Kundan कुंदन

“लल्ला, जब कमाने लगोगे, तब फरमाइसे पूरी करना, अपने भैया की सीमित आय से घर खर्च निकल जाये, यही क्या कम है, अब तुम भी इस घर को चलाने में मदद किया करो, शिक्षा तो पूरी हो गई है,”..भाभी ने एक बात ही तो कही थी।

आज भाभी की कहीं बात लग गई, जबकि भाभी ने सामान्य लहजे में ही की थी, किंतु अरविंद आज कुछ दूसरे ही मूड में है, अतः बात चुभ गई, चुपचाप बाहर निकल गया, वह सोचता रहा यदि भैया और पिता के होते कुछ दिन फुर्सत में रहना चाह रहा है तो कौन सा पहाड़ टूट गया, किंतु लगता है वह घर वालों की आँखों में किरकिरी बन गया है, सभी को सल रहा हूँ, आज से नौकरी ढूंढने का काम शुरू करता हूँ,,सोचता वह घर के बाहर आ गया।

बहुत भटकने के बाद जब नौकरी नहीं मिली तो उसने कोई छोटा मोटा काम करने की सोची, गैरेज में उसे गाड़ियों की मरम्मत में मदद करने का काम मिल गया, यहाँ काम करने से एक फायदा यह हुआ कि तरह-तरह के लोगों से मिलना तथा उस जैसे काम करने वाले सहकर्मी की सोच से वह परिचित होने लगा ।

उनकी सोच रही है कि पैसा कमाने के लिए डिग्री की अहमियत तब तक है जब तक नौकरी मिलने तक, लेकिन अगर अहम को बनाए रखने में डिग्री आड़े आने लगे, तब इसे अपनी नजरों से दूर कर दो, अपने आप तुम्हें मेहनत करता प्रत्येक व्यक्ति महत्व का लगने लगेगा।

यह सोच भी कितनी सच है, वह यह काम करते हुए जान गया है कि एक साइकिल पर फेरी लगाता पेपर वाला या रंग-बिरंगे सौंदर्य प्रसाधन का सामान बेचने वाला भी मेहनती तथा हौसला बुलंद नजर आने लगा है।

अरविंद काम के साथ-साथ नौकरी हेतु फॉर्म भी भरता जाता, अब वह इंटरव्यू में बेधड़क जवाब देने में हिचकता नहीं है, आत्मविश्वास की पूर्ति होते ही उसका व्यक्तित्व निखार आया है, हाथों में कठोरता आ गई है, दिमाग स्थिर व मजबूत हो गया है।

कुछ समय बाद एक नियुक्ति पत्र आया, जो शहर की ही प्राइवेट कंपनी का है, पढ़कर ही वह खुशी से झूम उठा, गैरेज मालिक से उसने बात कि, शाम को दो घंटे वह काम करेगा, क्योंकि वह कुछ दिनों से सोचने लगा है कि यदि अपना गैरेज खोले तो फायदा तो है साथ ही उसके जैसे नौकरी तलाश करते निराश लोगों को काम तो मिल ही सकेगा।

“यह लो भाभी, मिठाई और यह रहा मेरा नियुक्ति पत्र, अब आप खुश हैं,”… घर पहुँचते ही अरविंद ने भाभी से कहा।

“हमने तो लल्ला, यह चाहा कि हमारी देवरानी हमारी तरह मन मार कर न रहे, उसे वह सब कुछ सुख सुविधा मिले जिसे हम भोगने में असमर्थ हैं, यह दर्द हम जानते हैं, इसलिए हम तुम्हें काम करने को कहते हैं”.. भाभी की आंखें भर आई।

“भाभी, आप ने हमसे कहा भी तो उसके लिए जिसका अभी अपने घर में अस्तित्व ही नहीं है,”.. अरविंद ने तर्क दिया।

“बस यही बात तो होती है हमारे अपनों में, जो तुम्हारे आने वाले कल का भी सुख देख लेते हैं,”..भाभी भरे गले से बोली।

“क्या बात है दोनों बड़े खुश दिख रहे हो, यह मिठाई कैसी,”.. मां ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा।

“मां जी, लल्ला जी से पूछिए,”..भाभी गर्व से मुस्कुरा कर बोली।

“क्यों अरविंद, क्या बात है, तू बोलता क्यों नहीं,”.. मां ने पूछा।

“मां, मुझे नौकरी मिल गई है, क्षमा मां, यह बात मुझे पहले आपको बतानी थी,”.. उसे लगा मां को बुरा न लगे।

“तो क्या हुआ, मां के बाद, भाभी मां का ही नाम आता है, उसे बता दिया तो क्या हुआ,”… मां ने सहजता से उसे भाभी मां का स्थान समझा दिया।

“ओह.. मां,”..कहता अरविंद मां के गले लग गया।

भरे पूरे परिवार में मां के सरल व्यवहार, भाभी की मधुर वाणी ने घर को पावन व शीतल बना दिया है, भैया, बाबूजी और अरविंद अपने- अपने काम के बाद घर की ओर भागते हैं, घर आकर कहीं जाने का उनका मन ही नहीं करता।

कुछ समय से अरविंद के ब्याह की तैयारियाँ होने लगी, लड़कियाँ देखी जाती, एक से एक बड़े घराने के रिश्ते आते और नवीन यह सोच-सोच कर परेशान होता, पता नहीं वह मां, भाभी जैसी होगी या नहीं।

सभी की सहमति से एक बड़े घर की किर्ति से बात पक्की हो गई, अरविंद ने सावधानी के तौर पर मां, भाभी को बता दिया कि अपने ही जैसा घर देख लो, वरना बाद में पछताओगे ।

किंतु मां, भाभी को किर्ति भा गई । यह अच्छा रहा, इसी शहर की है, अब अरविंद को सोचना था कि अपने परिवार के बारे में किर्ति को बता कर, बात साफ कर ले, उससे ज्यादा पढ़ी लिखी है, कहीं नकचढ़ी न हो।

समय निश्चित कर दोनों एक होटल में मिले, काॅफी पीते हुए अरविंद ने अपने परिवार के बारे में बताया, घर में प्रेमपूर्ण, सौहार्दपूर्ण वातावरण का चित्रण कर दिया, किर्ति सब कुछ सुनती रही, पी.एच.डी. समाजशास्त्र से करके वह परिवार के बहुत से पहलुओं का अध्ययन कर चुकी है, फिर भी उसने यह जाहिर होने नहीं दिया, अरविंद ने पहले गैरेज में काम करने की बात भी बता दी, शादी करने के पीछे कोई मजबूरी तो नहीं है यह वह जानना चाहता है।

“अभी से मैं क्या कह दूँ कि मैं उस नए माहौल में घर के सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार कर पाऊँगी, क्योंकि वहा की परिस्थितियाँ मेरे लिए भी नई होंगी, हाँ शादी करने की मेरी सहमति है,”… किर्ति ने सहजता से अपनी बात रखी।

अरविंद, को राहत मिली, चलो कुछ तो कहा, शादी हो गई, घर वैसे ही चलता रहा, पर अरविंद को खटका बना रहता कि उसके ऑफिस जाने के बाद किर्ति जरूर मां, भाभी के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करती होगी, मन सदा बेचैन बना रहता।

अरविंद को पता है उसके घर वाले ऐसे हैं कि कितनी ही परेशानियाँ, दुख क्यों न हो, झेल लेंगे, उसे दुख न हो इसके लिये।

एक दिन वह दिन मैं ऑफिस से घर आ गया, किर्ति को ढूंढता हुआ बिना आवाज किए रसोई घर के पास पहुँचा, अंदर बातों की आवाज आ रही है, वह दरवाजे के नजदीक पहुँच गया, झुक कर देखा, किर्ति, अपनी कमर में आंचल खोंसे, भाभी के साथ खाना तैयार कर रही है।

“भाभी, आप मुझे दम आलू बनाना सिखा देना,”..किर्ति का स्वर सुनाई दिया।

“हाँ सिखा दूँगी, पर जरूरत क्या है, मैं हूँ तो,”…भाभी स्नेह से बोली।

“भाभी, मुझे भी तो कुछ आना चाहिए,”..किर्ति ने कहा।

“यह सब कुछ क्या अरविंद के लिए सीखना चाहती हो,”..भाभी ने चुहल की।

“क्या मैं आप सबके लिए नहीं सीख सकती,”..लजाती हुई किर्ति बोली।

“हाँ-हाँ मालूम है मुझे,” भाभी हँस दी।

“नहीं भाभी, यह बात नहीं, आप मुझे कितने अच्छे से परिवार के बारे में समझा देती हैं, मुझे लगता है आप से ज्यादा पढ़ी लिखी होने के बाद भी मैं परिवार की शिक्षा से कितनी अछूती रह गई,”…किर्ति ने तर्क दिया।

“ऐसा क्यों कहती हो, सीख जाओगी सब, मुझे भी वक्त लगा, हम यदि यह सोच ले कि हमें अपने पास का सब देना है, लेने की आशा न बांधे तो स्वत: ही व्यवहार अच्छा हो जाता है, फिर तुम तो आधी शिक्षा लेकर आई हो, अरविंद को पाने के लिए मुझे पटा लिया,”..भाभी ने सरारत से उसे छेड़ा।

“भाभी, आपका यह उपकार मैं भूल नहीं पाऊँगी, आपने मां, बाबूजी, भैया को कितनी आसानी से तैयार कर लिया और इन्हें खबर तक नहीं हुई, किंतु भाभी, यह शंकित रहते हैं कि मेरा व्यवहार जाने कैसा हो,”… चिंतित हो किर्ति बोली।

अरविंद यह जानकर तो आश्चर्यचकित रह गया, कि घर वालों ने एक होकर यह सब रचा, किंतु किर्ति के विचार जानकर खुश भी है, कि उच्च शिक्षा के साथ-साथ व्यवहार भी संतुलित हो तो सोने पर सुहागा हो जाता है, सच में अपने ही अपनों के लिए फिक्रमंद होते हैं, उनकी नाराजगी में भी कहीं न कहीं हमारी ही भलाई होती है, दबे पाव अरविंद वापस हो गया।

“भाभी यह आपके और किर्ति के लिए,”…शाम को लौटा तो दो पैकेट लाकर भाभी के सामने रख दिया।

“क्या है,”..भाभी ने पूछा।

“खोल कर देख लो,”.. कहकर वह अपने कमरे में चला गया।

दोनों पैकेट खोलें साड़ियाँ है, किर्ति तो चहक उठी।

“भाभी, यह कलर में लूँगी,”…उल्लास से भर किर्ति बोली।

“अरे, तुम पर तो दोनों रंग खूब फबेंगे,”…स्नेह से बोली भाभी।

“नहीं भाभी, एक आप रखें,”.. कहकर वह अपने कमरे में चली गई।

कुछ देर बाद भाभी साड़ी लेकर मां के पास गई, उसी बीच किर्ति का पानी लेने आना हुआ, भाभी, मां से कुछ कह रही है वह ठिठक गई।

“मां, लल्ला यह साड़ी लाए हैं, आप पर खूब अच्छी लगेगी, देखो,”.. साड़ी कंधे पर डालती हुई भाभी बोली।

“अरे बड़ी, छोटी को दे दे,”… मां सहज ही बोली।

“उसके पास एक है मां,”…

“तो, तू रख ले,”..मां स्नेह से भरकर बोली, मां बड़ी की उदारता को बहुत अच्छी तरह से जानती है।

“आप पर अच्छी लगेगी मां, कितनी सुंदर है,”.. भाभी ने कहा।

“बड़ी, मैं तो तेरी ही दी साड़ी पहनती हूँ, फिर मेरी, तेरी का क्या, तू रख ले,”… मां ने प्यार से झिड़की दी।

किर्ति सोचने लगी, इस मनुहार में कितना प्यार है, वह भाभी की सदभावना तक पहुँच पाएगी या नहीं, वह नई साड़ी देख कर भूल ही गई कि घर में मां भी है, यदि अरविंद एक साड़ी ही लाते तो, वह तो रख लेती।

हाय राम… कितनी कमियाँ है उसमें, वह समझ गई, भाभी जैसी मृदुल बनने के लिए कितना त्याग करना होगा, भाभी तो कुंदन हो गई है और वह लोहे का टुकड़ा ।

©A

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