कब
पूछा तो गया था
पर बता न सकी
मन के छोटे-से आँगन में
बहुत गहरा है सागर
जब हिलौरें लेता हैं न,
नींव ही हिला देता है मेरे अस्तित्व की।
अन्दर सब उजड़ जाता है
कहाँ से राहत पहुँचाऊँ तुमको ?
यहांँ के सब राजा-प्रजा
असमर्थ लग रहे हैं
उखड़े हुए अंतर्मन को
व्यवस्थित करने में।
जीवन रित रहा व्यर्थ ही
जाने कब बरसेगा घन-गगन ?
रंग-बिरंगे फूलों से
कब सजेगा मन का आँगन ?
सागर शांत कब होगा मन के आँगन का?
कब नया कुछ रचेगा ।
कब ? हाँ कब??
© अंजना छलोत्रे ‘सवि’