ख़ामोश चोट

दक्षा उम्र के उस पड़ाव पर हैं कि जहाँ तर्क कुतर्क की कोई जरूरत नहीं होती, होता है तो सुनहरे सपनों का संसार, विश्वास की मोटी चादर जिसके परे प्रेम की एक ही परिभाषा होती है, प्रेमी के द्वारा कहे गये शब्द की सरसराहट, गर्माहट को महसूस करते दिन-दुनिया से बेखबर, एक अनोखे ही सागर मैं गोते लगाना, जहाँ सुनने, समझने की सारी इन्द्रियाँ आराम करने चली जाती है, रह जाता है तो ऐसा संसार जो आज तक देखा ही नहीं, इतनी कशिश भी हो सकती है जीवन में कि पूरी सृष्टि ही मदहोश लगने लगी। इस अनोखे संसार से जो भी गुजरता है अक्सर यही हाल होता है, कुदरत के द्वारा दिया गया अदभूत जहाँ है जिसमें से सभी को गुजर कर जाना है।

तीन वर्ष से एक दूसरे को जानते हैं, पढ़ाई भी पूरी हो चुकी है, अब धरातल पर आ गये, नौकरी की तलाश लगातार जारी हो गई। अब तो कहीं से भी नौकरी का पत्र आना है, पूरी उम्मीद है नौकरी तो मिलना ही है।

बहुत दिनों से विचार कर रही दक्षा की अब वह अपने विषय पर निकुंज से बात करें। विश्वास तो है निकुंज पर ही क्यों?आपने किए वादे पर भी पूर्ण विश्वास है।

अब उनका मिलना रोज नहीं हो पाता, इसलिए सोच को अच्छा खाद पानी मिल रहा है और अच्छा बुरा सोचने का समय मिल पा रहा है। बहुत सी बातें दक्षा के मन में आई, विश्वास जब चाहे तब डोल गया लेकिन उसे परे धकेल देती, फिर खुद ही विश्वास को थपकियाँ देने लगती, कि हमारा प्यार परवान चढ़ेगा।

समय बितने लगा, दक्षा की नौकरी पहले लग गई, उसे शाहजहाँपुर जाकर ज्वाईन करना है, एक दूसरे से खूब सारे वादें लिए, दिए गये, बिछोह का गमगीन माहौल में दक्षा के परिवार वालें साथ जा कर छोड़ आये।

एक वर्ष गुजर गया निकुंज को कहीं नौकरी नहीं मिली, दक्षा आश्वसन देती रही, इंतजार करने का वादा करती रही, समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा।

इस बार निकुंज को बिना बताये दक्षा अपने शहर लौटी, समय ने उबलते जज्बातों पर समझ और गम्भीरता के छिटे देकर प्रेम की धधकती ज्वाला को थोड़ा मंदिम कर दिया है।

दक्षा को कुछ शरारत करने की सूझी, अचानक सामने जाकर निकुंज को अचंभित कर देगी, वह मन ही मन निकुंज को अप्रत्याशित खुशी देना चाह रही है।

यह बात उसे पता हैं कि शाम को निकुंज कहा बैठता है, दक्षा बड़ी झील के पास पहुँची तो निकुंज कहीं नजर नहीं आया, वह इंतजार करती रही, फोन लगा कर पूछा तो निकुंज का ज़बाब सुनकर वह दंग रह गई।

“फुर्सत में हूँ, कहाँ जाऊँगा, बड़ी झील पर ही बैठा हूँ,… निकुंज ने जबाव दिया।

दक्षा बात करते-करते भी इधर-उधर नजरें दौड़ रही है, बड़ी झील का बहुत बड़ा हिस्सा देखा आई, लेकिन उसे कहीं निकुंज नजर नहीं आया।

पहली बार लगा उसे कि निकुंज ने झूठ बोला है। दिल को जबरदस्त धक्का लगा, गुस्सा तो बहुत ही आया, लेकिन इस समय समझ ने साथ दिया और उसने निर्णय लिया कि कहीं निकुंज…..आगे वह सोचने से भी डरने लगी, हाय..हाय..यह क्या सोच रही है वह, हमारा प्यार इतना उथला तो नहीं कि वक्त के साथ हम अपने-अपने रास्ते अलग-अलग चुन लें।

दक्षा रात भर बेचैन रही, उसे किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी, उसे पहली बार लगा कि निकुंज कहीं धोखा तो नहीं दे रहा, क्यों न पता ही कर लिया जाये।

सुबह फोन लगाया, निकुंज ने कहाँ कि घर पर है। दक्षा ने सोचा क्यों नहीं शाम को घर पर ही उससे मिल लिया जाये, मम्मी पापा तो उसके जानते ही हैं उसे । यही सोच कर दक्षा शाम का इंतजार करने लगी।

शाम चार बजे निकुंज के घर के सामने, यह क्या घर फूलों से सजाया हुआ है, एक ही पल में अनेक विचार आ कर चले गये। फोन लगाया तो बन्द आ रहा है। दिल की धड़कन बढ़ गई, धबराहट में सुझ ही नहीं रहा कि क्या करें, बार-बार फोन लगाये जा रही है?

“आप शादी में आये हो क्या,”…एक नारी स्वर सुनाई दिया।

दक्षा ने आवाज की ओर देखा, अधेड़ उम्र की महिला उसी से मुखातिब है।

“दूसरी गली में मंगल हाल है उसी में कार्यक्रम रखा है, आप वही चली जाओं,”… कहती हुई वह महिला आगे बढ़ गई।

दक्षा एक पल को ठिठकी आगे गली की ओर बढ़ गई, वह देखना चाहती थी की शादी आखिर हो किसकी रही है। थोड़ी दूर पर ही मंगल भवन है, भीड़ ज्यादा नहीं है फिर भी उसने अपने दुपट्टे से मुँह ढका और मंगल भवन के हॉल में प्रवेश कर गई, थोड़ी देर इधर-उधर देखती रही सब लोग अपने काम में व्यस्त हैं ।

एक जगह महिलाएँ घेरा बनाए खड़ी है, मंगल गीत गाया जा रहा है, वह धीरे चलते हुए उन्हीं के पीछे जाकर खड़ी हो गई, वह देखने का प्रयास कर रही है कि यहाँ क्या हो रहा है हल्दी की रस्म थी, उसने देखा निकुंज…..

मुँह से चीख निकलने को ही थी कि उसने आपने ही हाथ से मुँह दबा लिया, उसे लगा भूकंप का झटका लगा, उसके सपनों का महल को भरभरा कर गिरा दिया। वह उल्टे पैर हॉल से बाहर आ गई।

इतना बड़ा विश्वासघात है कि वह समझ ही नहीं पा रही क्या करें? वह घर की तरफ लौट आई। पूरी रात बेचैनी में गुजरी, मन तो चीख चीखकर पूछना चाह रहा है कि उसे धोखा क्यों दिया?

सुबह तक वह संभल गई, यह शायद एक वर्ष कि दूरी से ही संभव हुआ है कि वह अच्छे से सोच पा रही है। घर वालों का दवाब, मजबूरी, परिस्थितियों के चलते निकुंज अगर समर्पित हो गया तो यह प्यार है ही नहीं, सिर्फ झूठा भ्रम ही था, जो समय की धार में बह गया।

दक्षा नौकरी पर लौट गई ऐसा कभी हुआ नहीं था कि एक-दो दिन में बात नहीं होती थी लेकिन इस बार चार दिन हो गये, उसने भी फोन नहीं किया, फिर एक दिन फोन आया।

“कैसी हो, फोन की भी फुर्सत नहीं मिलती आजकल,”… निकुंज ने झूठा रोश दिखाया।

“हाँ, कहाँ हो,”…दक्षा ने पूछा, चाहकर भी वह रुखा नहीं बोल पाई।

“कहाँ रहूँगा, घर पर हूँ,”… सदाबहार जबाव दिया निकुंज ने।

“यह कब तक चलाना चाहते हो, अपनी अन्तरत्मा को जलील करने का कब तक का इरादा है, सोचना निकुंज,”… दक्षा ने ठंडी लेकिन दृढ़ निश्चय से भरी आवाज में कहाँ और फोन रख दिया।

जिस रिश्ते में किन्तु, परन्तु प्रवेश कर जाये, वहाँ विश्वास जैसे शब्द कोई मायने नहीं रखते, ऐसे में बिलावजह तर्क, कुतर्क करके क्या साबित होगा, बेहतर है खामोशी की चोट तमाम उम्र निकुंज को चैन नहीं लेने देंगी।

©A

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