Adbhut dvar अदभूत द्वार

लखनऊ में रिक्शा कर जब निकलें तो मन वैसे ही कसैला हो गया, हरि,उषा को बिठाये, एक मरियल आदमी रिक्शा खिंच रहा है। पता नहीं रिक्शे को चालक की सूखी हड्डियों में फंसी हुई नशे खींच रही थी या उन दोनों पति-पत्नी के वजन से रिक्शा अपने आप आगे बढ रहा है।

मन, मन-मन भारी हो गया, उस समय कोई ऐसा साधन नहीं था कि लखनऊ में कुछ और सवारी करके घुमा जा सके, कुछ दूर चलने के बाद रिक्शेवाले ने ही बताया कि यह लखनऊ की सबसे प्रसिद्ध पान की दुकान है, हरि ने रिक्शा रुकवाया।

“मेरे लिए भी जरा दो पान बनवा लाना,”…हरी रिक्शे से उतरे और पान की दुकान पर बढ़ने लगे तब उषा बोली।

हरि पलटकर रुके और उषा को देखने लगे, यह पान तो खाती नहीं उस पर दो पान,…हरि ने आश्चर्य से देखा।

“दो पान,”..हरि ने पूछा।

“हां दो चाहिए,”…उषा ने भी सपाट शब्द में बोला।

हरि ने कंधे उचकाये, पलटकर पान की दुकान की ओर बढ़ गया, दो पान बधंवा के उषा को दे आया, पैसे देकर मुड़ा तो देखा, उषा पान रिक्शे वाले को दे रही है, ओर बड़े गौर से उसके चेहरे को निहार रही है।

“बता देती तो रिक्शा वाले की पसंद का पान बनवा देता,”…होटल पहूँच कर हरि बोला।

“संकोच बस, हो सकता है वह मना कर देता, उसके चेहरे पर अचानक मिले, खजाना की सी खुशी देखी मैंने, गालों पर उभर आई हड्डियों के बीच से निकलकर ख़ुशी नटराज की मानिंद नृत्य कर रही थी, मुझे उसके चेहरे की उस अदभूत छवी देखने को कहा मिलती, इतना परसकून पाया है मैंने जिसका मैं बयान नहीं कर सकती “…उषा अपने उस सुख को महसूस कर जिस तरह इस समय उसके चेहरे पर नूर छलकने लगा,जैसे उसे जिन्दगी जीने का कोई बेहतरीन जरिया मिल गया हो।

उषा के एक ओर हुनर से हरि ने अपने हिस्से का सुख पा लिया।

©A

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