आसमान बुनती औरतें

भाग (77)

“यह बात ठीक है सर, मैं जवाब दूँगी लेकिन आज शाम को आप घर आइए मैं वही जवाब देती हूँ,”… हर्षा ने भी अपनी बात कह दी।

अरे यह कोई बड़ी बात तो है नहीं मैं आ जाऊँगा कितने बजे तक पहुँचना है बता दो।”… विनय ने शरारत की से पूछा।

“ऑफिस का समय तो आपको पता ही है बस उसके बाद सीधे घर आ जाइये और हां डिनर वही करना है।”… हर्षा ने भी पता नहीं कैसे अधिकार से कह दिया।

“ओ के बॉस जो आपका आदेश।”… विनय ने इस अंदाज में कहा कि हर्षा बिना मुस्कुराए नहीं रह पाई।

“शाम को मिलते हैं अब मैं फोन रखती हूँ सर, बाय।”… हर्षा ने कहकर झट से फोन काट दिया।

आज हर्षा को अपने आप पर आश्चर्य हो रहा है इतने सहज तरीके से बात कैसे कर ली, हमेशा दिमाग में बहुत कुछ उथल-पुथल मची रही है लेकिन आज तो उसे खुद नहीं ऐसा लगा कि वह बात करने में झिझक रही है बल्कि आज वह जवाब देने के लिए तत्पर थी।

कह तो दिया है कि घर पर बात करेगी, कहेगी क्या ? अब हर्षा को पसीने छूटने लगे, घर पर मम्मीजी, नानी भी रहेंगी, कैसे, क्या कह पाऊँगी, फिर मन विद्रोही हो जाता, क्यों नहीं कह सकती, कह सकूँगी, कौन सा मुश्किल है, हां ही तो कहना है, दूसरे ही पल खुद फिर परेशान हो जाती है कि किस बात के लिए हां कहेंगी, कैसे, क्या कहेंगी, विनय ने तो अपनी बात पहले ही स्पष्ट कर दी थी उसकी कहीं बात को समझने में उसे इतना समय कैसे क्यों कर लग गया।

कई उदाहरण है जिन्हें देख सुन रही है जहाँ लड़कियाँ इंतजार करती है कि लड़का कब गंभीर होगा और शादी जैसे विषय पर बात करेगा, यहाँ हर्षा के साथ तो सब कुछ उल्टा ही हो रहा है विनय पहले से तैयार है और हर्षा है कि इंतजार पर इंतजार करवा रही है, हर्षा को कुछ समझ ही नहीं आ रहा है कि क्या कहती, कैसे कहती, पूरे समय मम्मीजी और भाई की फ़िक्र जो लगी रहती है, किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है उसे, कैसे इन बातों के लिए समय निकाल पाती, कभी दिल ने इजाजत दी ही नहीं कि खुले आकाश में स्वछन्द विचरण करो, जीवन ने इतनी बड़ा ग्रंथ हाथ में पकड़ा दिया कि वह बोझ से दब ही गई, पढ़ती तब न जब जिंदगी मोहलत देती उसने तो चारों तरफ जिम्मेदारी के पहाड़ खड़े कर दिये ऐसे में हर्षा का वजूद तो कहीं गुम ही हो गया।

जब परिस्थितियों ने थोड़ा साथ दिया और स्थिरता आई तक तक विनय पहले से ही सामने मौजूद, उसे कोई भी कोशिश नहीं करनी पड़ी और न ही कुछ सोचने का मौका मिला, सब कुछ सामने हैं इसलिए उस बात को समझ ही नहीं पाई और देख ही नहीं पाई कि सामने उसके क्या है।

इतनी कम उम्र में उसने जो मम्मी जी की उलझन भरी जिंदगी को समझने में व्यस्त रही, तो ईश्वर ने दरवाजा उसके लिए खुद ही खोल ही दिया और उसे पसंद करने वाला उसके सामने है लेकिन जिंदगी के पाठ से सबक लेने वाली हर्षा फूंक-फूंक कर कदम रख रही हैं, अच्छे खासी जीवन को बर्बाद होते हुए उसने अपनी आँखों से अपने ही घर में देखा है वह भी उसकी मम्मी जी का तो जाहिर है कि इतनी सहजता से हर्षा अपने आपको फिर किसी बंधन में बांधने के लिए किसी भी परिस्थिति में तैयार नहीं थी।

यह ठीक भी है जीवन जो हमें पाठ सिखाता है उससे सबक लेना चाहिए न कि वापस बार-बार वही गलती करने के लिए तत्पर हो जाते, हर्षा को लगता है कि उसने धैर्य से काम लेकर पर्याप्त दिल और मन दोनों को समय दिया है, जब तक दोनों तैयार नहीं होते तब तक हर्षा ने विनय के विषय में सोचना भी उचित नहीं समझा लेकिन जब से उसे यह लगने लगा है कि जिंदगी सुख और दुख के दो पहलू हैं और हर इंसान की अपने-अपने जीवन की कहानियाँ होती है, जीवन शैली होती है और उसी के तहत जीवन चलाना होता है ऐसे में कुदरत के विरुद्ध जाने की न तो हर्षा हिम्मत है और मुख्य बात तो अब यह है कि विनय से दूर रहने की ख्याल से भी डरने लगी है।

क्रमश:..

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