महिला की दशा क्या है और दिशा कहाँ ?

एक दिन महिला दिवस मनाना कितना सार्थक है यह महिलाओं को तय करना होगा। किसी भी परिपाटी को लेकर आने से पहले सम्पूर्ण बातों को गौर करना था एक दिन ही क्यों ? तमाम उम्र क्यों नहीं सम्मान किया जाये?

राष्ट्र, समाज और परिवार की मज़बूत कड़ी महिला है यह सब जानते हुए भी अगर महिलाओं को घरेलू हिंसा, बाहरी आचरण, और महिलाओं को बहुत छोटा आंकने का जो पुरुष का नजरिया है किस हद तक सही है और यह नजरिया दिया किसने, कहीं भूल से या अनजाने में ही तो कहीं गलत दिशा दिखाकर आज नारी खुद कठघरे में खड़ी हो गई है।

हमारे देश में महिलाओं कि सामाजिक स्थिति में सकारात्मक परिवर्तन करने के लिए अनवरत प्रयास होते रहे है, इन प्रयासों में एक ओर राजनीतिक एवं सवैधानिक प्रयास सम्मलित है तो दूसरी और अनेक शिक्षामंत्री, सामाजिक संगठन, साहित्यकार एवं पत्रकारों का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा है, प्राचीन काल से ही स्त्रियों कि सुरक्षा उनके सम्मान की चिन्ता और उनके नैतिक एवं चारित्रिक आदर्शों के संबंध में प्राचीन ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है लेकिन समय-समय पर राजनैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में उथल-पुथल के कारण नारी सम्मान को ठेस भी लगती रही है। अनेक धर्म सूत्रों एवं स्मृतियों में स्त्री धर्म की व्याख्या एवं उनके लिए निधारित आदर्शों की चर्चा होती रही है। इन ग्रंथों में मनुस्मृति, कौटिल का अर्थशास्त्र, सूत्र साहित्य, उपनिशद एवं पुराण साहित्य आदि प्रमुख है । वैदिक धर्म के अलावा जैन धर्म और बौद्ध धर्म संबंधि साहित्य में भी स्त्रीयों के लिए आदर्श चरित्र का उल्लेख, स्पष्ट रीति से किया गया है।

भारतीय सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण प्राचीन धर्म ग्रन्थों के दिशा निर्देशों में भी निरन्तर परिवर्तन होते रहे है, इन परिवर्तनों में सल्तनत काल, मुगल काल ब्रिटिश शासक काल के दौरान जो परिवर्तन हुए उन्होंने भारतीय नारी के जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया।

10 वीं, ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर समूचा मध्यकाल और आधुनिक काल अनेक ऐसे उदाहरणों से भरा है। जहाँ नारी सम्मान और उसके गौरव को भारी क्षति उठानी पड़ी है, सती प्रथा इन उदाहरणों में सर्वाधिक चर्चा का विषय रही, इसके अतिरिक्त देवदासी की प्रथा बाल विवाह ‘बालिकाओं’ के प्रति दुराग्र, महिलाओं के विरूद्ध अपराध, सम्मति संबंधी अधिकारों में भेदभाव, विधवा जीवन की यातणाएँ आदि अनेक आयाम महिलाओं की सामाजिक स्थिति के संबंध में विचारविध विषय है।

19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अनेक समाज सेवी संस्था तथा विचारकों ने महिला उद्धार संबंधि विषयों को महत्व देना प्रारम्भ किया, अँग्रेजी साहित्य, के प्रचार-प्रसार के कारण भी इस दिशा में जनजागरण का श्री गणेश हुआ जिसकी झलक सुधारवादी आंदोलनों में दिखाई देती है। आर्य समाज, ब्रह्म समाज और इसी प्रकार के अन्य संगठनों ने नारी जाति के गौरव की पुनः प्राप्ति के लिए प्रयास किये, प्रयासों में राजाराममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षी अरविंद, महात्मा गाँधी आदि अनेक संत एवं सुधारकों के नाम महत्वपूर्ण है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में स्त्रीयों के समान अधिकारों की गूंज सर्वत्र सुनाई देती है। ब्रिटिश शासन काल में अनेक विधान स्त्रीयों की सामाजिक स्थिति को सुदृढ़ करने की मनसा से बनाये गये। सति प्रथा पर रोक लगाने का कानून भी इस दिशा में एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है, लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व तक इन सभी प्रयासों का प्रभाव कुछ स्थानों तक ही सीमित रहा और समाज के शिक्षित वर्ग तक ही इन विचारों की पैठ हो सकी।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सर्वाधिक ध्यान स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुदृढ़ करने की ओर गया और भारतीय संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान सम्मिलित किए गये जिनके द्वारा स्त्रियों को न केवल समान अधिकार प्राप्त हो सके वरन् उन्हें एक सम्मानजनक स्थान भी समाज में प्राप्त हो सके। संविधान में ये घोषणा कि गई की जाति और लिंग के आधार पर स्त्री पुरूषों में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होगा, और स्त्रियों को भी पुरूषों के समान सभी प्रकार के अवसर प्राप्त होगे। समय-समय पर संविधान की भावना के अनुरूप केन्द्र सरकार ने अनेक महिला योजनओं का क्रियान्वयन किया है और अनेक क्रांतिकारी कानून भी पारित किये है, देश कि अनेक महिलाओं के राजनैतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में सर्वोच्चय पद प्राप्त हुए और राजनैतिक क्षेत्र में आज अनेक महिलाएँ सफलता के मानदण्ड स्थापित कर रही है ।

यह भी एक सच्चाई है कि महिलाओं का बहुसंख्यक वर्ग शोषण और भेद-भाव से मुक्त नहीं है, वैधानिक प्रावधानों का प्रभाव शिक्षित महिलाओं के छोटे से वर्ग तक ही सीमित है, इस संदर्भ में समाचार पत्र और पत्रिकाओं से बहुत बड़ी अपेक्षाएँ थी और जनजागरण के क्षेत्र में पत्र पत्रिकाओं की भूमिका के प्रति बड़ी-बड़ी आशाएँ थी, पत्र-पत्रिकाओं की पहुँच भी बढ़ी है और उनका प्रभाव भी बढ़ा है लेकिन यह तथ्य स्पष्ट है कि जो जन-जागरण सामाजिक राजनैतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में दिखाई देता है वह स्त्रियों के सामाजिक जीवन में कही दृष्टिगत नहीं होता, कभी-कभी तो यह आभास होता है कि देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ-साथ या उससे आर्थिक गति के साथ स्त्रियों के सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन में सर्वत्र क्षरण ही दिखाई देता है ।

आज स्त्रियों के विरूद्ध हर प्रकार के अपराधों में वृद्धि हो रही है। उनके विरूद्ध हिंसा और शोषण की घटनाएं भी बढ़ रही है। शिक्षित स्त्रियाँ भी अपराध शोषण और उपेक्षा का शिकार हो रही है

वर्ष 2000 में राष्ट्रिय महिला आयोग कि रिपोर्ट के अनुसार स्त्रियों के विरूद्ध अपराधों में हो रही वृद्धि की चर्चा है। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार राज्य में दहेज उत्पीड़न के प्रकरणों में 42.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। तमिलनाडू राज्य में बालिकाओं और स्त्रीयों के शोषण की घटनाओं में 68.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई, इसी प्रकार म.प्र. में महिलाओं सये छेड़छाड़ के प्रकरणों में 23.5 प्रतिशत और उत्तरप्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के अपहरण संबंधि प्रकरणों में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त महिलाओं को उनके पतियों या रिश्तेदारों द्वारा प्रताड़ित करने वाली घटनाओं में भी 12 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है । इसी रिपोर्ट में ये कहा गया है कि कार्य स्थलों, या कार्यालयों में काम करने वाली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बल प्रयोग कि घटनाओं में 6.8 प्रतिशत से अधिक महिलाएँ पीड़ित रही है और 25 प्रतिशत से अधिक महिलाएँ अश्लिल व्यवहार से प्रताड़ित है, अकेले 1998 के वर्ष में पूरे देश में 15 हजार से अधिक बलत्कार के प्रकरण दर्ज किए गये थे, जब कि अधिकांश प्रकरण बाहुबलियों के डर के कारण और के डर के कारण और लोक लाज के कारण दर्ज नहीं किए जाते।

2019 से शुरू हुआ कोरोना महामारी ने अपने विस्तृत पैर साल 2020 में फैलाकर ऐसा दुखदाई घाव दे गया जिससे अभी भी दुनिया उबर नहीं पाई है। बीते साल में लोग लॉकडाउन जैसी पाबंदियों से जूझते रहे। इस दौरान बच्‍चे और महिलाओं को काफी परेशानियाँ हुईं। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। समाचार एजेंसी पीटीआई ने राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों के हवाले से घरेलू हिंसा को लेकर सनसनीखेज जानकारी दी है। रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय महिला आयोग को वर्ष 2020 में पिछले छः सालों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा कि सबसे अधिक शिकायतें मिलीं।

एनसीडब्ल्यू के आंकड़ों के अनुसार, 23,722 शिकायतों में से करीब एक-चौथाई घरेलू हिंसा के मामलों की हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों के मुताबिक सर्वाधिक शिकायतें उत्तर प्रदेश से आई हैं। उत्तर प्रदेश में 11,872, दिल्ली में 2,635, हरियाणा में 1266 और महाराष्ट्र में 1188 मामले दर्ज हुए हैं। इनमें से कुल 5,294 शिकायतें घरेलू हिंसा के हैं। 23,722 शिकायतों में से 7708 शिकायतें गरिमा के साथ जीवन के अधिकार के तहत की गई है।

राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने उस समय बताया कि आर्थिक असुरक्षा, तनाव के बढ़ते स्तर, चिंता, वित्तीय परेशानियाँ और परिवार से कोई भावनात्मक सहयोग नहीं मिलने के चलते वर्ष 2020 में घरेलू हिंसा के मामले बढ़ गए हैं। उन्होंने बताया कि दंपती के लिए आजकल घर ही दफ्तर भी बन गया है। बच्चों के भी स्कूल और कालेज घर से ही खुल गए हैं। ऐसी सूरत में एक ही समय में महिलाएँ घर और दफ्तर साथ-साथ संभाल रही हैं। इसीलिए छह सालों में सर्वाधिक शिकायतें पिछले साल ही दर्ज की गई हैं। इससे पहले वर्ष 2014 में 33,906 शिकायतें दर्ज की गईं थीं

बीते दिनों देश के 22 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट आई थी। इसमें कहा गया था कि पांच राज्यों की 30 फीसद से अधिक महिलाएँ अपने पति द्वारा शारीरिक एवं यौन हिंसा की शिकार हुई हैं। सर्वे में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे बुरा हाल कर्नाटक, असम, मिजोरम, तेलंगाना और बिहार में पाया गया था। समाचार एजेंसी पीटीआइ की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वेक्षण में 6.1 लाख घरों को शामिल किया गया था। 

समाचार पत्र पत्रिकाओं को बिना बर्दी की पुलिस समझा जाता है और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि न केवल पत्र पत्रकाएँ सामाजिक, शिक्षा, जन जागरण का कार्य करेगी वरन् दोषी अपराधियों को दण्ड दिलाने में भी निर्भिक भूमिका अदा करेगी। अपनी बेबाक और संवेदनशील लेखनी के द्वारा समाचार पत्र एवं पत्रिकाएँ पुलिस की न्याय प्रणाली के समान ही सामाजिक विकृतियों के निराकरण में निर्णायक भूमिका अदा करेगी। आज इस प्रकार के सामाजिक शोध की अत्यन्त आवश्यकता है कि हमारी संस्थाएँ किस सीमा तक मानवीय मुल्यों की रक्षा करने में समर्थ है और इस दिशा में उनकी भूमिका में किस प्रकार के प्रयासों की और परिवर्तन की आवश्यकता है।

विगत 75 वर्षों में स्त्रियों के सामाजिक जीवन में वांछित परिवर्तन लाने की दिशा में समाचार पत्र पत्रिकाओं कि भूमिका का एक निष्पक्ष आंकलन किया जाये ताकी आधुनिक युग में हो रहे परिवर्तन का लाभ नारी समाज को भी यथा शीघ्र प्राप्त हो सके। समाचार पत्र, पत्रिकाओं कि महिला विषय सामग्री का मूल्याकन तथा प्रकाशित सामग्री की साहित्यिक गुणवता एवं उसके प्रभावशाली स्वरूप का भी अंकलन करना होगा।

मुख्य मुद्दा है कि बचपन से ही लड़कों को लड़कियों कि इज्जत करना, सम्मान करना एवं उनके सुरक्षा के लिए हरदम तैयार रहने जैसी आदत डालनी होगी और कहीं भी इस तरह के अपमानजनक दृश्य देखने को मिले तो डटकर मुकाबला करने का हौसला देना होगा, तभी समज के नवनिर्माण में पुरुषों की मानसिकता बदल सकने में सक्षम हो सकेंगे, यहाँ पर भी सबसे बड़ा रोल महिलाओं का ही होगा जो अपने बेटे को यह शिक्षा देंगी, आने वाली पीढ़ी में दृढ़ संकल्प लेकर उस पीढ़ी को सक्षम और समझदार बनाने का बीड़ा उठाना होगा।

©A

000000

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *