ग़ज़ल
जख्म ताजा कहीं लगा होगा,
दर्द का एक सिलसिला होगा।
देख अठखेलियों से शब्दों की,
मन का हर द्वार खुल गया होगा।
हो के कल ख्वाब की नगरिया से,
नभ सितारों से भर गया होगा।
जो उफनती नदी पे आया हो,
उसको मुल्के अदम मिला होगा।
रोशनी की चुभन से डरकर ही,
वह अंधेरों के घर गया होगा।
रस्म और ये रिवाज के नश्तर,
जख्म नासूर सा बना होगा।
मर्म के अनखुले तिलिस्मों को,
कोई चीख़ों से भर चला होगा।
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