पर वह हमें माफ नहीं कर सकेगी, फिर उसमें इतनी हिम्मत है कि वह हर परिस्थितियों से जूझ सके।”..अतुल इस बात के लिए तैयार नहीं है।

एक दिन तीनों राहुल के घर के लाॅन में बैठे हैं, थोड़ी देर इधर-उधर की चर्चा होती रही ।

“यदि मुझे कोई बीमारी होती है, तो मैं सबसे पहले क्या काम करूं ?”…अतुल ने कहा

“मतलब।”.. रणजीत ने तपाक से पूछा।

“मुझे पता चले कि मुझे कोई रोग है, और जिंदगी का समय निश्चित हो तो मुझे क्या करना चाहिए।”.. अतुल फिर बोला।

“फालतू का वहम मत पालो।”.. वैदेही रुखाई से बोली।

“सुनो वैदेही, यह एक चर्चा का विषय है, और दुनिया में ऐसा होता भी है।”… अतुल ने बात आगे बढ़े इस गरज से बोला।

“हाँ,… हाँ क्यों नहीं, होता तो है, यह तो रोगी की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।”… रणजीत ने बात आगे बढ़ाई।

“किंतु, रोग के बारे में जानकर, रोगी हताश हो जाता है।”.. अतुल बोला।

“क्यों हताश हो, क्या यह रोग उसने पैदा किया है, यह तो उसके परिवार वालों का काम है कि उसमें इतनी हिम्मत पैदा करे कि जिंदगी आसान हो जाए।”.. वैदेही ने चर्चा का सार्थक पारस रखा।

“लेकिन वैदेही, परिवार वाले भी तो रोग सुनकर टूट जाते हैं, वह अपने को ही नहीं संभाल पाते, तो फिर रोगी को क्या हिम्मत देंगे।”.. अतुल ने तर्क दिया।

“हां, होता तो ऐसा ही है, किंतु समझदार वही है, जो परिस्थितियों से जूझने का साहस रखता हो।”…वैदेही ने दार्शनिक की तरह कहा।

“तुम क्या सोचते हो,क्या कहते हो रणजीत।”… अतुल ने कुरेदा।

“रोगी को अपने हाल पर छोड़ दो, जल्दी छुटकारा पा जायेगा।”… बात को समेटे हुए रणजीत बोला।

“रणजीत, यह क्या कह रहे हो तुम, इस तरह सोचते हो, कल को मुझे कुछ हो गया तो तुम यही करोगे।”… वैदेही बिफर पड़ी।

“नहीं, नहीं.. मेरा मतलब रोगी की तकलीफ कम करने से था।”…एकदम से सम्हल गया रणजीत।

“क्या बात कर रहे हो रणजीत, इस तरह तो उसकी तकलीफ बढ़ जायेगी, अगर पता चल जाता है कि जिंदगी निश्चित है, तो प्रत्येक पल का उपयोग करना चाहिए, उसके साथ इतना जी लो की तमाम उम्र का साथ लगे, जाना तो सभी को है, किंतु तरीके अलग-अलग हैं।”.. वैदेही ने फिर दृढ़ता से अपनी बात रखी।

“मान लो, वैदेही,… मैं मान लो कह रहा हूँ, मुझे ब्रेन ट्यूमर हो जाये और ऑपरेशन करना पड़े, सभी जानते हैं कि इस तरह के रोगी का ऑपरेशन मुश्किल से सफल होता हैं, तो क्या तुम यह रिस्क लोगी ?”… जिज्ञासा से रणजीत ने वैदेही की ओर देखा।

“कैसी बातें कर रहे हो, उम्मीद तो है ना, चाहे वह एक ही प्रतिशत क्यों न हो, कोशिश तो की जा सकती है, और आज तुम दोनों कौन सा विषय लेकर बैठ गए।”…वैदेही उकता कर बोली।

“यह सच है वैदेही, यह रोग मुझे ही है।”… रणजीत सपाट लहजे मैं बोल गया।

वैदेही थोड़ी देर सोचती रही, तभी यह दोनों मेरे विचार जानना चाह रहे थे, मैं क्यों कमजोर पडूं।

“रणजीत, आज के युग में कुछ भी असंभव है क्या? यह रोग मुझे होता तो क्या करते तुम, मुख्य बात है हमारी शक्ति, तुम कमजोर तो नहीं कि टूट जाओ, फिर जिसके पास इतना अच्छा दोस्त हो, पत्नी हो, बेटी हो क्या उसमें शक्ति की कमी हो सकती है, तुम्हें तो इस जंग को जीतना ही है, जिसमें हम तुम्हारे साथ हैं, क्यों अतुल ठीक है ना।”… वैदेही ने जोश के साथ कहा।

“तुमने बिल्कुल ठीक कहा वैदेही, रणजीत को अगले माह हम विदेश ले जा रहे हैं, डॉक्टरों से बात हो गई है, बस रणजीत तैयार हो जाये।”… अतुल बोला।

“अच्छा तो सारी तैयारियाँ हो गई।”… वैदेही अश्चर्य से बोली।

“हां वैदेही, तुम लोगों के साथ रहते क्या मैं कमजोर पड़ सकता हूँ, कभी नहीं, मुझे जीना है, इच्छाशक्ति तो वैदेही के विचार जानकर और भी तीव्र हो गई है।”… रणजीत मुस्कुरा दिया।

“यह रही आपकी जिम्मेदारी, पूरी करो, मुझसे सहयोग मिलेगा, किंतु तुम्हारी जिम्मेदारी मैं नहीं लूँगी।”…वैदेही गीतांजलि को राहुल की गोद में बैठते हुए बोली।

“ठीक है, ठीक है,..हम निभा लेंगे अपनी जिम्मेदारी, क्यों बेटे ? मम्मी की हमें जरूरत नहीं है ना।”… रणजीत नन्ही परी के गाल सहलाते हुए बोला।

तीनों हँस पड़े, अपनों का साथ कितनी हिम्मत देता है, यह वह समझ रहे हैं, वह एक दूसरे से अपने मनोभाव छुपा गये, दर्द की ऐसी तीखी लहर उठ रही है कि कब एकांक कोना मिले तो वह अपना लावा बहा ले।

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