मैं नदी हूँ
क्यों छल कर रहे हो ?
मैं तो
ममता की मूरत रही सदैव ही,
मुझ में हैवानियत
क्यों भर रहे तुम्हीं ?
गंगा-यमुना, गोदावरी, नर्मदा
अब भी बहती है सब
पर तुमने सभी को
करके दूषित
अब तो वहाँ भी
रहना दूभर किया स्वयं अपना ही।
हे मानव!
मैं अपने किनारे-किनारे
बसाती थी अनेक घर,
अब उन्हीं घरों को
निकलने लगीं वे सदानीराएँ क्यों।
कभी सोचा ???
पक्षियों की चहचहाहट
से मुखरित सवेरा
वृक्षों को जीवन देना तो
मेरा स्वभाव हुआ
क्यों तुमने धड़कते
सीने का आँचल दूषित किया ?
कि साँस लेना भी अब
दूभर मेरा
चाहिए जब भी
राहत तुम्हें
बैठते थे तुम ही
मेरे शीतल आँचल की छांव तले।
प्रेम से तुम सभी
यहाँ रहो तो सही
पलते बढते रहो मेरे किनारे सभी
आश्रय दूँगी आँचल में
सभी को तभी
करो निर्मल जल
चाहो स्वच्छ जीवन
इस दिशा में
कशिश
पैदा करो तो सही
पल-पल सोचो तो सभी।
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