परिवर्तन भी न जाने
युग के बदलते दौर में
पीढ़ी दर पीढ़ी बदली
देखी नये युग की रीत
पुराना पीछे छूट ही गया
सब कुछ नया रच जो दिया
लेकिन सावन वैसा ही है
जैसा मां, दादी,परदादी का था
वही हवा में उड़ता आंचल
रेशमी जुल्फों की छुअन
नहीं बदला मन का शौर
और न ही वह चितचोर
लुकाछिपी के खेल पुराने
मन आंगन आज भी साजे
नई नवेली घुंघट में ही
करती घर में प्रवेश
वही साजन का इंतजार
बदला ऐसा कौन सखी
यह तो परिवर्तन भी न जाने
फिर भी हर दिल खूब विराजे।
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