रुह से रुह तक

“मैं, कल तुम्हारे शहर पहुँच रहा हूँ, पहुँचकर जगह बता दूँगा आ जाना, बाकी सब ठीक है न….दिवा ने मेसेज पढ़ा तो एक ठहरी हुई सी मुस्कान को उछाला।

पता नहीं कैसा रिश्ता है यह, वह कुछ भी नहीं समझ पाती, राघवेन्द्र के साथ कॉलेज समय से ही दोनों के बीच प्रेम की रसधार वह निकली थी, दिवा के घर की परिस्थितियों ने खुद की जिम्मेदारियों से बाहर निकलने नहीं दिया।

राघवेन्द्र ने भी तो परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उसका साथ नहीं छोड़ा और लगातार दोनों सात वर्षो से इसी तरह मिलते रहे हैं।

दिवा ने कभी भी राघवेन्द्र को अति उत्साहित होते नहीं देखा, न ही बहुत सारी कसमें खाई, हमेशा धीर गंभीर रहता, दिवा ने भी कौन सा अपनी परिस्थितियों को छोड़कर उसके साथ घर बसाने का सोचा, हर बार ही तो टालती रही है वह, यह बात दोनों अच्छी तरह समझते हैं, जब तक दिवा अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं होगी कोई भी निर्णय लेना दोनों के लिए संभव नहीं है।

वर्षों से यह क्रम चल रहा है, अब जब भी राघवेन्द्र शहर में आता है उसे खबर भेज देता है । आज भी वह आठ बजे होटल पहुँच गई, राघवेन्द्र, काफी अंतराल के बाद आया है, थोड़ा थका सा लग रहा है, किंतु दिवा ज्यादा बातें नहीं करती, न व्यक्तिगत, न ही व्यवसायिक, दोनों के बीच एक मौन स्वीकृति होती है एक दूसरे के साथ रहने की, किंतु इस बार बहुत समय हो जाने पर राघवेन्द्र को वह कई बार याद कर चुकी थी, खुलकर कभी भी राघवेंद्र से आग्रह नहीं किया, कि वह आ जाये, पता नहीं किस तरह का यह अनुबंध है जो दोनों अपने-अपने दायरे में रहते हैं।

“यह लो, तुम्हारे काम आयेंगे।”…औपचारिक बातों के बाद राघवेन्द्र ने कुछ कागज दिवा की तरफ बढ़ाये।

“क्या है यह।”…उलझन भरे स्वर में पूछा दिवा ने।

“प्रॉपर्टी के कागज है, जहाँ तुम रहती हो, वह मकान अब आज से तुम्हारा हो गया।”…राघवेंद्र ने सपाट लहजे में बोला।

“लेकिन राघवेन्द्र, मैं मकान नहीं खरीद सकती, रहने दो इसे।”… आश्चर्य से घबराकर बोली दिवा।

“मैं, दे रहा हूँ, तुम्हारे भाई को नौकरी भी मिल गई है, तुम अब आजाद हो, मेरे साथ विवाह करने के लिये।”…राघवेंद्र के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई।

दिवा आश्चर्य में बैठी रही, बहुत देर तक राघवेंद्र को देखती रही, कोई शब्द ही नहीं मिल रहे हैं उसे कि वह कुछ कहे, शायद दिल ही दिल में वह एक दूसरे को कितनी अच्छी तरह से जानते हैं, इसका अंदाजा दिवा को हो गया है, सच में प्यार सच्चा हो तो बहुत गहरा उतरता है रुह के साथ, इसी को शायद जन्मों का साथ कहते हैं।

दिवा को शांत बैठा देख राघवेन्द्र ने होले से दिवा का हाथ थाम लिया, जहाँ आश्वासनों की और विश्वास करने की बहुत ही मजबूत नींव है, दिवा की आँखों से राघवेन्द्र के दिल की विशालता पर अश्रु बहने लगे।

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