ग़ज़ल
जज्बातों ने तो कर दिया उत्पात क्या करें,
करते हैं दोस्त दिल पे ही आघात क्या करें।
रिश्तो की डोर रोज़ उलझती ही जा रही,
बनते ही बिगड़ते रहे हालात क्या करें।
गर्जी तड़क के छा गई काली घटा घनी,
होने लगी है टूट के बरसात क्या करें।
आने लगा है उनको सताने में अब मज़ा,
सूझी है एक और खुराफात क्या करें।
मासूम से मासूम और पत्थर भी हमीं हैं,
अपनी तो दोस्त है यही औकात क्या करें।
उनसे जो छूट गया हाथ भीड़ में कहीं,
फिर भीड़ में हुई है मुलाकात क्या करें।
©A