परिधियों से परे
“तुमसे कितनी बार कहा है, तुम चली जाओ पार्टी में, मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकता”…प्रभास झल्ला पड़ा।
“क्यों’… क्या मेरी सफलता तुम्हें चुभने लगी।”
“मुझे क्यों चुभेगी, मैं कोई तुम्हारा गुलाम हूँ, रोहित है न तुम्हारे पास जो तुम्हारे इशारों पर नाचता है,”.. तल्खी से उसने कहा।
“देखो, विलावजह तो तोहमत लगाओ मत तुम, जानते हो कि हमारे बीच क्या रिश्ता है, जलते हो तुम, क्योंकि उसने मुझे हौसला दिया है, अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत दी है,”
“तुम कुछ भी समझों, मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगा बस।”
“आ गए ना अपनी वाली पर, कभी मेरे बारे में सोचा हैं, मैं कैसे तुम्हारे साथ ऐसी पार्टियों में जाती हूँ, और एक कोने में खड़ी रहती हूँ, तुम मंजुला के साथ बिजनेस मीटिंग में, वही होकर भी व्यस्त हो जाते हो, मैंने तो कभी तुम्हारे और मंजुला के बारे में कुछ नहीं कहाँ, तुम उसके इशारों पर भी नहीं नाचते,”.. विजया ने तर्क दिया।
“वह हमारा प्रोफेशन का मामला है, व्यक्तिगत कुछ नहीं,”.. प्रभास ने भी स्पष्ट किया।
“मेरा, तुमने कैसे व्यक्तिगत मामला बना दिया, तुम्हारे कहने पर मैं कैसे तुम्हारे संबंधों की सत्यता समझ लूं, जबकि तुम तो मेरे पहले कदम पर ही ऐसा व्यवहार कर रहे हो, मैंने तुम्हें ग्यारह वर्ष कैसे सहन किया,”.. विजया की सांस फूलने लगी, अपने संबंधों का स्पष्टिकरण देते खीज हो आई।
प्रभास चुप, उसे लगा, बात में दम तो है, जैसे मुझे महसूस हो रहा है विजया भी तो वैसे ही महसूस कर सकती है, उसने तो कभी मुझे कहा तक नहीं, इतना कुछ सहन किया है, वाकई मुझसे तो ज्यादा धैर्य है विजया में, वरना अभी तक तो जाने कितनी बार युद्ध हो गया होता, कुछ देर सोचता रहा, विजया भी मौन बनी रही। प्रभास अंदर गया और तैयार होकर आ गया।
“चलो चलते हैं पार्टी में,”…प्रभास ने अपनी टाई की गांठ ठीक करते हुए कहा।
“नहीं, अब मुझे नहीं जाना,”..विजया ने रुठकर कहा।
“देखो विजया, मैं समझ गया तुम्हारी बात को, क्या कहना चाहती हो, महसूस भी कर रहा हूँ, प्लीज अब चलो भी,”.. प्रभास ने स्वर में मनुहार का पुट ले आया।
“ठीक है,”.. कहकर विजया साथ हो ली, लेकिन उसका मूड खराब हो चुका हैं, इतनी छोटी सोच है प्रभास की, जबकि रोहित हमेशा, प्रभास के बारे में ही बातें करता रहता है, उसकी गलतियों को भी खूबी ही बना देता है, ऐसे में उसकी भावना का गलत अर्थ लगाना क्या प्रभास को शोभा देता है, मैं तो रोहित को सच्चा दोस्त ही मानती आ रही हूँ, जिसने मेरे व्यथित मन को कभी भटकने के लिए उकसाया नहीं, हमेशा ऐसा संभालता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ, जरा सी चोट पर टूट कर बिखर जाऊँगी।
आज पार्टी पर रोहित भी आया है, विजया के चेहरे के भाव को शायद उसने पढ़ लिया था।
“समस्या, अगर हल हो जाए तो सामान्य हो जाना चाहिए,”.. नजदीक आकर धीमें से बोला रोहित।
विजया होले से मुस्कुरा दी, अब उसे थोड़ी राहत मिली है, रोहित बिना बताए ही उसकी मन स्थिति जान जाता है, और प्रभास को बताने पर भी वह समझ कर, कभी-कभी नसमझ ही बना रहना चाहता है, कितना फर्क है दोनों में।
बहुत समय बच्चों के लालन-पालन में तो कुछ समय संधर्ष ओर प्रयास करने में बीत गया। विजया अच्छी कंपनी में चार्टर एकाउन्ट शिप कर रही है। प्रभास,अपने बिजनेस में मशगूल है। बच्चें अपनी-अपनी मंजिल की ओर अग्रसर हैं।
रोहित जरूर अब कुछ बुझ सा गया है, शायद अकेलापन उसे खलने लगा है। बहुत बार कह भी चुकी है, अपने लिए एक साथी चुन लो, हमेशा मुस्कुरा कर रह जाता है। विजया को उसकी फ्रिक होती है। ज्यादा दवाब डालती है ।
तो कह देता… “कहा से ढूँढ कर लाए।”
विजया को लगने लगा है कि यह काम भी उसे ही करना पड़ेगा, वह हर समय तलाश में लगी रहती, एक,दो जगह बातें भी कर चुकी है, लेकिन बात बनी नहीं।
विजया के ऑफिस में आई नई सहकर्मी को जब विजया ने पहली बार देखा तो मंत्रमुग्ध हो गई, हे ईश्वर क्या खूबसूरती दी है, जिससे वह बेपरवाह होकर अपने में मस्त रहती है।
विजया बहुत दिनों से रोहित को साथी किस तरह उपलब्ध करवाए की सोच में तो थी ही, अच्छी नौकरी करता रोहित अकेलेपन में ही हरदम रहना पसंद करने लगा है ।
जब तक विजया को उसके मन मुताबिक नौकरी नहीं मिली थी, तब तक विजया को हौसला अफजाई करता था, उसको धैर्य बंधाते रखने को कहता, ताकि विजया में आत्मविश्वास का संचार बना रहे ।
हालांकि आज भी दोनों मिलते हैं, प्रभास भी साथ होते हैं, किंतु कुछ नया नहीं हो पा रहा है, जिससे जीवन में एकरसता बढ़ती जा रही है।
आजकल विजया उसके आफिस मैं आई नई सहकर्मी क्रान्ति पर केन्द्रित है, क्रान्ति की उम्र भी मध्यम है, समझ तथा अनुभव की गहरी पैठ लिए वह जब चलती तो मानो हर कदम पहले से सोचा हुआ लगता है।
विजया से वह जरूरी ऑफिस की बात ही किया करती । विजया कोशिश करती की क्रान्ति से घुल मिल जाए, किंतु क्रान्ति के चेहरे की शांति, बात आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं करने दे रही है ।
एक दिन विजया ने कैंटीन में चाय पीने की दावत दे दी। सहर्ष क्रान्ति भी तैयार हो गई । चाय के साथ-साथ क्रान्ति के बारे में बहुत कुछ जाना, वह अनाथ आश्रम में पली बढ़ी और अब अपने पैरों पर खड़ी है, अपना कहने को आश्रम के साथी ही हैं, जिन्हें मिलने वह माह में एक बार जा पाती है, आर्थिक मदद भी करती है, यह सब उसने इतनी सहजता से बता दिया, मानो यह सामान्य बात है ।
विजया ने अपने दोस्त रोहित से मिलने जाने की बात क्रान्ति से की ओर कहा की वह भी साथ चले, पहले तो वह झिझकी, इस शहर मैं वह नई है, किसी से दोस्ती भी नहीं, असमंजस में है, लेकिन फिर विजया के अनुनय-विनय से साथ चलने के लिए मान गई ।
एक दिन शाम को क्रान्ति, विजया की गाड़ी में रोहित के घर के लिए निकल गई। बहुत कुछ वह रोहित के बारे में बता चुकीं हैं लेकिन पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं बताई। क्रान्ति भी जीवन को सुखमय बनाने का मन तो बनाये हुए हैं ही।
नजदीक चौराहे पर विजया को अपनी बेटी का कुछ सामान लेना है।वह चाहती है कि रोहित और क्रान्ति उसकी अनुपस्थिति मैं मिलें,
“यह सामने ही बिल्डिंग में, रोहित का फ्लेट नम्बर बीस है, तुम रोहित के घर पहुचों, मैं आती हूँ,”..विजया ने कहा।
“आपके साथ चलते तो ठीक था,”..क्रान्ति ने अनुरोध किया,उसे अजीब भी लगा रहा है।
“मुझे सामान लेने में वक्त लगेगा, फिर घर जल्दी भी निकलना है, समय क्यों बर्बाद करें, मैं आती हूँ, तब तक तुम रोहित से बात करना,” ..विजया समझाती हुए बोली।
अजीब तो लग रहा है क्रान्ति को , फिर भी अनमने मन से राजी हो गई। उसने पहले आसपास का जायजा लिया, सोसाइटी तो ठीक-ठाक है, चौथे माले पर महाशय का फ्लैट है, अनेक बुरे विचार घेरने लगे, स्वयं पर गुस्सा भी आया, कहाँ, यहाँ आने की हाँ कर दी।
क्रान्ति ने डोरबेल बजा दी, वह जानबूझकर इतने धीरे-धीरे चल कर आई है कि जब तक वह पहुँचे, कुछ देर बाद ही विजया भी आ जाए।
दरवाजा खुला, फ्रेंच कट दाढ़ी, गौरवर्ण काया, सुगठित शरीर, आँखों के नीचे कालापन, गले में झूलती टाई, एक हाथ से दरवाजे को थामे वह क्रान्ति को देखता रहा। क्रान्ति का भी यही हाल है, दोनों के बीच मौन व्याप्त रहा, कुछ देर बाद रोहित ही सम्हला।
“जी,”
“मैं क्रान्ति, मैं विजया जी के साथ ही आती, किंतु नीचे शाप पर उन्हें कुछ सामान खरीदने के लिए रुकना पड़ा और मुझे यहाँ इंतजार करने को कहा है,”..क्रान्ति एक ही सांस में वह बोल गई।
“आइए,”..कहते हुए रोहित अन्दर मुड़ गया।
ड्राइंग रूम था तो सुंदर, किंतु अव्यवस्थित, सोफों पर कपड़े पड़े हैं, उन्हें उठाकर, दूसरे रूम में ले जाते हुए, रोहित के चेहरे पर झेप आ गई। लौट कर आया तो पानी साथ ले आया।
क्रान्ति, कमरे का मुआयना करने लगी, लगता है बीवी मायके गई होगी, तभी घर की यह हालत है। विजया ने कभी बताया नहीं, रोहित के नाम से ही परिचित हैं जो विजया का दोस्त है।
“आप क्या, विजया के साथ काम करती हैं ?” रोहित पानी की ट्रे को टेवल पर रखते हुए पूछा।
“जी,”..
नजरें झपकाकर जब क्रान्ति ने रोहित की तरफ देखा तो वह पुनः बात करना भूल गया। इस बार क्रान्ति ने पहल की..
“आप अकेले रहते हैं, मेरा मतलब घर वाले कहीं गए हैं क्या?”
“घर यह है, घर वाला में, बस,”.. रोहित ने खिलंदड़ी से जबाव दिया।
ओह! साॅरी… मेरी बात से आपको ठेस तो नहीं पहुँची।”
“नहीं-नहीं, यह तो मेरी रोज की दिनचर्या में शामिल है।”
“बहुत देर लगा दी विजया जी ने, मैं देखती हूँ नीचे जाकर,”..पहलु बदलते हुए क्रान्ति बोली।
“आप बैठिए, आती ही होंगी,”.. रोहित ने कहा।
बहुत अजीब लग रहा है क्या बात करें,क्रान्ति सोच रही है।
“आप इस शहर में नई आई है।”
“जी।”
“इसके पहले कहाँ जाॅब था।”
“इलाहाबाद में।”
“यह शहर कैसा लगा।”
“शहर तो सभी एक से होते हैं, यह तो हम पर निर्भर करता है कि हम उससे कितना जुड़ पाते हैं,”.. सपाट सा उत्तर दिया।
“सही कहा आपने, किंतु अगर कोई अपना किसी शहर में रहता है तो वह शहर कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता है।”
“इस बात का अनुभव मुझे नहीं है, शायद ऐसा होता होगा,” क्रान्ति ने अनभिज्ञता व्यक्त की ।
“आपके परिवार वाले तो होंगे।”
“जी नहीं, मैं अनाथ हूँ, अनाथ आश्रम ही मेरा घर परिवार रहा है।”
“ओह सॉरी, मैंने आपको दुखी कर दिया।”
“नहीं, इसमें दुख की क्या बात है, यह सब हमारे हाथ में नहीं होता।”
“आप में आक्रोश नहीं है, इन परिस्थितियों से।”
“नहीं, मैं सोचती हूँ, कई लोग परिवार के साथ रहकर भी अकेले हैं उनसे तो बेहतर स्थिति है मेरी,”..क्रान्ति ने कहा।
इसी समय विजया आ गई, और तीनों बातों में मशगूल हो गये, एक दूसरे के फोन नम्बर ले लिए गए, जब दोनों जाने लगी तो रोहित ने पुनः आने को कहा।
दिन गुजरने लगे, मुलाकातें बढ़ी, एक दूसरे को रोहित और क्रान्ति बहुत अच्छे से समझने लगे, फिर भी विजया को बहुत समय तक कोई इशारा नहीं मिला ।
“रोहित अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए,”..एक दिन विजया ने रोहित के आगे शादी का प्रस्ताव रखा।
“किससे करु?”
“क्रान्ति से,ओर किससे।”
“क्या कह रही हो,”..हैरान हो बोला रोहित।
“पसंद नहीं है क्या?”
“ऐसी बात तो नहीं।”
“तो समझूँ, क्रान्ति पसंद है ।”
“अरे विजया, क्रान्ति भी मुझे पसंद करती है या नहीं,एक तरफा पसंद कोई मायने नहीं रखती”.. बैचैन हो बोला रोहित।
“वह मैं पूछ लूँगी, तुम्हारे भरोसे नहीं रहना मुझे, समझे।”
प्रभास का सुझाव है कि क्रान्ति से भी पूछ लो, थोड़ा भी सकारात्मक पहलू नजर आता है तो पहल करने में कोई बुराई नहीं है, विजया प्रभास के प्रोत्साहन से क्रान्ति से भी पूछने के लिए तैयार हो गई।
“विजया, रोहित, को पसंद करती हूँ, किंतु यह नहीं जानती कि शादी करके ही इस पसंद को सही परिणीति मिलेगी,”.. क्रान्ति ने विजया से पूछा।
“साथ रहने व साथी बनाने में अगर दोनों को एतराज न हो तो शादी करना बेहतर होता है, यह दो समझदार जिंदगियों की सही परिणीति मानी जाती है क्रान्ति,” विजया ने दार्शनिक बिंदू को छू लिया।
विजया चाह रही है कि किसी भी तरह रोहित और क्रान्ति एक साथ रहने को राजी हो जाए, वह अपने दोस्त के दर्द को भी समझती है और क्रान्ति के जीवन के एकाकीपन को भी।
थोड़ा समय लगा और थोड़ी मेहनत, समझ को विकसित करने में, दोनों को तैयार कर विजया, प्रभास ने कोर्ट मैरिज करवा दी। छोटी सी पार्टी भी रख ली। सभी प्रसन्न हैं।
विजया को भी रोहित के अकेलेपन की चिंता नहीं रही। एक सच्चे दोस्त को, पवित्र दोस्ती का जामा पहनाकर, परिधियों के तटबंधों को तोड़, विजया राहत महसूस कर रही है। प्रभास और उन्मुक्त हो गया हैं, नये उत्साह के माध्यम उपलब्ध होंगे, वही जीवन में रोचकता का संचार होगा, और साथ ही दोस्तों की जमात में नया, व प्यारा दोस्त क्रान्ति के रुप में शामिल भी हो गया है।
© अंजना छलोत्रे