ग़ज़ल
बहर
221,2121,1221,212
ज़ज़्बात ने ही कर दिया उत्पात क्या करें,
करते हैं दोस्त दिल पे ही आघात क्या करें।
रिश्तो की डोर रोज़ उलझती ही जा रही,
बनते ही बिगड़ते रहे हालात क्या करें।
गर्जी तड़क के छा गई काली घटाऐं भी,
होने लगी है टूट के बरसात क्या करें।
आने लगा है उनको सताने में अब मज़ा,
सूझी है एक और खुराफ़ात क्या करें।
मासूम से मासूम हैँ पत्थर भी हमीं हैं,
अपनी तो दोस्त है यही औक़ात क्या करें।
उनसे जो हाथ छूट गया भीड़ में कहीं,
फिर ख्वाब में हुई है मुलाकात क्या करें।
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