दाईजा

(भाग 1)

छोटे से कस्बे में छोटे-बड़े बच्चों के बीच, जाने कब शिप्रा की पढ़ाई पूरी हो गई थी कि पता ही नहीं चला। वह यू.जी.सी. की परीक्षा पास करके नौकरी की दौड़ में पहले ही वर्ष सफल हो गई। दाईजा के साथ पलते-बढ़ते, अभावों में जीते हुए वह जाने कैसे बड़ी हुई, शायद वहा रहने वाला कोई भी नहीं जानता है, क्योंकि दस वर्ष की उम्र से ही दाईजा लड़कों को अखबार बांटने व लड़कियों को लिफाफे बनाने के काम में लगा देती हैं। उनकी कोशिश रहती है कि हर बच्चा अपना भार खुद उठाने में सक्षम हो जाये।

लकड़ी से बने चौकोर घर में रहते हुए वह लोग पिछवाड़े की क्यारियों में अपने-अपने हिस्से की सब्जियाँ फूल उगाते हैं, इतने संघरर्षमय जीवन में भी जब कोई बच्चा फूल का पौधा लाता तो दाईजा उसे जतन से लगा देती थीं, घर के पीछे खेत है जहाँ साल भर का अनाज उगाया जाता है, वहां के हल बच्चे को हल चलाने से लेकर, बीज बोने, अनाज निकालने तक का काम बखूबी आता है छोटे बच्चों की देखभाल में सभी बड़े बच्चे पारंगत हो गये हैं, इसके बाद भी दाईजा पढ़ाई में जरा भी ढील बर्दाश्त नहीं करती है, सरकारी स्कूल में पढ़कर भी यहाँ के बच्चे, होनहार व साहसी हो गये हैं।

दाईजा ने जब से बच्चों को अपने पास रखकर पालना शुरू किया, धीरे-धीरे अनाथ बच्चों को लेकर आने वालों की लाइन लगने लगी। मासूम बच्चों की एक झलक जब दाईजा को विवश कर देती तो वह उन्हें अपने पास रख लेती। अब तक बच्चों की संख्या पचास हो
गई। सामान्य से ज्यादा बच्चों को रखकर दाईजा परेशान सी हो उठती है।

दाईजा ने इसलिए पुलिस थाने व अस्पताल में खबर करवा दी है कि और बच्चों को लेकर उनके पास न आया करें, फिर भी दाईजा के आनन्द घर में पचास बच्चे तो है ही।

शिप्रा के हम उम्र पन्द्रह लड़के लड़कियाँं हैं, जिनमें शिप्रा को ही सबसे
पहले नौकरी मिली। पहली बार दाईजा के घर में खुशी की लहर दौड़ गई, कितना शोर मचाया था सभी ने, तालियों की थाप पर सभी झूम उठे थे। आज दाईजा भी अपने को रोक नहीं पाई, उनकी तपस्या का पहला फल जो पक गया है, उनकी खुशी का आलम यह है कि सम्हाले नहीं सम्हल रही है नृत्य करते लड़खड़ा जाती, तो उन्हें बैठा दिया जाता, किन्तु वह पुनः उठ खड़ी होती, इन सभी के तो इसी तरह के उत्साह मनाये जाते हैं।

तीज त्यौहार इन लोगों के लिये मायने नहीं रखता, हाँ, बच्चों-बड़ों के पास होने पर स्नेह दुलार दे देना ही उनके लिए मिठाई हुआ करती है।

शिप्रा ने कितना कहा दाईजा को नीरु, रावी या जानकी को उसके साथ भेज दें, किंतु दाईजा नहीं मानी । वह भी समझ रही है कि उसके लिए ही जाने कैसे दाईजा ने पैसों की व्यवस्था की है। दसवीं क्लास के बाद सभी बच्चों को एक-दो ट्यूशन करनी ही होती है। उसी का नतीजा है कि सभी पढ़ने में बहुत बेहतर हैं।

श्वेत-वर्णी बाला शिप्रा, नाक नक्श से आकर्षक, छरहरी देह पर बल खाती नागिन सी चोटी, सधी चाल, कौन निछावर न होना चाहे किंतु मजाल है जो दाईजा के घर की लड़कियों की तरफ कोई आँख उठाए, दाईजा सभी को धमका कर रखती, कि जिसने भी कुछ किया या कहाँ उन पर मेरे पचास बच्चे भारी पड़ेंगे, मजाल जो कोई ऐसी-वैसी हरकत करें या लड़कियों के साथ कोई नजरें भी मिला सके।

पूरी हिदायतों के साथ बस तक छोड़ने आये सभी भाई बहनों की आँखें तरल हो आई।

इस शहर में नौकरी लगते ही आना, दाईजा के परिचित ने घर दिलाने में मदद कर दी। शिप्रा को स्वप्न सा लग रहा है यह सब कुछ, कहाँ वह डर के मारे दाईजा के आंचल में छिपी रहती थी, कितनी हिम्मत बँधाई थी उन्होंने, इतने उदाहरण दिये, जिसमें साहस की भरमार रहती, तब जाकर वह अकेले आने की हिम्मत कर पाई है।

दूसरे ही दिन कालेज में जाने का पहला दिन, शिप्रा ने आइने में अपने को निहार कर चुन्नी ठीक की, आगे-पीछे घूमकर देखा, आश्वस्त होते ही पर्स उठाकर मुख्य द्वार की ओर बढ़ गई, चौखट पर कदम रखते ही उसने दाईजा का स्मरण किया, नमन् किया और दरवाजे पर ताला लगाकर कालेज की ओर बढ़ गई।

आज शिप्रा को यह स्वतंत्रता का माहौल बन्धन का अहसास करवा रहा हैं। आज वह अकेली है कोई बंदिश नहीं, फिर भी लग रहा है जाने कितनी जंजीरों में जकड़ी हुई है, जैसे-जैसे कॉलेज पास आ रहा है, उसका दिल तेजी से धड़कने लगा, नई जगह, नये लोग, जाने कैसे होंगे, सोचकर ही पसीना आने लगा, शहर में चहल-पहल कितनी होती है, उसने एक जगह रूककर कॉलेज का पता पूछा, फिर आगे बढ़ गई।

क्रमश:…

©A

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *