समन्वय के प्रर्वतक तुलसीदास Innovator of coordination Tulsidas

तुलसीदास ने धर्म समाज राजनीति परिवार आदि में समन्वय स्थापति करते हुए तत्कालीन साहित्य के क्षेत्र में भी अद्भुत समन्वय की स्थापना की। यही कारण है कि तुलसी ने अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं का समन्वय करके ‘‘रामचरित्रमानस’’ की रचना की है।

तुलसी जहाँ हिन्दी साहित्य के उच्चकोटि के कवि है वही महान लोकनायक भी है । सफल समाज सुधारक तो भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ प्रचारक भी हैं और समन्वयवाद का प्रचार करने वाले एक महान संत, कवि भी हैं। तुलसीदास विश्व साहित्य की विमल विभूति हैं। उनकी वाणी से केवल भारत ही प्रभावित नहीं हुआ अपितु संसार के
धार्मिक एवं अधार्मिक शिक्षित एवं अशिक्षित सहृदय एवं असहृदय साहित्यिक एवं असाहित्यिक सभी वर्ग एवं श्रेणी के व्यक्ति अनुप्रणित हुए हैं। आज संपूर्ण विश्व उनके विचारों का आदर करता है। सर्वत्र उनके काव्य सौंदर्य की चर्चा चलती है। सभी क्षेत्रों में उनके सिद्धातों को महत्व दिया जाता है और सभी उनकी अभिव्यजना शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। सर्वत्र उनके काव्य सौन्दर्य की चर्चा चलती है। सभी में उनके सिद्धातों को महत्व दिया जाता है और सभी उनकी अभिव्यजंना शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। आज मानव तुलसी से प्रेरित होकर जीवन पथ पर अग्रसर होता है आपत्ति के क्षणों में धैर्य एवं साहस ग्रहण करता है। शोक एंव विशाद के क्षणों में संवेदना एवं सहानुभूति प्राप्त करता है। दुर्बलता के अवसर पर बल ग्रहण करता है और कार्यक्षेत्र में पदार्पण करने के लिए स्फूर्ति एवं नवीन चेतना प्राप्त करता है। तुलसी का सारा काव्य जीवन जगत की असीम अनुभूतियों का अक्षय भंडार है।

हिन्दी साहित्य के मध्ययुग में जिस समय स्वामी तुलसीदास का अविर्भाव हुआ उस समय धर्म, समाज, राजनीति आदि के क्षेत्रों में सर्वत्र पारस्परिक विषमता एवं असहष्णुता का बोलबाला था। धर्म के क्षेत्र में जहां हिन्दु धर्म और इस्लाम के कारण वैमनस्य जड़ पकड़ रहा था वहां शैव, शक्त वैष्णव आदि मतों के अनुयायी परस्पर ईष्या, द्वेश की वृद्धि में जल रहे थे। उस समय सम्राट अकबर जैसे सहिष्णु शासक ने पारस्परिक एकदम एवं समता के लिये प्रयत्न अवश्य किये, परंतु उन प्रयत्नों के पीछे उसकी स्वार्थमयी मनोवृत्ति एवं राज्य लिप्सा होने के कारण उसे भी सफलता नहीं मिली । हां तात्कालीन सन्त कवियों ने अवश्य सारे भारत में भावनात्मक एकता स्थापित करने का सफल प्रयत्न किया और गोस्वामी तुलसीदास भी उन्हीं सन्त कवियों में से एक थे ।

तुलसी स्वामी रामानंद के शिष्य संप्रदाय में स्वामी नरहर्यानंद के शिष्य थे, जिन्होंने रामावत सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया था । तुलसी ने इसी सम्प्रदाय में दीक्षा ली थी। रामावत सम्प्रदाय में राम को पर ब्रम्हा माना गया है।

तुलसी के युग में जिस तरह शिव और विष्णु के उपासकों में पारस्परिक वैमनस्य एवं विद्वेष फैला हुआ था उसी तरह वैष्णवों और शाक्तों में भी घोर संघर्ष चलता था।

तुलसी ने भक्ति क्षेत्र के अतिरिक्त दर्शन के क्षेत्र में भी समन्वय स्थापित करने का सुन्दर प्रयास किया है।

गोस्वामी तुलसीदास के समय में ज्ञानियों एवं भक्तों में बडा विवाद चलता रहा था क्योकि ज्ञानीजन भक्तों को तुच्छ और स्वयं को श्रेष्ठ समझते थे।

तुलसीदास के अविर्भाव से पहले ही भक्तों में प्राय: ब्रम्हा के निर्गुण अथवा सगुण स्वरुप के मानने में पर्याप्त संघर्ष चला आ रहा था । इसी संघर्ष के परिणामस्वरुप महात्मा सूरदास ने अपने ‘भ्रमरगीत’ के पदों में ब्रम्हा के निर्गुण रुप का खण्डन करके सगुण रुप की महत्ता का प्रतिपादन किया था । परंतु तुलसी की दृष्टि में निर्गुण और सगुण दोनों ही ब्रम्हा के रुप बराबर थे।

तुलसीदास से पहले राम एक दशरथ के पुत्र के रुप में ही अधिक विख्यात थे। उन्हें बहुत कम लोग परात्पर ब्रम्हा, अज, अविनाशी आदि मानते थे। इसलिए कबीर ने… ‘‘दशरथ सुत तिंहु लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना’’ कह कर राम के दशरथ पुत्र रुप को पृथक कहा था परंतु तुलसी ने…‘‘भय प्रकट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी’’ कहकर उन्हीं ब्रम्हा को कौशल्या एवं दशरथ के पुत्र के रुप में अविरत दिखाकर अपने इष्ट देव को साधारण नर से ऊपर उठाते हुए “नारायण” के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठत कियाऔर उन्हें ‘‘विधि हरि संभु नचावन हारे’’ तक घोषित किया।

गोस्वामी तुलसी के युग में जाति, पांति, ऊँच नीच, छुआछुत आदि का भेदभाव अत्यधिक बढा चढा था। राजा तथा प्रजा के मध्य अत्यन्त गहरी खाई बनती चली जा रही थी। गोस्वामी ने धर्म और समाज के क्षेत्र में समन्वय स्थापित नहीं किया अपितु उन्होंने पारिवारिक क्षेत्र में भी पिता और पुत्र, पति ओर पत्नि में, सास और बहु में, भाई-भाई में, स्वामी और अनुचर में तथा पत्नी और सपत्नी में भी समन्वय की स्थापना की थी।

विविध मानव मनोवृत्तियों की अनुपम निधि है।अनेक सांस्कृतिक मूल्यों का अथाह सागर है। लोक मंगल की असीम रंगशाला है। भावात्मक एकता उपदेश की आकर्षक पाठशाला है। तुलसी का काव्य इसी कारण मनोमालिन्य का विनाशक है। अनाचार का उच्छेदक है। विश्वबंधुत्व की भावना का प्रचारक है, और मानवता प्रेम का उत्पादक है।

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