कमला
कमला
कुछ ऐस घटा जिंदगी में कि सब अस्त-व्यस्त हो गया, सोचा था कि बड़ी सुगमता से बीत जाएगी ये जिंदगी, किंतु दुख तो जैसे घात लगाए बैठा था । हमारी अभिलाषाओं, आकांक्षाओं का पहला पुष्प बेटी को अपने पास बुलाने के लिए प्रेरित करते हुए इश्वर को जरा दर्द नहीं हुआ। हमारी झोली में इतना सारा दुख उड़ेला की ढूंढने पर भी तमाम उम्र सुख नज़र नहीं आयेगा । मैं, पतिओर बेटा टूट गये। न एक-दूसरे से मन की बात कर पाते हैं और न ही अपने को व्यवस्थित कर पाने में सक्षम हो पा रहे हैं, कितना तकलीफ दे होता है यह जीवन, सोचकर एक थकी सी बोझिल उसांस निकल जाती है। हमें तो अब अगले जन्म में पृथ्वी पर आने से ही डर लगने लगा हैं।
दरवाजे पर घंटी बजी तो देखा काम वाली बाई कमला है, रोज सोच को इसी तरह यह विराम देती है, और वह अपने दुख: समेट कर घर को व्यवस्थित करने में उसके साथ लग जाती हैं।
दो दिनों से उसके पैर की अंगुली में सूजन है, लंगड़ाकर चलती कमला की मजबूरी है कि कहीं काम न छूट जाये, मेम साहब लोग यदि नाराज हो गई तो घर के पास के ये बंगले उसके हाथ से जाते रहेंगे फिर काम की तलाश में दूर-दूर भटकना पड़ेगा।
उसकी दिनचर्या देखकर उसे बड़ा आश्चर्य होता है, सींक सी सूखी काया से वह आठ- दस घर के बर्तन, झाड़ू ,पोंछा करती है, और हमारे ही कंपलेक्स में दोपहर को छत पर खाना खा कर सो भी जाती है।
उसने कई बार पूछा कि घर इतने पास होकर भी वह घर क्यों नहीं चली जाती । हमेशा कोई न कोई बहाना बना देती है, हालांकि वह उससे भी कम उम्र की है किंतु नानी-दादी बन चुकी है।
एक दिन सुबह जब उसकी आँखें लाल देखी तो पूछ लिया… “कमला, क्या तबीयत खराब है ? कुछ नहीं बोली, उसे थोड़ा सहानुभूति हुई। चाय बनाकर दी, तो वह पिघल गई , सिसक सिसक कर रो पड़ी।
थोड़ा शांत हुई तो बोली…”क्या बताऊँ दीदी, नाती – पोतों वाली हूँ, किसी से कुछ कहूंँगी तो विश्वास नहीं करेगा, सोचती हूँ थोड़ी सी जिंदगी बची है यूं ही काम करते गुजार दूं, लेकिन मेरा आदमी मुझे जीने देना नहीं चाहता”, कहती वह पुनः रोने लगी।
‘ऐसा क्या हो गया कमला, तू तो हिम्मत वाली है, अपना काम करती है, फिर तेरे आदमी को क्या परेशानी है ? उसने पूछा।
“क्या बताऊँ दीदी, मैं अपने मुँह से बताऊँगी तो लगेगा, मैं ही झूठ बोल रही हूँ”..,वह फफक पड़ी।
“अरे कमला, सम्हाल अपने को, देख अगर तुझे लगे कि मुझे बताने से मन हल्का हो जाएगा, तो बता दे, दुख कह देने से हल्का हो जाता है।”
उसके सांत्वना के शब्द सुनकर थोड़ी सम्हली।
“आप पूछते हो न दीदी, दोपहर को घर क्यों नहीं जाती, डरती हूँ कि कहीं एक बार देख चुकी उस घटना को बार-बार न देखना पड़े”, कहकर वह चुप हो गई।
“ऐसा क्या देखा तूने, तेरा घर है, जब चाहे आ जा सकती है”, उसके
शब्दों पर न चाहते भी जोर पड़ गया।
“दोपहर में दीदी घर पर कोई नहीं होता, मैंने बताया था न कि मेरा आदमी मिस्त्री का काम करता है, एक दिन उसे मैंने दोपहर में एक औरत के साथ घर पर देखा था, मैं उल्टे पैर वापस आ गई थी कि जो मुझे, बच्चों को इतना चाहता है, वह व्यक्ति ऐसा भी कर सकता है,”… वह चुप हो गई, उसका विश्वास चूर – चूर हुआ था।
“तूने, कुछ कहा नहीं”, वह भौंचक सी इतना ही पूछ पाई।
“बहुत सोचा दीदी, कि औरों की तरह लड़ाई करू, पूछूँ, फिर खुद ही गम खा गई कि बेटा बहू को जब पता चलेगा, तो क्या होगा, मेरा जीवन तो नरक हो गया, फिर इस उमर में ऐसा झगड़ा, कलह, मैं नहीं चाहती।”
“तू तो बहुत हिम्मत वाली है कमला, तेरी सोच इतनी अच्छी है, जबकि पढ़ी-लिखी लड़कियों में इतना सब्र कहाँ होता है।” वह उसकी हिम्मत पर हैरान थी।
“दीदी, जब खूब रो लेती हूँ, तभी कुछ अच्छा सोच पाती हूँ, गुस्सा और दुख बह जाता है, फिर सोचती हूँ कि हर बात का वक्त होता है, कब तक यह सब चलेगा, उसे भी मन की कर लेने दो, एक ही बात समझ आई दीदी अभी तक, कि हम जो यह कहते हैं कि मेरा यह, मेरा वह, कितना गलत कहते हैं। न पति हमारा होता है, न ही बच्चे, बस हम उन्हें अपने दिल से जोड़ लेते हैं, औरत है ना, इसीलिए तो हमें ही ज्यादा दुख होता है, अब देखो ना इस दुख में न पति साथ है और न मेरे दुख को देखने समझने को मेरे बच्चे, यदि मेरे जैसा, उन्हें मुझसे जुड़ाव होता तो क्या वह मेरे दर्द को महसूस नहीं कर सकते थे।” वह गहरी सांस लेने लगती है।
“अच्छा दीदी, आप ही बताइये, क्या इस उम्र में मैं इस बात के लिए झगड़ा करूं कि यह मेरा पति है, अपने परिवार व समाज के सामने हंसी का पात्र बनूं, दीदी, कभी-कभी लगता है, मेरा घोर अपमान हुआ है, फिर सोचती हूँ कि किस का अपमान, इस शरीर का, जिसे यहीं रह जाना है, या मन का, वह तो वैसे भी मेरे ही शरीर का नहीं है, फिर मैं क्यों इतना सोचती हूँ, अपना दर्द बढ़ाती हूँ, अच्छा तो यही होगा कि मैं अच्छा सोचूँगी तो सुकून मिलेगा।”.. कहकर वह आंसू पोंछ बर्तन समेटने लगी।
वह उस कमला से रूबरू हो रही थी, जिसे सोसायटी में अनपढ़ व यूं ही कम समझा का समझा जाता हैं, यह धारणा बन हुई है, लेकिन कमला की सोच इस धारणा को सिरे से गलत साबित करती है।
कमला की इतनी सुलझी बातें, उसे मथ गई, अब यह पैमाना कैसे निश्चित कर लिया जाता है कि पढ़ा-लिखा वर्ग बेहतर सोचता है और अनपढ़ नहीं, जबकि उसे तो नारी मन में संघर्ष से जूझ कर जीती औरत, किसी भी तबके की हो, जिंदगी का ऐसा गूढ़ अर्थ जान लेती है जो उसे कहीं पढ़ने को नहीं मिलता, बल्कि वह उसकी खुद रचयिता बन प्रत्यक्ष में भोगती है, जीवन के ऐसे न जाने कितने दुख होंगे जो उसके दुख से कई गुना वृहत होंगे, उसे तो दुखों के साथ रहकर जीवन गुजार देने का गुर तो कमला ने ही सिखाया हैं।
समाप्त….
बहुत ही अच्छी कहानी लगी,आज के परिवेश को सकारात्मक दृष्टि से अच्छी कहानी है
धन्यवाद जी