सिकन्दर
तुम जानते हो न
इबादत और
आरज़ू के मध्य
फासला नहीं होता,
फिर कहाँ खो गया
मेरे अरमानों का परकोटा ?
क्यों थाम नहीं लिया
उन गुजरते हुए पलों को ? ?
रोक ही लेना था
जाते हुए को
आँचल में भर लेते
गगन के तारे
और समेट लेते
रात के अंधेरे।
सुबह की बाट कौन देखता
अपना आकाश
अपनी मंजिल गढ़ लेते खुद ही,
सुकून की लम्बी
चादर ओढ़कर
चैन से सो लेते
नींद अपनी।
मनचाहे सपने चुनते बुनते
इस जहाँ के
राज्य का ताज
दरबारी, पहरेदार
कौन किस के हम हकदार ?
चारों ओर बंधी हैं
सिमाएँ अपरम्पार
न घात न आघात
हम सिकंदर
हम आजाद।
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