मन से माने Take to heart
अंगड़ाई लेती काकी ने खुशनुमा सुबह को लजबाव करते हुए, आँखें खोली तो खिड़की से छनकर आती मुलायम किरणों को हसरत भरी निगाहों से देखा, सूरज उनकी खिड़की से झांककर आगे बढ़ने को है, श्रृद्धा से हाथ जोड़कर नमन किया,…”हे सूर्य देवता आपकी यात्रा मंगलमय हो और मेरा दिन शुभ हो।”
दरवाजे पर दस्तक हुई तो देखा बहू चाय का प्याला लिए खड़ी है।
मझली बहू मंजरी को देखते ही काकी की भ्रुकूटी ने धनुष का आकार ले लिया, अपना तीर छोड़ती उसके पहले ही मंजरी ने …”प्रणाम मां जी”.. कह दिया।
“तुम क्यों आईं, बड़ी, छोटी कहीं गई है क्या?”…काकी ने अपने स्वर में कड़वाहट भरपूर मात्रा में डालते हुए पूछा। काकी की खुशनुमा सुबह को सामने आ कर मंजरी ने बर्बाद जो कर दिया है।
“वो मां जी,…मंजरी का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि काकी ने बीच में ही काट दिया।
“चाय रखो और जाओ यहाँ से,”… तिरस्कार से बोली काकी।
मंजरी काकी की पसंद कि हुई बहू नहीं है यह तो रघुवीर न अड़ता तो कभी शादी न होने देती, लेकिन बेटा तो काकी का ही है जिद्दी, गांठ बांध ली थी उसने मंजरी से ही शादी करेगा, बहुत कुछ हुआ था उस समय घर में, आखिर काकी को ही झुकना पड़ा था। तब से ही मंजरी काकी को भाई नहीं, मंजरी काकी के अहम को ठोकर मारती हुई घर में प्रवेश कर गई थी।
दो माह हो गये मंजरी को घर में आये, लेकिन काकी जरा भी नहीं पिघली, ओर मंजरी इसी तरह रोज चाय ले जा¿ती है।
काकी को याद आया, अरे आज तो यह मायके जायेगी, कुछ दिनों को सुकून मिलेगा, सोचती हुई काकी आपने नित्य के कार्य में लग गई।
मंजरी का भाई आया, दोपहर तक मंजरी मायके चली गई। काकी ने राहत की सांस ली।
बड़ी बहू के तीन बच्चें है छोटे तो जुड़वां हैं, वह बच्चों की देखरेख में ही उलझी रहती है ,छोटी बहू रसोई में, सुबह का चाय नाश्ता बनाकर टेवल पर रख दिया जाता है आओं, खाओ पियो और अपने-अपने काम पर निकल जाते हैं।
रघुवीर की शादी सब के बाद में हुई इसलिए छोटी बहू पहले आ गई, काकी भी रोज ड्राइंग रूम में ही आकर चाय नाश्ता करती रही है, बेड टी उन्हें कौन देता, सुबह-सुबह बहुतेरे काम होते हैं, कौन एक-एक को चाय देगा।
लेकिन इन दो माह से काकी को अपने कमरे में ही चाय मिल रही थी और बदले में सुबह-सुबह आशीर्वाद के रूप में मंजरी को उनकी झिड़की।
दूसरे दिन काकी सो कर उठी, कोई खड़का नहीं हुआ, न ही कोई चाय लेकर आया, आज मंजरी की उन्हें जरुरत महसूस हुई, फिर भी अलसाये मन से उठी तो लेकिन सब कुछ थका-थका सा लगा, चाय लेने गई तो देखा, बड़ी बहू बच्चों को चुप कराने में लगी है, छोटी टिफीन तैयार करने में लगी है, बेटे अपनी-अपनी तैयारी में लगे हैं, हालांकि यह सब पहले भी होता था, लेकिन यह मंजरी ने आदत बिगाड़ दी, सुबह की मुलायम रोशनी में चाय का लुत्फ उठाने का अपना ही मज़ा है। आज की चाय तो पी, नहीं पी बराबर ही है।
सच जब तक हम किसी चीज की कमी महसूस नहीं करते तब तक हम उसकी किमत भी नहीं समझ पाते, अब मंजरी इतने दिनों बाद लोटकर आयेगी, सोचकर ही काकी को बैचेनी होने लगी।
“रघुवीर मंजरी, को फोन कर दो एक दो दिन में वापस आ जाये,”… आफिस को निकलते रघुवीर को बोली काकी।
रघुवीर ठीठका, काकी को कुछ देर देखता रहा, बिना कुछ बोले चला गया, वह भी तो यही चाह रहा था कि काकी मन से मंजरी को स्वीकार कर लें। आज उनकी बात में वह स्वीकृति की गूंज देख पा रहा है।
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