(2) मेरे घर आना जिंदगी Come to my home life

“भौजी काहे मिलने जा रही हो, कोर्ट-कचहरी का मामला बनेगा, उम्र निकल जाती है, एड़ियाँ रगड़ते-रगड़ते, पर कानून नहीं पसीजता, फिर तुम पर कौन से कमाई के साधन हैं, खेत से कुछ उगेगा तभी तो कुछ पा सकोगी, वरना खाने के भी लाले पड़ जायेंगे, रतन था तो बात अलग थी, वह खेतों में काम कर लिया करता था, अब खेतों की बुआई, निदाई, गुडाई, अनाज कौन निकालेगा? अपनी काया को भी देखो, इतना काम का बोझ नहीं सह सकती, पैसा बचा कर रखो तो काम आयेगा।”… राम भरोसे ने आखिरी बार अपनी बात कहके घर के बाहर चला गया।

किसके लिए और क्यों बचाए वह, एक सहारा है उसका मुँह देखकर जी लिया करती हूँ। उसे ही देखने न जाऊँ, सोचकर ही केश्वर का मन भारी हो गया, क्या विडम्बना है ईश्वर तेरी? बेटा दिया तो घर में हाथों हाथ ली जाने लगी थी मैं, आज उसी बेटे की करतूत से घर, गाँव में तो क्या, अपने चेहरे को आईने में भी देखने से घबराती हूँ।

यात्री प्रतीक्षालय के पास एक बस आकर रूकी। चहल-पहल बढ़ गई।
केश्वर उठकर कंडक्टर के पास गई ।

“भैया क्या यह बस कटफोरा जाएगी?”…केश्वर ने कंडक्टर से पूछा।

“नहीं,”… यात्रियों को आवाज लगाता कंडक्टर बोला।

केश्वर वापस उसी पेड़ के तने के पास बैठ गई, यादों की कड़ियाँ फिर जुड़ती चली गई, रतन के बापू को गुजरे बारह बरस हो गए, तब से अपने बाजुओं के बल पर रतन को पाला-पोसा, अभी दो बरस से रतन ही पूरा घर, बाहर का काम देख रहा था, कितनी बेफिकर हो गई थी वह, बस एक प्यारी सी बहू को लाने के सपने देखने लगी थी, पड़ोस के गाँव के बदरीदास की लड़की, गाँव में अपने मामा के घर ब्याह में आई थी, तभी से उसे वह लड़की अपने रतन के लिये भा गई थी, कितनी अच्छी लगती है वह, लेकिन अगर ब्याह कर देती तो आज उसकी जिंदगी नर्क हो गई होती, सोचकर ही केश्वर की रूह कांप गई, जो होता है ईश्वर ठीक ही करता है, ऐसा सोचते ही अपनी सोच को हल्का झटका दिया।

सड़क पर दूर तक नजरें दौड़ाईं कहीं बस नजर नहीं आ रही, बैठे-बैठे न जाने कितना समय गुजर गया, ये बस भी क्या आज ही देरी से आयेगी, मेरी ही जान के सब दुश्मन हैं, जाने क्यों मेरी जरा सी भी खुशी किसी से देखी नहीं जाती, सोचती हुई केश्वर ने हाथ में पकड़े दो डब्बे के टिफिन की तरफ देखा और धीरे-धीरे उस टिफिन पर हाथ फेरने लगी, उसे ऐसा करके बेटे की मौजूदगी का आभास हो रहा है, मानों अपने हाथों से दुलार करके बेटे को भोजन कराने के साथ सिर पर हाथ फेर रही हो।

कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद धूल उड़ाती हुई बस की धड़ धड़ आती आवाज सुनाई दी, केश्वर अपना टिफिन संभाली बस में चढ़ गई खिड़की वाली सीट मिल गई।

पहले केश्वर को खिड़की की तरफ बैठना अच्छा लगता था, दौड़ते-भागते, पेड़-पौधे, खेत-खलिहानों को देखना उसे हमेशा से रूचिकर लगता, मानो वह उन सबको पीछे छोड़कर अकेली आगे भागी जा रही है, पीछे छूटते दृश्य को पछाड़ने का भाव उसे गदगद कर दिया करता, लेकिन अब तो लगता है कि कितना ही पीछे छूट जाये ये सब, वह अब उस रफ्तार से नहीं दौड़ पायेगी,वह उमंग-उत्साह जाने कहाँ जा छिपा है जिसके रहते अपने बेटे के साथ जिंदगी गुजारने का हौंसला रखती थी वह।

बस की खटर-पटर, कान फोड़ने के लिए काफी है, लेकिन केश्वर को आज कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा है, वह जानबूझकर बाहर नजरें गड़ाए है। अंदर बस में कोई जानी-पहचानी सूरत दिख गई तो उसका सामना कैसे करेगी, रात-दिन, उठते-बैठते कोई न कोई ”कातिल की माँ“ का फिकरा कस ही देता है, अब तो आदत सी हो गई है, लेकिन आज वह कोई भी बात नहीं सुनना चाहती, बस अपने बेटे के साथ बिताए पलों का स्मरण करना चाहती है। पिछली यादें जहाँ टीस दे रही हैं, वहीं मन को भली भी लग रही हैं, रतन की शरारतें याद आ रही हैं, जब वह गाय के बछड़े को पूरे आँगन में दौड़ाता तो केश्वर पहले उसे डांटती फिर खुद ही द्वार पर बैठकर बेटे को कूदते-भागते देखकर मोहित होती रहती, पूरे घर में बछड़े के घुंघरू और रतन की किलकारी गूँजती।

उसे आज लग रहा है कि हो न हो जी भर के देखने के कारण उसी की नजर रतन को लग गई, पर इतने वर्षो तक नजर क्या लगी रही ? बड़ा हुआ तो कत्ल तक बात पहुँची कैसे? मच्छर न मार सकने वाला रतन ने पूरा का पूरा नौ इंच का चाकू ही हरिया के पेट के अंदर घोंप दिया था और आज तक यह नहीं बताया कि, उसने ऐसा किया क्यों? पूछ-पूछ के हार गई, केश्वर, लेकिन मजाल कि जो रतन एक बोल भी बोला हो, उसके मौन रहने से पुलिस वालों ने भी उसे पक्का कातिल समझ लिया, जाने क्यों रतन इतना ढीट हो गया, कुछ बोलता ही नहीं, इस बार प्यार-दुलार से पुछूँगी, शायद बता दे।

छोटा से गाँव में बस रूकी तो केश्वर की तन्द्रा पुनः टूट गई। आज रह-रह कर वह यादों में भटक जाती, बस चली तो फिर वह यादों में जा समाई, कुछ दिनों से रतन अपने कपड़े व बालों को सलीके से काढ़ने लगा था। होंठ गोल करके सीटी बजाता, गले में मफलर डालकर जब वह घर से निकलता, तो केश्वर का दिल बलिहारी जाता, ईश्वर से प्रार्थना करती थी इसको बुरी नजरों से बचाकर रखना, मेरे जीवन का यही तो सहारा है, पूरा गाँव भी तो केश्वर को बेटे की जवानी की दुहाई दिया करता था।

‘‘कब ब्याह करोगी काकी?’’…गाँव वाले उलाहना व्यंग्य से देते तो केश्वर इठलाकर रह जाती।

“कर देंगे, जल्दी क्या है? अभी तो रतन ही तैयार नहीं है।”…जाता हुआ व्यक्ति पलटकर सवाल ही नहीं करता।

चलते-चलते केश्वर से गाँव वाले बस इतनी ही बात कर लिया करते थे। जब से रतन ने कत्ल किया है, तब से घर के सामने से गुजरने में लोगों को अपशगुन लगता है, बहुत टूट गई है केश्वर, एक अफसोस भरी ठण्डी आह के साथ ही आँखें गीली हो आईं, मानों रेत में जल तो है, लेकिन इतना नहीं कि वह सूर्य की तीखी किरणों से रेत को सूखने से बचा ले।

केश्वर ने खाने के डिब्बे की तरफ देखा खाने के डिब्बे पर हाथ का कसाव और बढ़ गया, मानो अब की बार अपने बेटे का हाथ वह नहीं छोड़ेगी।

एक धचके के साथ बस रूकी, शहर आ गया था, केश्वर ने संभल कर कदम आगे बढ़ाए।

रिक्शा कर, उस पर बैठकर केश्वर को लगा कि शहर की गलियों का सीना चीरती वह बेधड़क बढ़ रही है, उसे लग रहा है जैसे… ऊँचे आसन पर बैठाकर, लोगों को बताया जा रहा है कि देखो,..यह उस कातिल की माँ है, जिसने बेरहमी से एक निर्दोश का कत्ल कर दिया, अच्छे से देख लो इसे यह वही माँ है। यह गूंज जब लगातार केश्वर को चुभने लगी तो उसने खाने के डिब्बे को गोद में रख दोनों हाथों से कान बंद कर लिए, आवाज धीरे-धीरे धीमी पड़ने लगी, केश्वर पसीने से तर हो गई।

मेरे घर आना जिंदगी Come to my home life

क्रमश: 3

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