आसमान बुनती औरतें
भाग (17)
‘‘राखी से पूछो किसके साथ आजकल रंगिन सपने देख रही है,’’… स्नेहा बोली
‘‘क्यों राखी क्या मामला है,’’…हर्षा ने पूछा
‘‘एक तरफा है मुझ तक ही सीमित है बात अभी बढ़ी नहीं है,’’…
‘‘है कौन,’’… हर्षा ने पूछा।
‘‘साल में दो बार कोलकत्ता बिजनेश के सिलसिले में आता है अपनी ही होटल में ठहरता है घूमने भी जाता है, बात कम ही होती है।’’… राखी ने बताया।
‘‘अच्छा हर बार कोलकत्ता के एक ही जगह को बार बार देखना किसे अच्छा लगेगा, सच बोल ना वह तेरी वजह से टूरिस्ट बस में बैठता है।’’… रानी ने कहा।
‘‘हां लगता तो मुझे भी है पर बोलता कुछ नहीं,’’… राखी बोली।
‘‘दोनों तरफ अभी चिनगारी भड़क रही है जब सुलगेगी तब पता चल जायेगा।’’…रानी बोली
‘‘चल मेरी छोड़ अपनी बता, कितने वर तुझे देखने आ गये और चलते बने,’’… राखी बोली ।
‘‘अब हम क्या बताए, माँ पिताजी अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आ रहे, और हम भी अपनी बात नहीं बता रहे, उनको अपनी मन की कर लेने दो जब थक हार जायेगे तब अपनी बात रख देंगे, ठीक है ना हर्षा।’’… रानी ने हर्षा से स्वीकृति की मोहर लगवानी चाही।
‘‘कोई है पसन्द,”…हर्षा ने पूछा।
‘‘है तो लेकिन स्थाई नौकरी नहीं है, वह चाहता है नौकरी स्थाई हो जाये, ठीक भी है मुझे कौन सी जल्दी है।’’… रानी बोली ।
‘‘स्नेहा तुम्हारा क्या है,’’…हर्षा ने स्नेहा को एक धौंस मारी।
‘‘अपन वैराग्य लिए है कोई शादी वादी नहीं ऐसे ही जियेंगे।’’…
‘‘क्यों क्या हुआ,’’…हर्षा ने पूछा।
“अपनी बड़ी बहन की शादी और उसके परिणाम देख, झेल रही हूँ मन तृप्त हो गया, यदि शादी के बाद इतनी परेशानी झंझटे है तो मैं ऐसे समर्पण को कतई तैयार नहीं।’’… स्नेहा ने कहा ।
‘‘हर्षा हम सब तो तुमने पूछ लिया, अपना भी तो बताओं।‘‘…राखी बोली।
‘‘तुम्हारी तरह हमारा हाल है अच्छा लगता है लेकिन जुबान नहीं खुलती, अब तो उस आफिस से नौकरी भी छूट गई, जाने जिन्दगी क्या रंग दिखाने बाली है।’’…हर्षा ने दार्शनिक की तरह अपनी बात रखी।
सभी मिलकर आफिस आसपड़ोस व घर की बातों में मसगूल हो गई वहाँ से उठकर वह सभी लालबाजार गई अपनी-अपनी जरूरत का सामान खरीदा ओर विदा हो ली।
क्रमश….