चाहत के गांव
मन में वृन्दावन बस जाते
जब यौवन द्वार खटखटाते
तन मन बेहद शौर मचाते
गाते रोते मन धमकाते
विरह अग्नि में ही जल जाते
मन में चाहत के गांव आ बसते
फिर क्यों इतना साजन सताते
मन के कौने कौने रमते
आंचल में भी नहीं समाते
बन्द पलकों से झाकते
आँखों से आँसू बन झरते
हम में तुम ही रचते बसते
फिर भी साजन तुम न आते
ऐ सुनो, तुम तो बहुत सताते
हम रुठे है क्यों न मनाते।
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