ऐ दिल सम्हल जा जरा

(अंतिम भाग 8 )

चिल्ला पीराने पीर गौसुल आजम यहाँ हजरत मुबारक की एक ईंट दफन है। करीब ही एक सय्यद साहब की मज़ार है। दालान का सहन देखने से बहुत खूबसूरत है। यह जगह पहाड़ पर है, इस का रास्ता दरगाह से जाता है।

सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी ने अजमेर फतह करने के बाद अजमेर के हाकिम राजपूत राजकुमार को हटा कर सय्यद हुसैन मुशहदी खुनक सवार को अजमेर का किलेदार बनाया। अचानक रात को राजपूतों ने हज़रत सय्यद हुसैन को शहीद कर दिया। ख्वाजा गरीब नवाज़ ने नमाजे जनाजा पढ़ाई और खुद दफन किया, एक मुनसिबदार इतबार खां ने कच्चे मज़ार पर एक आलीशान इमारत बनवा दी, खूबसूरत
गुम्बद मजार शरीफ पर बनाया जिस का कलस सुनहरी है मज़ार मुबारक पर चांदी का छत्र है मज़ार शरीफ़ के चारो तरफ सुनहरी चौखटों में शीशे जड़े हैं।

इतने रोचक सफर के साथ बहुत सी जानकारी लेकर लौटे, छः दिनों का यह ट्रिप आदर्शिनी में नया उत्साह पैदा कर गया। अपने शहर लौटी तो देखा घर में दो ख़त आये हैं। एक ख़त माँ का है, लेकिन दूसरे ख़त की लिखावट पहचानी हुई सी लग रही है, पर याद नहीं आ रहा, उसने पहले माँ का ख़त पढ़ा आपने जीवन की सांझ का हवाला देती माँ अब भी चाहती है कि उसकी बेटी विवाह कर ले, आदर्शिनी ने मुँह बिचकाया मानों कड़वा नीम का पत्ता दांतों के बीच आ गया हो, इतने वर्षों से उस नीम के पत्तों को बिना दांतों के बीच लाये जुगाली ही तो करती रही है वह।

दूसरा ख़त खोला तो सबसे पहले ख़त के नीचे लिखा नाम पढ़ा – ‘‘रघुवीर।‘‘ वर्षों बाद उसके नाम को मन ने पढ़ा तो लगा शक्कर मुँह में घुल गई हो, फटाफट पूरा ख़त पढ़ डाला, आगामी बारह तारीख को वह आदर्शिनी से मिलने आ रहा है।

ढेर से पुराने पल दिमाग़ में तैर गये, उसकी सोच ने कभी भी स्थिरता को अपनाया ही नहीं इसलिए वह हर क्षेत्र में निर्णय लेने में कमजोर साबित हुई है। उत्साह के सारे द्वार खोल आदर्शिनी हर ख़ुशी को अपने अन्दर प्रवेश करने की इजाजत दे दी। रघुवीर के आने की तैयारी शुरू कर दी।

निश्चित दिन रघुवीर आया, हल्के बालों में सफेदी का आगमन स्पष्ट नजर आने लगा है, आँखों पर एनक लगा रखी है, शरीर थोड़ा फैल गया है, अघेड़ उम्र को जीवन्त करता रघुवीर सामने खड़ा है। आदर्शिनी के सारे सपने तटबन्ध तोड़ दौड़ लगाने लगे उन्हें रोकने के प्रयास में मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा है।

‘आदर्शिनी,’… रघुवीर ने पुकारा।

आदर्शिनी की  ओर से कोई प्रत्युत्तर नहीं।

‘आदर्शिनी,‘… पुनः आवाज दी।

‘ हाँ,‘…अचकचा गई, मानों सपने से जगा दिया हो।

‘‘तुम में अब भी ठहराव है या मन आज भी भटक रहा है।‘‘

‘मतलब ?‘

‘‘मैं तो इन्तजार कर रहा हूँ।‘

‘किसका ?‘

‘तुम्हारा।‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘प्यार जो किया है मैंने।‘‘

’’बानी, कहां हैं, ?’’

’’वह काभी थी ही नहीं।’’

‘‘बताया क्यों नहीं ?‘‘

‘‘तुमने मौका नहीं दिया।‘‘

‘‘अपनी बात तो कहनी थी।‘‘

‘‘कोई बात नहीं आज कह रहा हूँ।‘‘

‘‘इतना समय बर्बाद चला गया, विरह ने परेशान किया सो अलग।‘‘

‘‘अब तो ऐसा मत करो,‘‘… रघुवीर ने बांहे फैला दीं।

आदर्शिनी उस अथाह सागर में समा गई जहाँ प्यार का सागर तड़फते दिलों को सुकून और समर्थन दे रहा है। आज वह निर्णय लेने में देर नहीं करना चाहती।

समय हर उस जख्म की दवा है जो गहरे लगी होती है, मंथन स्वयं को करना होता है, जीवन में जहां से भी शुरुआत का मौका मिले वहीं से राह पकड़ लेनी चाहिए।

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जीवन फिर नया रचेगा….

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