ग़ज़ल
माना की बहुत प्यारे हो हमारे काम के,
जी तोड़ मेहनत करते बिना आराम के।
खाली थी कसमें तो तोहमत क्यों लगी,
भरे बाजार खुबियां गिनाई इल्जाम के।
खंगालते जज्बातों को जरा आराम से,
अब बोली लगाये वो बिना दाम के।
हम से रुठों पर हाथ तो न झटकों,
मान जाओ जरा पहले ढलती शाम के।
लाज की जो बात गर न होती तो,
कह देते दिल की बात बिना जाम के।
दिल की बात ही की गई कुछ इस तरह,
गलत ठहरा दिया बिना परिणाम के।
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