पत्थर नहीं दिल है

भाग 4

इस एक महीने में जितना त्रिवेणी ने अपने विषय में सोचा है उतना तो उसने अपने होश सम्हालने के बाद आज तक नहीं सोचा और नतीजा यह निकला कि सबसे पहले खुद को संभाले, इसके बाद धवल
पर ध्यान देगी, चूंकि अब यह जीवन सुगम बनाने का दूसरा मौका है और इसे सहेजकर, संभाल के रखने का उसका मन भी है कहीं न कहीं ठोर तो चाहिए तो फिर इस रिश्ते को क्यों न संभाल लिया जाए।

त्रिवेणी जितना धवल से दूर होती जा रही थी उतना ही अपनी सासू मां के करीब आ रही है।

चार महीने यूं ही गुजर गए, अब थोड़ा-थोड़ा अपने में ठहराव महसूस कर रही है त्रिवेणी उसे लगने लगा है कि घर को घर जैसे ही रहना चाहिए । वह सुबह निकलती है और शाम को घर आती है। मर्जी से थोड़ी बहुत चर्चा हुई धवल से अक्सर कोई बात नहीं होती, धवल अब ठहरकर मां और त्रिवेणी की बातें सुनता रहता है। पता नहीं वह क्या सोचता है लेकिन त्रिवेणी अब कुछ कुछ धवल की मानसिकता को समझ पा रही है।

त्रिवेणी को भी तो आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है, त्रिवेणी को लगता है कि उससे कोई गलती नहीं हुई, हमेशा लगता है धोखा दिया है उसे, फिर लगता उसके साथ ही ऐसा क्यों हुआ।

धवल शायद ऐसा नहीं कर पा रहा हो, हो सकता है उसका पौरुष आड़े आ रहा हो, अहम का जो कतरा ईश्वर ने पुरुष के जेहन में डाल रखा है वह जब तक खुद नहीं हटाओगे तब तक हटेगा भी नहीं।

त्रिवेणी ने बीच का रास्ता निकाला और धीरे-धीरे धवन से बातें शुरू की, पहले ड्राइंग रूम में उसने बातें शुरू की और फिर बेडरूम में भी वह इक्का-दुक्का बात करने लगी, शुरू में धवल हां, हूं मैं ही जवाब दिया करता, लेकिन धीरे-धीरे बातें शुरू हुई।

त्रिवेणी ने आठ दिन बाद यह सोचा कि क्यों न धवल के सामने एक अच्छे दोस्त बनने का प्रस्ताव रखें और एक-दूसरे के सुख-दुख के बारे में जानने के लिए एक दूसरे से बेझिझक बात कर सके, ऐसा रास्ता निकालने का मन बनाया।

त्रिवेणी बात कहां से शुरू करें की भूमिका बनाती रही और एक दिन बेडरूम में जब वह पहुँची तो देखा धवल कोई किताब पढ़ रहा है उसे लगा कि यह ठीक मौका है और बात करनी चाहिए।

“धवल जी, मुझे कुछ बात करनी है मेरी बात सुनेंगे क्या आप।

“हां कहो,”…धवल ने अपने सामने की बुक एक तरफ रखते हुए उसको देखते हुए पूछा।

त्रिवेणी ने पानी का जग एक तरफ रखा और काऊच पर बैठ गई।

“मैं सोच रही थी कि हम लोग पूरा दिन दफ्तर में रहते हैं वहां तो हम लोग सामान्य ही अपने दोस्तों से मिलते रहते हैं, घर आकर भी हमारी बात नहीं हो पाती तो क्यों न हम लोग सोने के पहले के दस मिनट एक दूसरे से दिनभर की दिनचर्या के बारे में बात करें, आप मुझे बताएं कि आपने दिन भर क्या किया, मैं आपको बताऊं कि मेरे साथ क्या हुआ, मुझे लगता है कि हम कुछ ऐसी बातें हैं जो अपने आफिस के दोस्तों से नहीं कर पाते और घर में बैठकर हम अच्छे से एक दूसरे से कह सकते हैं।”… त्रिवेणी ने बहुत ही सहज होकर अपनी बात कही और तकिया को उठाकर अपने पीठ के पीछे रखा इस समय वह लेटकर बात करना चाह रही है।

“हूँ, कोई बात बतानी हो तो कह सकती हो,”… धवल ने भी यह जता दिया कि वह बात करने के मूड में है।

“मेरे ऑफिस में न नया स्टॉप आया है हालांकि वह नये भी नहीं है लेकिन मध्यम उम्र के हैं, मेरे तो वह बॉस हुए, पता नहीं क्यों उनसे बात करते हुए मुझे झिझक सी होती है, उनके बोलने का लहजा कुछ अजीब है, हालांकि मैंने गौर किया है कि वह सभी के साथ इसी तरह बात करते हैं, पर मैं इस बात का जिक्र ऑफिस में किसी से नहीं कह सकती, समझ नहीं आता उनके साथ किस तरह का व्यवहार करू कि काम करना आसान हो जाये।”… त्रिवेणी ने अपनी बात रखी।

“यह कोई मुश्किल बात तो है नहीं, हम किसी के व्यवहार को अपने तरह तो नहीं बना सकते, उनका जो व्यवहार है उसी के तहत काम करना होगा, बहुत ज्यादा इस विषय पर मत सोचो, वह जैसे है उसी तरह काम करती रहो, धीरे-धीरे आदत हो जाएगी, हां अगर कोई अनुचित हरकत करते हैं तब तुम अपने बॉस से शिकायत कर सकती हो, मुझे भी बता सकती हो।”… धवन ने आज पहली बार वह उसके साथ है का इशारा दिया है।

“यह बात तो आपकी ठीक है, लेकिन कुछ असहज सा लगता है ऐसे में काम करना आसान नहीं होता लेकिन हां अगर आप कह रहे हैं तो मैं इसे सहज लूँगी, देखती हूँ कि वह अपनी सीमा में है तो मुझे कोई एतराज नहीं होगा,”… त्रिवेणी ने भी अपनी तरफ से धवल की बात पर मोहर लगा दी।

त्रिवेणी जब दो पल में ही धवल की बात पर सहमत हुई तो धवल के होटों पर हल्की सी मुस्कान आ गई, धवल को बहुत अच्छा लगा और उसने गौर से त्रिवेणी को देखा अभी तक जो भी देखा था वह ऊपरी तौर पर था और मन में इतना रंज और गुस्सा भरा हुआ था कि शायद गौर करना तो दूर, एक दूसरे से नफरत सी हो गई थी जैसे घरवालों की कोई गलती नहीं है इसमें धवल सोचता त्रिवेणी की गलती है, और त्रिवेणी सोचती धवन की ही गलती है, मजबूती से अपनी अपनी बात रख कर इस रिश्ते के लिए मना करना था,तब तो किया नहीं।

तब दोनों ही मना नहीं कर पाए और कहीं न कहीं जीवन को आगे बढ़ाने की चाह भले ही अनचाहे ही दबी दबी सी थी पर थी दोनों के ही अंदर, तभी तो माता-पिता के कहने पर दोनों ने इस रिश्ते के लिए हां की थी और अब इस रिश्ते को निभाने और समझने की बारी दोनों की है लेकिन दोनों ही एक दूसरे की उपेक्षा करने से बाज नहीं आ रहे थे।

क्रमश:..

2 thoughts on “पत्थर नहीं दिल है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *