एक कहानी : बाबा कांशीराम

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सम्पूर्ण भारत भूमि यज्ञशाला बन चुकी थी और जनता के मन की अर्थों की ज्वाला भयानक रूप से धधक रही थी। इस आन्दोलन में पड़ती जन-जन की भागीदारी थी, अपनी सामर्थ अनुसार सभी सहयोग करने को तत्पर हो गते थे । देश के हर क्षेत्र से अपार जन समूह दासता की इन बेड़ियों को काट फेंकने के लिए उतावला हो रहा था, मन मस्तिष्क में अब इन्हें देश से खदेड़ देना ही मकसद बन गया था।

हिमाचल प्रदेश इस समय तक पंजाब का ही एक हिस्सा था और शहर लाहौर विद्या प्राप्ति और प्रगति करने। में अग्रसर का मुख्य केंद्र था। हिमाचल प्रदेश का हर विद्यार्थी उच्च विद्याध्ययन के लिए लाहौर ही जाता था वह केवल विद्याध्ययन के लिए नहीं अपितु अन्य प्रकार के रोजगार अथवा जीविकोपार्जन के लिए भी लाहौर का रूख करता था।

हिमाचल के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को खोजने-खंगालने लगे तो हिमाचल स्वतंत्रता आंदोलन में आपको अग्रिम पंक्ति में खड़ा हुआ मिलेगा। हिमाचल का हर स्तंत्रता सेनानी कहीं न कहीं लाहौर से जुड़ा मिलता है। ऐसे में स्वतंत्रता आन्दोलन में भी यह महानगर क्रान्तिकारियों का गढ़ बन गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। आज हम जिनकी बात करने चले हैं, उनका सफर भी लाहौर से ही शुरू हुआ।

स्वतंत्रता संग्राम में हिमाचल की अग्रिम पंक्ति में एक नाम जो बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है वह है पहाड़ी गाँधी कहे जाने वाले ‘बाबा कांशीराम’ का। इन्हें स्याहपोश भी कहाँ जाता है। हिमाचल के इतिहास में हिमाचली वीर वजीर राम सिंह पठाणिया, क्रान्तिकारी लेखक यशपाल,इन्द्रपाल, रानी खैरागढ़ी, पझौता आन्दोलन के इंजिनियर वैद सूरत सिंह के जैसे उज्जवल नक्षत्रों के आस-पास शुक्रतारे की तरह एक अन्य चमकता नक्षत्र दिखाई देता है, जिसका नाम था, स्याहपोश जरनैल पहाड़ी गाँधी बाबा कांशीराम।

पहाड़ी गाँधी कहे जाने वाले बाबा कांशी राम का जन्म नगरोटा बगवां में ग्यारह जुलाई 1882 को व्यास नदी के किनारे डाडासीबा रियासत के साथ लगते ग्राम गुरनबाड़ के पंडित लखणू राम के घर हुआ। लखणू राम उस समय के विख्यात वैद्य थे।
बाल विवाह तत्कालीन भारतीय समाज व्यवस्था की आम  परम्परा थी अतः सात वर्ष की आयु में कांशीराम का विवाह उनसे आयु में दो वर्ष छोटी सरस्वती देवी से कर दिया गया। जब वे अभी ग्यारह वर्ष के ही थे तो माँ रेवती देवी का र्स्वगवास हो गया। थोड़े बड़े हुए तो आजीविका की खोज में वे लाहौर चले गए।

वहाँ जाकर कांशी राम ने धोबी मंडी नाम की जगह में डेरा जमाया। उन दिनों स्वतंत्रता आन्दोलन अपने चरम पर था। लाहौर निवास के समय कांशीराम का परिचय लाला लाजपतराय से हुआ। इनके विचारों से प्रभावित हो कर कांशीराम नित्य ही उनसे मिलने-जुलने लगे। यहीं सरदार अजीत सिंह और लाला हरदयाल के सम्पर्क में आने से उनमें देशभक्ति की भावना जागृत हुई। इस समय तक राजनीतिक सरगर्मियाँ सारे भारत में चारों ओर जोर पकड़ चुकी थीं उस पर भी लाला लाजपत राय के सम्पर्क ने आग में घी का काम किया। अतः कांशी राम के मन में भी देशप्रेम की भावना सुलग उठी। कांशीराम कमाने के बदले आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े, न सिर्फ कूद ही पड़े अपितु अपने आस-पास के लोगों को भी इस की तैयारी में साथ ले लिया।

इस समय काँगड़ा निवासी बहुतायत में मैदानी भागों में रोजगार में थे कुछ सरकारी नौकरियों में और कुछ निजी व्यवसाय में भी थे। इनमें से बहुत से राष्ट्रीय भावना से उत्प्रेरित होकर कांग्रेस के जलसों में भाग लेने लगे। यही लोग जब घरों को लौटते तो कांग्रेस की नीतियों को प्रचारित प्रसारित करते।

सुजानपुर के पास ताल नामक स्थान में एक सम्मेलन 1927 में हुआ, जिसमें बलोच सिपाहियों ने लोगों को बुरी तरह पीटा। इस मार-पीट का शिकार ठाकुर हजारा सिंह, बाबा कांशीराम, गोपालसिंह आदि भी हुए। सिपाहियों ने उनकी गाँधी टोपियाँ भी छीन लीं। इसके विरोध में बाबा कांशीराम ने शपथ ली कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं हो जाता वे काले कपड़े पहनेंगे।

4 अप्रैल 1905 के दिन सारा कांगड़ा भूकम्प से काँप उठा। लाला जी ने आवाज़ लगाई, ‘‘चल कांशी कांगड़े चलिए।’’ और कांशीराम उनके साथ कांगड़े आ गए।

कांगड़े पहुँचकर उन्होंने आपदाग्रस्त जनता की जी-जान से सेवा की और जनता के दिलों में अपना घर बना लिया। इस जनसेवा ने उन्हें सेवा का प्रसाद भी दिया और कांगड़े की जनता में उन्हें बहुत गहरे तक सम्मानजनक स्थान भी मिला।

लाहौर प्रवास के दौरान ही 1906 में शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह से कांशीराम की भेंट हुई। दोनों के विचार मिलते ही थे सो आज़ादी की ज्वाला और भी भभक उठी। कांशीराम के हृदय में देश को स्वतंत्र कराने की धुन सवार हो गई। अब कांशीराम का ध्यान आजीविका से पूरी तरह हट चुका था।

युवा हृदय स्वतंत्रता के रास्ते पर सरपट दौड़ने लगा। कांशीराम ने लाहौर पापड़ मंडी में, शाहनशाह महाराज का चेला बनकर संगीत के गुर भी सीखे थे। अब वे डाडासीबा और लाहौर के चक्कर लगने लगे। इसी दौरान उनके हृदय में अपने क्षेत्र में अलख जगाने के लिए अपनी मातृभाषा में ही कुछ अलग-सा करने के विचारों ने जोर मारा और वे पहाड़ी ;कांगड़ीद्ध भाषा में कविता करने लगे।

जन्मजात साहित्यकार कांशीराम ने ‘गलान्दा जांदी बारी जेल कबता’ में इसका बड़ा सजीव चित्रण किया है –

‘‘जग जींदेया दे मेले, आसांरे मुकणे नी झमेले।
सांजो तां जेलां सदेया, धमकियां मार मुकाया।
तुसां रसो तां बस्सो। रोआ कन्ने हस्सो।
हुण हिन्द दी होंगी लाज। रोटियां मंगदेयां मार पौंदी।
बोला नां तुसां, नोकरशाही गलांदी।’’


(दुनिया के झमेले तो समाप्त नहीं होंगे पर हमें तो जेल बुला रही है। तुम खुशी से घरों में बसते रहो। ये निर्दयी शासक रोटी मांगने पर मारता है और बोलने भी नहीं देता।) स्पष्ट है कि वह सत्ता से विद्रोह पर उतारू थे, पर वह जेल से डरे नहीं। इसी निर्भीकता के कारण पहाड़ के बहुत सारे गभरू-जवान कांशी राम के साथ हो लिए।

उन में से कामरेड परस राम, सरला शर्मा, कामरेड केशव शारदा, कांशीराम की अपनी भतीजी राम रक्खी उर्फ ऊषा शारदा मुख्य हैं। उनकी भतीजी रामरक्खी का विवाह भी लाहौर के कामरेड केशव शारदा ने अपने आंगन में कराया। पुलिस तो पीछा कर ही रही थी। ससुर-दामाद दोनों विवाह में ही रामरक्खी उर्फ ऊषा शारदा को एक चिट्ठी और लाहौर के घर का पता देकर भूमिगत हो गए। बाद में लाहौर ससुराल के घर रामरक्खी बताए गए पते पर अकेली ही पहुँची थी।

कांशी राम में साहित्यिक प्रतिभा जन्मजात थी यह तो सिद्ध ही है। अब ये हिमाचली पहाड़ी भाषा में देशभक्ति के कविता-गीत और भजन लिखने लगे। कंठ-स्वर मधुर होने के कारण घर-घर जाकर उन्हें गाने और आज़ादी की मशाल जलाने लगे। जनभाषा में देशप्रेम का काव्य रचने और उसे गा-गाकर सुनाने से कहा जा सकता है कि कांशी राम ने अपने क्षेत्र की जनता के मन में आज़ादी की लौ उस समय जगाई जब देश को इसकी बहुत अधिक आवश्यकता थी।

उदाहरण स्वरूप-

‘‘इन्हां पहाड़ियां दी मारी गइई मत लोको।
उजड़ी कांगड़े देस जाणा।
परदेसे दे लोकी जागी उट्ठे।
साढ़े देसां दे लौक्की खूब सुत्ते।
इन्हां बड्ढेया अपणा नक्क लोको।
उजड़ी कांगडे़ देस जाणा।’’

मौसमों की परवाह किए बिना गाते फिरते-

‘‘मैं कुण, कुण घराना मेरा, सारा हिन्दुस्तान ए मेरा।
भारत माँ है मेरी माता, ओ जंजीरां जकड़ी है।
ओ अंग्रेजां पकड़ी ऐ, उस नूं आजाद कराणा ए।।’’

अपने जीवन का बाबा कांशीराम 1916 में ही देश के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे।

लाहौर में शिक्षा ग्रहण करते समय वे लाला हरदयाल और अजीत सिंह के सम्पर्क में आने से उनके विचारों से इस तरह प्रभावित हुए कि उनके जीवन की धारा ही बदल गई। प्रथम भाषण आपने कांगड़ा के डाडासीबा की जनसभा में दिया, जिसके परिणाम में अंग्रेजों की गोरी सरकार के कारिन्दों ने बड़ी निर्ममता से इनकी धुनाई कर दी और भविष्य में ऐसा न करने की धमकी देकर छोड़ दिया। लेकिन जिनके दिल में देशप्रेम का राग छिड़ चुका हो वह तो रोके से नहीं रुकता। वह
आग इनकी कविताओं में धधकने लगी थी।

‘कौमी झण्डा’ कविता में स्वतंत्रता का आह्नान करते हुए कहते हैं –

‘‘कौमी झण्डे थल्ले आई जा, जे देस आजाद कराणा है।
देह्या बेल्ला गुआई के सज्जणो, असां फिरी पछताणा है।’’

देश को आज़ाद कराना है तो कौमी झण्डे के नीचे आ जाओ। अन्यथा यह समय हाथ से निकल गया तो सिवाय पछताने के कुछ नहीं बचेगाद्ध यही भावना थी, यही आग थी उन के हृदय में जिससे घर-घर और ग्राम-ग्राम में लोग स्वतंत्रता के सिपाही बनने लगे।

13 अप्रैल 1919 जलियांवाला हत्याकांड हुआ, बाबा कांशीराम उन दिनों अपने गाँव पध्याली थे। इस घटना की चोट सीधी दिल पर लगी। कांशीराम ने आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय होने का संकल्प ले लिया। उन्होंने अमृतसर रह कर बहुत कुछ देखा, सीखा और किया भी। दिल बज्र हो गया था। संकटों ने चारों ओर से घेरा
था। 1920 में पत्नी का देहांत हो गया। बड़ा पुत्र सात और छोटा चार साल का था।

इसी साल महात्मा गाँधी भी पंजाब के दौरे पर आए आए थे और असहयोग आन्दोलन का बिगुल बजा था। बाबा दोनों पुत्रों को उनके मामा के घर छोड़कर फिर स्वतंत्रता संग्राम में आ जुटे फिर क्या था जेल हुई।

कांशी राम के शब्दों में-

“‘वतन दे परवान्ने बणी के, शमां पर जल़ी जांगे।
होंगा ज़ाद हिन्द, असां बारी पर चढ़ी जांगे।
पुल़सा दियां लाठियां खादियां पेटां पर,
कन्ने हड्डियां होइयां चकणाचूर।
गोरे जितणियां भी गोलि़यां चलांगे,
असां अग्गे ही बधदे जांगे।
रती भी नि घबरांगे।’’

एक दिन जब वे भाषण दे रहे थे पुलिस उन्हें पंडाल से उठा ले गई। पहले ज्वालामुखी जेल में बंद किया, फिर धर्मशाला। लाला लाज पतराय भी धर्मशाला जेल में बंद थे। कुछ दिन उनके संग जेल में इकट्ठे रहे। जेल से छुटे, डाडासीबा आए फिर दूर-पार सभाएँ करने लगे।

1922 में फिर पकड़े गए तो गुरदासपुर जेल में रखे गए। वहाँ उन्हें बेरी की झाड़ी से बाँधकर कोड़ों की मार लगाई गई, पर उन्होंने सब दर्द हँसकर सहा। लाहौर जेल की कालकोठरी भी बाबा कांशीराम का ठिकाना बनी। अपने पूरे जीवन काल में बाबाजी कुल ग्यारह बार लगभग तीन वर्ष जेल काटी।

पहाड़ी गाँधी स्वतंत्रता संग्राम में इतना डूब गये थे की घर, खेती-बाड़ी सब छुर्ट गई थी, कमाई का कोई साधन नहीं था। जेल से छुटे तो पहले जमीन रैहन रक्खी। नौबत और खराब हुई तो गुजारे के लिए कच्चा घर चार सौ रुपए में रहन रख दिया। कुछ पैसे घर राशन में खर्चे, कुछ पुराना, चुकाने में चला गया।

1914 में महात्मा गाँधी अफ्रीका से वापस आए, सत्याग्रह आंदोलन चलाया। इससे प्रेरित होकर बाबा इस आंदोलन में भी कूद पड़े थे। गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर बाबा कांशी राम ने लोगों को समझाया-

‘‘हिन्दू मुस्लिम भाइयों, सिक्ख ते इसाइयो। हुक्म गाँधी सुनाइयो। मिले सुराज अड़ेया, असां देस बचाणा, कैहन्दा कांशी प्यारा।’’

इस दौरान भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, यशपाल, इन्द्रपाल सरीखे मित्र बन गए। जब भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी हुई तो बाबा कांशीराम बहुत आहत हुए। इन्होंने डाडासीबा में बड़ी भारी सभा की। दूर-दूर से जनता आई। वहाँ कांशीराम ने कहा, ‘‘हमारा हिंद आज़ाद हो जाएगा। राजगुरु सुखदेव जी, भगत सिंह ज़िन्दाबाद। ज़िन्दाबाद हिन्द, हम कुर्बान हो जाएंगे। हम मिटेंगे नहीं, मिटाएंगे।’’

इस सभा में संकल्प लिया कि “जब तक देश स्वतंत्र नहीं होगा मैं काले कपड़े ही पहनूँगा।”

कांशीराम को जेल की सज़ा हो गई, जेल में उन्हें उल्टा लटकाया गया, मिर्चों का धुआं दिया गया। नित्य दी गई यातनाएँ सहते-सहते कांशीराम बीमार रहने लगे, पर हार नहीं मानी। उनका शान्तिपूर्ण आंदोलन जारी रहा। अंग्रेज भी अब कांशीराम से भय खाने लगे। जब भी वह जेल से बाहर आते, पुलिस वाले उन पर कड़ी नज़र रखते थे। कांशीराम ने काले कपड़े पहनने की कसम भी मरने तक निभाई।

इसी कारण वे स्याहपोश जरनैल के नाम से जाने जाते थे। जेल में अपनी मांगें मनवाने के लिए उन्होंने भूख हड़तालें भी कीं। जिस समय कांशीराम अटक जेल में थे तो बोरी में डालकर उन्हें बाँध दिया गया, बरफ की सिल्लियों पर फेंककर लात, घूंसे और ठोकरों पर रखा गया। उन्होंने सब सहा पर बिचलित नहीं हुए।

कांगड़ा के सुजानपुर में हुए अधिवेशन में इन्हें और इनके साथियों ठाकुर हजारा सिंह, गोपाल सिंह और चतर सिंह आदि को बलोच सिपाहियों ने बुरी तरह मारा-पीटा। इनसे इनकी टोपियायँ भी छीन लीं। पर ये रुके नहीं और पहाड़ी भाषा में लिखी अपनी कविताओं से जन जागृति फैलाने का काम निरंतर जारी रखा।

ईस्वी सन् 1930 में जब महात्मा गाँधी ने नमक सत्याग्रह किया तो यह
स्याहपोश तहसील देहरा से अपनी रागनियों के सहारे कांग्रेस का संदेश जनता तक पहुँचाने निकल पड़ा। इनके साथ तहसील हमीरपुर से ठाकुर हजारा सिंह, दौलत राम वकील हमीरपुर, ठाकुर चतर सिंह आदि भी युवकों के समूहों सहित निकल आए।

मिलखी राम जनरल मर्चेंट, राम बिशन नन्दा दुकानदार, निगाहिया मल जैन, सीताराम जैन, सतपाल दुकानदार, बालड्डष्ण पुरोहित आदि सैकड़ों आंदोलनकारी साथ चल पड़े।7 ये सभी साथी पूर्व में जब कांगड़ा जिला कांग्रेस कमेटी के नेताओं ने सुजानपुर में पोलिटिकल कान्फ्रेंस का आयोजन किया था तब वहाँ सरोजनी नायडू, सरला देवी और दुनीचन्द आदि की सभा में देश को स्वतंत्र कराने का संकल्प ले चुके थे।

गरली नाम के गाँव जब उन्होंने में जनसभा की तो भारी जनसमुदाय को वहाँ आना था पर अंग्रेजों के डर से सिर्फ नौ लोग ही पहुँचे।

कांशीराम ने कहा…‘‘निराश नहीं होना, एक दिन आयेगा जब नौ हजार लोग मेरी चिता पर होंगे और नब्बे हजार लोग मेरी बातों को मानेंगे, चाहे मैं न रहूँ।” और यह सब सच भी हुआ।

बाबा कांशीराम ने समाज के उद्धार हेतु होने वाले किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा लेने से परहेज़ नहीं किया। वे आर्यसमाज के अधिवेशनों में भी सक्रय भूमिका का निर्वाह करते रहे।

अप्रैल 1933 में कुल्लू में आर्य समाज का विशाल अधिवेशन हुआ। आर्य समाज की कुल्लू शाखा के प्रधान पं. गोविंद राम के आवाहन पर बाबा कांशीराम ने अपने सहयोगियों सहित सक्रिय भागीदारी निभाई।

1931 से 1934 जुगलैहड़ ;दौलतपुरद्ध जिला ऊना तत्कालीन कांग्रेस की सभा में भारत कोकिला सरोजिनी नायडू भी पहुँचीं। वहाँ उन्होंने बाबा जी के जोशीले गीत सुने तो बाबा को मंच से ‘बुलबल-ए-पहाड़’ की उपाधि देकर सरोजनी नायडू ने उन्हें सम्मानित किया। उसके बाद 1936 में होशियारपुर जिले के गढ़दीवाल कस्बे में कांग्रेस की सभा में जवाहर लाल नेहरू आए। पं. नेहरू ने कांशीराम की आज़ादी की लड़ाई के लिए ललक देखी, उनके प्रवचन सुने। वहाँ पर कांशी राम जी ने सारे पहाड़ की रूपरेखा अपने शब्दों में पं. जवाहर लाल नेहरू के सामने रखी।

जवाहर लाल नेहरू इस बात से बड़े मुग्ध हुए और बोले,…‘‘यदि देश का गाँधी महात्मा गाँधी तो पहाड़ का गाँधी कांशी राम।’’

बाबा कांशी राम अब पहाड़ी गाँधी बाबा कांशी राम के नाम से प्रसिद्ध हो गए। जालंधर की हरबल्लभ संगीत सभा उन दिनों बड़ी प्रसिद्ध थी। लोग दूर-दूर से वहाँ आते थे। बाबा कांशी राम ने वहाँ जाकर जलतरंग बजाया, हिमाचली पहाड़ी भाषा में आज़ादी के तराने छेड़े तो पंडाल तालियां बजा-बजाकर थक गया पर बाबा के गीत चलते रहे।

यहीं से लाला हरदयाल का इनसे मेल-जोल बढ़ा। कांशी राम ने हरदयाल जी से संघर्ष-संयम के बहुत से गुर सीखे, जो बाद में उनके काम आए।

बाबा कांशीराम साहित्यकार भी थे और सुरों के पक्के साधक भी थे। अपनी जिंदगी में उन्होंने लगभग पाँच सौ कविताएँ, गीत और ग़ज़लें लिक्खीं और गाई भी। सन 1940 में शक्तिपीठ माँ ज्वालामुखी के चरणां में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन का आयोजन हुआ। अथाह जनसमूह उमड़ा। बाबा कांशी राम ने गाया,…

‘‘हिंद आज़ाद होणा मितरो,
असां गुलाम हुण नी रेहणा।
बखरे-बखरे टोले बणाई,
तिन रंगे हेठ आई।
इन्कलाबी नारा लगाई।
मिली सुराज असां लेणा।’’

परन्तु खेद है कि उनका देश को आज़ाद देखने का सपना पूरा नहीं हुआ, फिर भी उन्होंने अपना फर्ज बखूबी निभाया था। सख्त सजा काट-काटकर बीमार रहने लगे थे। अन्तिम यात्रा पर जाने से तीन महीने पहले ही अंग्रेजों ने उन्हें जेल से छोड़ा। 15 अक्तूबर, 1943 को बाबा काशी राम महाप्रयाण कर गए।

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