Ankahe jajbat अनकहे जज्बात

आज जब दुकान पर सामान लेने पहुँची तो वह वहाँ पहले से ही मौजूद हैं, उसने उचटती नजर से उसे देखा, फिर अपना सामान निकलवाने के लिए दुकानदार को बताने लगी, कुछ देर बाद एहसास हुआ कि वह घूर रहा है, जब एक दो बार और देखा तो अपनी और देखता पाकर कुछ अजीब सा लगा।

बड़ा बेहुदा आदमी है, अपना सामान समेटते हुए जैसे ही जाने को मुड़ी आवाज सुनाई दी।

“सुनो, सुभ्रा”…

अच्छा तो जनाब मेरा नाम भी जानते हैं, वह पास आ गया, मुड़कर देखा।

“आप सुभ्रा।”..

“जी,”.. रुखे से स्वर में कहा।

“मुझे पहचाना मैं अविनाश हूँ,”… उसने आशा भरी नजर से देखा।

मस्तिष्क पर जोर दिया किंतु ऐसा कोई अविनाश नाम का व्यक्ति याद नहीं आया।

“बटकाखापा याद है, वही हर्रई जागीर के पास वाला, वहाँ हम छठवीं कक्षा में साथ पढ़ते थे, मेरे पापा डॉक्टर थे,”…उसे सोचता पाकर उसने कहा। वह याद दिलाने व याद आने वाली नजर से उसकी तरफ देखने लगा।

अब उसे सूखा सा, लंबा, हाफ पैंट, हाफ शर्ट, स्कूल ड्रेस का वह सावला लड़का याद आ गया। याद भी क्यों न आता, दो बातें उसके जीवन की उसे अच्छे से याद है। उसके चेहरे पर पहचान जाने के भाव नजर आने लगे। चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट भी आ गई, पुरानी बातें होती ही ऐसी है कि न चाहते हुए भी मन खुश हो जाता है। एक पल में ही वह स्कूल, वह गाँव, वहा के साथी, उस समय की सारी घटनाएँ चलचित्र की भांति नजरों के सामने से गुजर गई।

“बहुत सालों बाद मुलाकात हुई है, कहीं बैठकर चाय पी जाए, वहीं बातें करेंगे,”..उसने प्रस्ताव रखा।

वह सहर्ष तैयार हो गई, पास के ही कैफे में पहुँच गये, चाय का आर्डर देकर चुप्पी छा गई, पुरानी स्मृतियाँ घेरने लगी।

पहली घटना अविनाश के छोटे भाई के जन्मदिन की हैं, जब उसकी मम्मी ने सभी गाँव की महिलाओं को बुलाया, उसकी मम्मी भी उसे और छोटे भाई, बहनों को लेकर अविनाश के घर पहुँची।

जब सभी एकत्रित हुए, तब बीच में एक चौकी रखी गई, उस पर अविनाश बैठा, उसकी गोद में उसका छोटा भाई, दोनों को टीका लगाकर उसकी मम्मी ने बतासे, चिरौंजी, चॉकलेट की थाल उन दोनों के ऊपर उलट दी, फिर क्या था, सभी छीना-झपटी करने लगे, किसी को बहुत कुछ हाथ आया, तो किसी को कुछ भी नहीं, यह तमाशा सुभ्रा ने खड़े होकर देखा, उसे खड़ा देखकर अविनाश की मम्मी ने कहा.. “तुम भी ढूंढों, तुम्हें भी कुछ मिल जाएगा।”

सुभ्रा उस नये रिवाज को आश्चर्य से देखती रह गई। इस तरह के समारोह में कभी गए भी नहीं थे, और छोटे भी थे, यह बहुत आश्चर्यजनक घटना थी, क्योंकि जब भी हम लोगों ने अपने पापा के विभाग के समारोह में गए हैं, वहाँ तो पार्टियों में केक काटना, इस तरह की चीजें ही होती हैं, जहाँ बड़े सलीके और तहजीब से सभी का स्वागत और सत्कार किया जाता है, तो यह तो हमारे लिए वैसे भी बहुत ही अप्रत्याशित घटना हो गई।

इस समारोह का दूसरे दिन सुभ्रा ने जो का त्यों वर्णन अपनी सहेलियों को सुनाया, अब जब भी अविनाश अकेला निकलता कोई न कोई उसे छोड़ देता,.. “क्यों चॉकलेट तुम्हें मिले या नहीं ?” बेचारा, शर्मा जाता और हम सब बुक्का फाड़कर हँसते, जिसमें उसकी हँसी, बुलंदी पर होती।

इसी वजह से शायद वह सुभ्रा से चिढ़ने लगा था, वह लड़कों में अफवाह फैलाने लगा।

“सुभ्रा ने उससे अकेले में बात की है।”

अब सभी लड़के, क्या बात की है, जानने के लिए अविनाश के पीछे पड़ जाते और वह उन्हें राज की बात कह कर चुप हो जाता।

यह सिलसिला जाने कब तक चला कि उसमें से एक महा सीधे-साधे लड़के ने सुभ्रा को आकर यह बात बता दी, फिर क्या था, वहा मात्र क्लास की सात लड़कियाँ, प्रिंसिपल के कमरे में पहुँची, पूरी बात तो बता नहीं पाई, बस इतना ही कहा,

“सर, अविनाश हमारे बारे में गलत बात बोल रहा है।”

“अच्छा ठीक है,” कह कर जाने का कह दिया।

तीसरे पीरेड में प्रिंसिपल सर आये। अविनाश को खड़ा किया, बिना कुछ जाने, पूछे तड़ातड़ आठ-दस थप्पड़ रसीद कर दिये।

हम सबको काटो तो खून नहीं। मन अब न मारे सर, कह रहा है, किंतु हिम्मत जवाब दे गई। महा सीधे प्रिंसिपल का गुस्सा पहली बार देखा है। अपराधी बनी सुभ्रा चुपचाप तमाशा देखती रही, पूरी क्लास खामोश, सभी कभी अविनाश को तो, कभी हम सब को देख रहे हैं।

वह उसके बाद दो दिन स्कूल नहीं आई। उन थप्पड़ों की गूंज उसे सपने में भी सुनाई देने लगी, अविनाश का मलीन चेहरा नजरों में तैरता रहता, मन, मस्तिष्क में खौफ व्याप्त हो जाता।

इसके बाद के दिनों में तो मानो अविनाश लड़कियों के गुजरने के रास्ते तक की तरफ नजर भी नहीं आता। उस समय यह बातें सामान्य सी लगने वाली एक ऐसी घटना ने, न चाहते हुए भी हिंसक रूप ले लिया।

परीक्षाएँ समाप्त होते-होते पापा का ट्रांसफर हो गया, हम सभी रिजल्ट के पहले ही दूसरी जगह चले गये। बचपन की बातें, कब तक याद रहती, भूल ही गये की कभी वह घटना भी घटी है।

सुभ्रा की दो सहेलियाँ जब पूरे दो वर्ष बाद, उसके घर आई, जब हम आठवीं क्लास में थीं, बोर्ड परीक्षाएँ कुछ केंद्रों में ही होती थी, उन्होंने जब सुभद्रा से छठवीं के पेपर में नकल के बारे में पूछा, तो वह सन्न रह गई। उन्होंने बताया कि अपनी कक्षा के पेपर प्रिंसिपल सर ने जांचें थे, तुम्हारी हिंदी की परीक्षा कॉपी में पुस्तक का आधा पेज चिपका था, प्रिंसिपल सर ने उन दोनों को बुलाकर सुभ्रा की कॉपी दिखाई, गनीमत यह हुई कि आधे पेज की जगह से स्याही की लिखी कुछ लाइने नीचे दिखाई दे रही थी।

प्रिंसिपल सर, को समझ आ गया था कि हो न हो यह कारस्तानी अविनाश की होगी, शायद उसका मकसद सुभ्रा को फेल कराना रहा हो। प्रिंसिपल सर, ने उसे ही जांच कर नंबर दे दिए थे। इस तरह उस साल सुभ्रा पास हो गई ।

उस अविनाश को भूलना असम्भव है, हां सूरत अब याद नहीं है, जब हम दसवीं क्लास में थे, तब पता लगा अविनाश के पापा का देहांत हो गया है, उसकी जगह मम्मी को नर्स की नौकरी मिल गई है, सुनकर अच्छा नहीं लगा था।

वही अविनाश ऊँचा पूरा, स्वस्थ, हैंडसम नजर आ रहा है उसका वह सावला रूप जाने कहाँ जा समाया है। दोनों ही अपने-अपने ख्यालों में खोए हुए हैं।

“सुभ्रा, तुम्हें बचपन की घटना याद है,”.. अविनाश पूछ रहा है, वह वर्तमान में वापस आ गई।

“कौन सी वाली,”…सुभ्रा ने संभलकर पूछा।

“शायद तुम्हें पता नहीं, उस घटना को लेकर में अकसर एकांत में परेशान रहता हूँ, तुम्हारे चले जाने के बाद, मेरे पापा का भी ट्रांसफर हो गया था, इसलिए मैं, यह जान ही नहीं पाया कि मेरी वजह से उस वर्ष तुम पास हो भी पाई या नहीं, थोड़ा बड़े होने पर यह बात जब भी परेशान करती, अक्सर सोचता प्रिंसिपल को पत्र लिखकर अपनी गलती मान कर माफी माँग लूँ, किंतु कभी हिम्मत नहीं जुटा पाया, अपने ही अपराध बोध तले दबता रहा,”.. अविनाश का स्वर खेद भरा हो गया।

सुभ्रा खामोश।

“आज तुमसे अपने अपराध की क्षमा मांगता हूँ,”… अविनाश का स्वर तार-तार हो गया

“अविनाश, तुमने कोई अपराध नहीं किया, उस समय हमारा बचपना था, यह सब तो अबोध हरकतें थी, उसे तुमने इतना महत्व क्यों दिया ?”…सुभ्रा ने समझाने की कोशिश की।

“मुझे, तुम्हारा एक साल बर्बाद करने का गम सलता रहा है,”..वह अधीर हो बोला।

“अब दुःखी मत हो, उस वर्ष में पास हो गई थी,”… वह मुस्कुरा कर बोली।

“तुम्हें वह घटना कैसे पता,”.. उसने आश्चर्य से पूछा।

“यह घटना मुझे दो वर्ष बाद ही पता चल गई थी, तुम्हें याद हैं, प्रीति, प्रमिला जो मेरे ही साथ स्कूल जाती थी, उन्हीं ने बताया था,”..सुभ्रा सहज हो बोली।

“मुझे तुम्हारे बारे में कभी कोई जानकारी नहीं मिली, वरना बहुत पहले तुमसे मिल लेता,”.. अविनाश ने अपनी विवशता दर्शाई।

“मुझे भी अविनाश, तुम माफ करना, उस समय यह नहीं सोचा था कि सर तुम्हें इतनी भयानक सजा देंगे, आज भी थप्पड़ की गूंज सुनाई देती है,”…सुभ्रा ने भी अफसोस के अंदाज में कहा।

अविनाश झेंप गया। कितने स्वच्छंद और निर्मल झरने सी जिंदगी थी बचपन की, याद आते ही वह सुनहरे पल याद आने लगते हैं। कुछ देर यूँ ही मौन पसरा रहा, दोनों अपनी-अपनी दिल के भार को उतरने का अनुभव को समेट रहे हैं।

“अविनाश, आजकल क्या कर रहे हो,”.. सुभ्रा ने बात का विषय बदला, अब इच्छा बलवती हो रही है कि इस समय अविनाश क्या कर रहा है, कहाँ रह रहा है, उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है, यह सहज ही उपजी अभिलाषा है।

“एक कारखाना डाल रखा है।”

“शादी हो गई,”…

“हाँ एक बेटी भी है, क्या तुम भी इसी शहर में हो ?”..

“हाँ, मेरी भी एक बेटी है,”..बेटी का ध्यान आते ही वह उठ खड़ी हुई।

“फिर कब मुलाकात होगी,”..

“जल्दी ही मिलते हैं, अपना नम्बर दो,”..

नंबरों का आदान प्रदान हुआ और मोबाइल में सेव भी कर लिया गया।

अच्छा अविनाश,अब चलती है, बहुत देर हो गई है, बेटी को छोड़े,”..

“हम बचपन के साथी हैं सुभ्रा, मेरी उस भूल को भूल कर अपने परिवार के साथ कब आ रही हो मेरे घर,”.. अविनाश ने पूछा।

“बहुत समय बाद मेरे भी, अनकहे जज्बात व्यक्त हुए हैं, बचपन के साथी को पाकर, मिली खुशी को मैं महसूस कर रही हूँ, अब तुम्हारे परिवार को देख कर संतुष्ट होना चाहती हूँ, बहुत जल्दी मिलने की संभावना निकालते हैं, ठीक है, बाय अविनाश,”…सुभ्रा कहती हुई सड़क की दूसरी तरफ आ गई, जहाँ उसकी गाड़ी खड़ी है।

आज उसे लग रहा है कि उसके पंख निकल आए हैं, इतना पुराना मवाद जो बह निकला है, अब घाव भरने में समय नहीं लगेगा, वह आज खुश बहुत हैं।

उधर अविनाश सुभ्रा की दूर जाती गाड़ी को हसरत भरी नजरों से ओझल होते देख रहा है, बचपन की कसक का यूँ फूर्र हो जाना बहुत सुकून दे रहा है, फिर मिलने की उम्मीद लिए।

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