जरा उठो तो सही

सोचते सोचते जाने कितना समय गुजर गया राजीव को, पूरे एक वर्ष तो यूँ ही घर की इस खिड़की पर प्रतिदिन बैठकर गुजर गये है, जिंदगी में कितना उतार-चढ़ाव आया, जाने कैसे यह सब पलक झपकते हो गया, वह तमाशा देखता रह गया, फिर भी कसूरवार ठहरा दिया गया। मां पिताजी साथ न देते तो उसका जाने क्या होता है ।

वह उसके सामने कुछ नहीं कहते, किंतु पिताजी के ललाट की रेखाएँ उनके चिंतनीय होने की चुगली कर ही देते है। अब तो कुछ समय से वह भी ठीक-ठाक सोच पा रहा हैं मन भी व्यवस्थित हो गया है, अब अपने बच्चों को अपने पास रख सकता हूँ।

किस तरह शादी के दस वर्ष हँसी खुशी में निकले, कुछ पता भी नहीं चला। तीन बच्चों से चाहकता घर स्नेहलता के साथ हम सभी सुखी थे। काल के लंबे हाथों ने स्नेहलता को हमसे छीन लिया, हम सदमे से भी नहीं उबर पाए कि स्नेहलता के भाइयों ने बच्चों को अपने कब्जे में ले लिया।
जब भी वह बच्चों से मिलने जाता, धक्के मार कर घर से निकाल देते, बच्चों को एक कमरे में बंद कर देते, वह भी मुझसे मिलने को रोते, चिल्लाते किंतु उनकी एक न सुनी जाती। स्नेहलता के भाइयों का मानना था कि स्नेहलता की जान उसकी वजह से गई है।
दोषारोपण था कि उसे खाने पीने को नहीं दिया जाता था, इसलिए वह इतनी दुबली हो गई, ठीक से रखते नहीं थे, वगैरा-वगैरा ढेरों आरोप लगाये जाते।
इतना अपमान सहकर बच्चों के मोह में हर तीसरे चौथे दिन ससुराल पहुँच जाता था साथ भेजना तो दूर, उसे बच्चों से मिलने भी नहीं दिया जाता।

मां पिताजी, अन्य रिश्तेदारों ने सारी कोशिशें कर देखी, सब बेकार ही गई।
इन परिस्थितियों के चलते दो वर्ष गुजर गए, स्नेहलता के जाते ही बच्चों के साथ वह भी अनाथ हो गया। दूसरों के रहमों करम पर पलने लगा, वह मानसिक रूप से इतना परेशान था कि नौकरी छोड़ दी, न कोई उत्साह, न उमंग, गुमसुम घर पर रहता।

बहनों व रिश्तेदारों ने पुनर्विवाह करने की ठान ली, आनन-फानन में एक परिवार की लड़की देखी और शादी की तैयारी शुरू कर दी गई । उससे कुछ नहीं पूछा गया। वह तो जो कहा जा रहा था यंत्रमानव की तरह वैसा ही करता गया ।

उसके यहाँ सादा समारोह, लेकिन लड़की वालों ने खूब सजावट की थी, उनके यहाँ लड़की की पहली शादी थी, लड़की की विदाई मैं दोनों भाई साथ आए थे। दूसरे दिन ही वह दुल्हन विदा करा ले गए। सुहागरात अगले फेरे पर करने की बात रिश्तेदारों ने तय की थी, चूंकि परिस्थितियों प्रतिकूल नहीं थी, इस बात को ध्यान में रखकर यह एहतियात बरती गई थी ।
दुल्हन अपने भाइयों के साथ वापस चली गई, दान दहेज काफी दिया था, वह ज्यों का त्यों रख दिया गया, क्योंकि यह एक समझौता था इसलिए घर वालों को भी कोई विशेष उत्साह नहीं था।
दूसरे दिन दुल्हन के घर से खबर आई कि दुल्हन की तबीयत खराब हो गई है अतः राजीव को तुरंत भेजें। घर वाले भुक्तभोगी थे, रुके हुए नजदीकी रिश्तेदार सभी पहुँचे, देखा तो…. वहाँ दुल्हन की अंतिम यात्रा की तैयारी चल रही थी, राजीव ने तो दुल्हन की एक झलक भी नहीं देखी थी। सदमा ऐसा कि सभी की सोच समझ जाती रही, कुछ समझ नहीं आ रहा था सभी अचम्भित, यह सब कैसे हो गया, अचानक तबीयत खराब होने पर ऐसे कैसे हो गया। स्थितियाँ बद से बदतर हो गई, राजीव पूरी तरह शून्य।

बहुत दिन गुजर गए गर्मियों में बहन जीजा आए। दहेज का सारा सामान बंद पड़ा था जीजा बोले… “सारा सामान बाहर निकालकर फेंको, किसी को दान दे दो, क्यों रखें हो । उनके कहने पर सामान खोला गया। समान के ऊपर लिखी इबारत को पढ़ते ही सभी सकते में आ गए। बर्तनों पर भी खुदा हुआ था … छाया की तेरहवीं में दान दिया।

दुल्हन के नाम शादी में इस तरह उपहार देने का मतलब किसी को समझ नहीं आया बहुत समय बाद उन्हीं के दूर के रिश्तेदारों से मालूम पड़ा कि दुल्हन को कोई बीमारी थी मौत निश्चित थी भाइयों ने प्यार के तहत उसे सुहागिन विदा करने का सोचा और इस तरह यह कांड हो गया। राजीव हर कदम पर ठगा गया।

पहली ससुराल वाले बहुत खुश थे कि राजीव और उसके घर वालों को उनके कर्मों का फल मिल है। अब तो राजीव की जीने की लालसा भी जाती रही, सारे समाज के सामने
पूरे परिवार सहित ठगा गया था। राजीव के मां पिता को इस उम्र में यह जिल्लत सहनी पड़ी।
बहुत सा समय गुजरता गया, समय हर धाव भरता ही हैं, राजीव व्यथित होने की परिधि से बाहर निकाला, सोचा जब जीना है तो अपना मन मार कर क्यों, अपने बच्चों को छीन कर अपने पास क्यों नहीं रख सकता, उन्हीं की तरह चलाक बनकर, अपने बच्चे हासिल कर लूँगा, यूँ बैठा नहीं रहूँगा, वह उठा, अपने बच्चों को लाने आत्मविश्वास से भरा वह वकिल के घर जाने वाली सड़क पर आ गया। ……