स्पर्श: विधिवत उपचार भी एहसास भी Touch: Property too feeling

‘स्पर्श’ शब्द को स्मरण करते ही सर्वप्रथम जो कुछ होता है, उससे मन कल्पनाओं से भर उठता है । मन रुपी चट्टान पर जमीं यादों की परतें, जब एक-एक कर खिसकती हैं, तो कभी मन हल्का हो उठता है, तो कभी भारी, कभी बोझिल, तो कभी डर मन में अंगडाई लेने लगता है, तो कभी मन खुशी से झूम उठता है, अगर हम बोर करने वाले या कहें दहशत वाले कटु अनुभवों को, डरावने अनुभवों को तिलांजली देकर सुखद एहसासों के बारे में केवल सोचें तो मन अनायास ही मधुर कल्पनाओं से भर उठता है।

समय-समय पर पात्र बदल जाते हैं। एहसासों के माप दण्ड भी बदलते तो हैं मगर अनुभव हमें जिन्दगी भर गुद गुदाते रहते हैं । उस क्षण की यादें हमें जीने की प्रेरणा देती है। कुछ बनने की राह सुझाते है। किसी के लिए मर मिटने की मन में आश सी जगती है । किसी के होकर किसी के लिए जीने की कल्पना ही अपने आप में एक रोमांचक अनुभव, एक अदभुत आभास होता है।

जब भी कभी आदमी कमजोर पड़ने लगता है निजी, पारिवारिक समस्याएँ उसे परेशान करने लगती है, आंतकित करने लगती है, तब जिंदगी का मधुरतम लम्हा उसे टूटने बिखरने से बचाता है। प्रेरक बनकर, ढाल बनकर जिंदगी की उलझनों के बीच आ खड़ा होता है।

सवाल उठता है यह ‘‘स्पर्श” का आभास है क्या ? किसी टोने टोटके का नाम ‘‘स्पर्श’ है, या फिर कोई जादूगरी। ‘स्पर्श’ न तो कोई टोना-टोटका है न ही जादू । यह तो सिर्फ आभास होता है, महसूस किया जाता है जो कभी वात्सल्य रस से परिपूर्ण होता है, जो माँ बाप और अभिभावकों द्वारा बच्चों को प्राप्त होता है। जब भी कभी माँ बाप बड़े ही प्यार से आत्मविभोर हो अपने बच्चे के सिर पर हाथ फेरते है, उनका आलिंगन करते है, उन्हें चूमते हैं, तो बच्चे की खुशी का ठिकाना नहीं रहता, उसका रोम-रोम किलकने लगता है, वह खुशी से निहाल हो जाता है। सुरक्षा की भावना से उसी तरह संतुष्ट हो जाता है जैसे ‘चूजा’ मुर्गी के सान्निध्य में उसके पंखों के नीचे छुपकर स्वयं को महसूस करता है।

इसी प्रकार जब कोई गुरु, प्रोफेसर, संत, महात्मा, गरु, ऋषि मुनि, ज्ञानी अथवा महान व्यक्ति,महिला, विद्यार्थी अपने अनुचर के सर पर हाथ रख देता है तब सामने वाले को अपना जीवन धन्य हुआ सा लगनेने लगता है। उसे लगता है उसका यज्ञ सम्पू्र्ण हुआ, उसकी मेहनत सफल हुई । उसकी याचना स्वीकार हुई । वह स्वयं को एक काबिल एंव सफल इंसान समझने लगता है । उसे लगने लगता है कि ज़िन्दगी की बहुत बड़ी जीत हासिल की है । पाप और पुण्य के बीच उसे पुण्य का पलड़ा भारी हुआ सा महसूस होने लगता है और इतनी सोच काफी होती है उसे मानसिक तनावों ,एवं मनोविकारों से छुटकारा दिलाने के लिए, अपनी हीन भावना से मुक्ति पाने के लिए ।

वृद्धवस्था में तो स्पर्श अनुभवों की नितान्त आवश्कता होती है । जीवन के अन्तिम पड़ाव में जब आदमी स्वयं को नितान्त अकेला महसूस करने लगता है और खाट पर पडे-पडे तारे गिनने की कोशिश करता है । तो ऐसे में कोई व्यक्ति प्यार से उसे स्पर्श करता है कहता है- ‘‘उठो चाय पी लो’’ या फिर कोई बच्चा प्यार से हाथ पकड़ कह उठाते हुए कहता है कि – ‘‘दादाजी उठो न, कहानी सुनाओ न’’ तब वह मानो जैसे मरते-मरते जी उठा है, जैसे बच्चे ने अपनी मधुर वाणी से संजीवनी ही घोलकर पिला दी हो।

इसी प्रकार किशोरावस्था के आते ही हृदय मन रुपी हिण्डोले पर सवार होकर झूलने लगता है। उसे सब कुछ अच्छा लगता है। नदी तालाब, झरने की कलकल, पक्षियों का चहचहाना आदि किन्तु सबसे ज्यादा भाता है दोस्त, सहेली या कोई अपने के होने का अहसास।

अनुभवों से सिद्ध हुआ है कि जब भी कोई व्यक्ति मानसिक रोगी व्याधि, उन्माद, मेनिया, काम भावनाओं या फिर किसी जटिल सामाजिक व्यक्तिगत पारिवारिक उलझनों से ग्रसित हुआ है तब उसका “स्पर्श चिकित्सा’’ द्वारा सर्वोत्तम एवं कारगर इलाज किया जा सका है।

“स्पर्श” चिकित्सा पूर्ण रुप से न तो विज्ञान है और न ही कला। वरन अनुभवों एवं व्यवहार के आधार पर की जाने वाली चिकित्सा है। जिसका तात्कालिक असर या प्रभाव ग्रसित व्यक्ति पर होता है। वह अपने आपको काफी हल्का, एवं आरामदायक महसूस करने लगता हैं। उनका मन उमंगों से भर उठता है। निराशा उनसे कोसो दूर चली जाती है और जीने की तमन्ना बलवती हो उठती है।

“स्पर्श” वह अनुभव होता है जिससे शरीर स्थित रोम-रोम रोमान्चित हो उठता है। रुका संचार का वेग बढ़ जाता है । श्वांसों का वेग लय बद्ध हो जाता है उसकी इन्द्रियां जागृत हो जाती है। तब वह आँखें बन्द कर एक अलौकिक जीवन का अनुभव करता है जो उसे सिर्फ अच्छा और अच्छा महसूस होता है, भला लगता है, सुखद लगता है और सुख की भावना ही उसे दुखों से छुटकारा दिलाती है। इस प्रकार जो लेक्टिक अम्ल व्यक्ति के शरीर में बढ़ जाता है वह धीरे-धीरे घट कर उचित मात्रा में आ जाता है और तब व्यक्ति स्वमं को तरोताजा, एवं निरोगी स्वस्थ तथा हष्ट-पुष्ट महसूस करने लगता है।

‘मदर टेरेसा’ प्यार, वात्सल्, स्नेह की जीती जागती देवी ही तो थी। उनके सान्निध्य में अनेको रोगी स्वस्थ्य हुए ।

इसी प्रकार जिसे व्यक्ति मन ही मन पूजने लगता है, कार्यो में आस्था प्रगट करने लगता है, प्यार करने लगता है, स्नेह करने लगता है उसका स्पर्श मात्र उसकी जिन्दगी को बदलने के लिए काफी होता है।

हमारे हाथ के पंजे या हथेलियाँ जब बड़े प्यार और अपनेपन से किसी का स्पर्श करती है तो नाड़ी संस्थान पर तुरन्त असर होता है । शीर्ष या रीढ की हड्डी पर दस्तखत होती है और सन्देश मस्तिष्क तक पहुँच जाता है जो रोगी को क्रियाशील बनाता है।

जिस प्रकार छुई-मुई की पत्तियाँ छूने से तुरन्त छुई-मुई होकर सिकुड सी जाती है। व्यक्ति भी स्पर्श मात्र के एहसास से अन्तर मन तक छुई-मुई सा हो जाता है । हर्ष एवं उल्लास से विभोर हो उठता है । और रही सही कसर हमारे मधुर बोल, हमारी संयमित वाणी पूरा कर देती है । अगर हम उत्साह वर्धक वाक्यों का प्रयोग अस्त्र के रुप में करते हैं तो व्यक्ति उसे अकाट्य सत्य मान कर उत्साहित हो जाता है और इतना किसी भी प्रकार की मानसिक विक्षिप्तता को दूर करने के लिए पर्याप्त होता है।

अपने जादुई हाथों से अगर हम किसी का उपचार कर पाते है, किसी को नवजीवन दे पाते है, अपनी मधुर वाणी से किसी के मन को शीतलता प्रदान कर पाते हैं तो इसमें बुरा ही क्या है ।

स्वयं में छिपी शक्ति को पहचानिए तथा अपनों को जीवन में निरुत्साहित होने से बचाईये।

©A

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