वरेच्छा का सच
चाहत जाने
कब जवान होने लगी ?
सपनों की एक
पोटली बंधी श्रृंगारदानी
प्रसाधनों से भर गई।
कितनी ही बार
बेख्याली में मुस्कुराई
आँखों में
शबनमी रुत उतर आई।
लाज से दोहरी
हो हो गई
आगे-पीछे तो
कभी तिरछी हुई
हर कोण से निहारा स्वयं को,
कहीं से भी तो
बुरी नहीं लगी
अपने को ही भा गई।
मासूमियत
गवाही बन गई
आज फिर कोई
देखने आया
मन मुस्काया
यह अनुभव अनोखा था,
खुशी के साथ
लाज का पहरा
परन्तु झूठ कुछ ज्यादा
चाशनी चढ़ा गई।
इतनी तारीफ
गले से उतर नहीं रही
खटका-सा
मन में आ गया
सारी खुशीयाँ
कपूर हो गईं।
हवा में खुशबू
बिखर रही थी,
बात कैसे बनेगी वहाँ
सब कुछ
दिखावा हो जहाँ
यही बात तो समझ भाई।
©A