Come back आ लौट चलें

आ लौट चलें

बहुत समय बाद घर वापस लौटी है वह लगभग पन्द्रह वर्ष हो गये गली में घुसते ही बचपन की सोंधी खुशबू ने ताजा दम कर दिया कच्चे-पक्के मकानों का एक न खत्म होने वाला सिलसिला, इस गली की छोर पर भी नजर आता रहता है अगर मोड़ न आए तो और आगे तक मकानों की श्रृंखला नजर आ जाए।

नाना जी के घर के तीनों तरफ से गली गुजरती है समझ लो कि तिराहे पर बना है। घर की छत पर शाम गुजारना और गपशप करना हम सभी का शगल था। आने जाने वालों का रेला और शाम को पशुओं का लौटना, मन को परम सुख देता। शाम होते ही घरों से तरह-तरह के व्यंजनों की खुशबू पर हम भाई बहनों का अनुमान लगाना कि क्या किसके घर में पक रहा है, कितना अलबेला था न बचपन, न किसी की चिंता और न ही कोई जिम्मेदारी।

मामी, मौसी का तो समय चौके चुल्हें के बाद, हम भाई बहनों के साज सवार में ही निकल जाता । गाँव की चिकनी मिट्टी से सर धोना और उसके बाद उठती बालों से सोंधी खुशबू को दिन भर बालों को आगे कर सुघना, आज भी रचा बसा है । बचपन की अठखेलियाँ बार-बार याद आती है ।

घर के सामने पहुँच गई, बहुत देर तक घर को निहारती रही। सूना पड़ा है आंगन।
घर की चाबी लेने पहुँची, काकी तो नहीं हां उनकी बहु से मुलाकात हुई।

“आप रुक्मणि बुआ की बेटी हो क्या दीदी,” बहू उसे देखते ही याद करने की कोशिश करती हुई बोली।

“हां मैं, रोचना हूँ आप सब कैसे हैं,”… औपचारिक ही सही, पता है हर घर से एक पीढ़ी चली गई है, बचे हैं तो उनके किस्से जिन्हें अब उसे सुनना है।

“अच्छा आप अंदर आओ दीदी मैं नव्या हूँ आपकी पूरन काकी की पांचवी और सबसे छोटी बहू,”… उसके स्वर में अपनत्व झलक आया, तो गर्व भी विराजमान है।

रोचना अंदर दलहान में बैठ गई, नव्या भागकर अंदर चली गई ठंडा पानी ले आई, अप्रेल का महीना हल्की गर्मी ने पदार्पण किया ही है, पसीना पोछती लोचना ने अपनी नानी के घर की तरफ नजर घुमाई तो लगा, सूना मकान अब असहाय, उदास, निराशा, बुढ़ा सा लग रहा है। रौनक का दौर रोचना की आँखों के आगे से फिल्म की तरह गुजर गया। छज्जे पर बैठकर हम उम्र बहनों का गप्पे मारना और साथ में पास के इमली के पेड़ से तोड़ी कपोलों के साथ नमक मिलाकर चटकारे लेना याद आते ही रोचना के मुँह में पानी आ गया।

नव्या शरबत बना लाई, दोनों ने बैठ कर पिया।

“बड़े भैया यानी तुम्हारे जेठ हरकिशन कहाँ है क्या कर रहे हैं,”… रोचना ने अब नव्या के परिवार के बारे में पूछा।

“बड़े भैया की पांच साल पहले एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई, भाभी बच्चों के साथ मायके चली गई और फिर कभी नहीं लौटी, सुना है भैया की सरकारी नौकरी भाभी को मिली गई है, वह शहर में ही रम गई, दो बच्चे हैं अब तो कॉलेज में आ गए हैं,”.. नव्या विस्तार से वर्णन कर रही है।

रोचना ने नव्या का अब गौर से देखा, एकहरे बदन की नव्या सुंदर है नाक नाक तीखे, आँखें उत्सुक और चंचल, अल्हड़पन का झलकता पैमाना लेकिन बातों की पोटली ऐसी खोलती मानो उसे हर आने जाने वाले, नये, पुराने लोगों का सिलसिलेवार सब बताना ही उसकी दक्षता है। उसका यूं तुरंत ही अपनत्व डोर में बांधकर बात करना अच्छा ही लगा रोचना को ।

हरिकिशन के नाम से ही रोचना के अंदर कुछ उछलने लगता है, उसके नहीं रहने की बात सुनकर लगा अंदर जो उछल रहा था वह शांत किसी कोने में जा बैठा है, उदास रोचना को अफसोस हुआ।

“दुख हुआ यह सुनकर नव्या, तुम्हारे पति क्या करते हैं,”…अब आगे और किसी के बारे में जानने का मन नहीं हो रहा है।

“यह पास की तहसील में बिजली विभाग में लाइनमैन है, सुबह ही चले जाते हैं, शाम को लौटेंगे,”…नव्या ने गर्व से अपने पति की सरकारी नौकरी की बात बताई।

रोचना भी मुस्कुराए बिना न रह पाई, उसकी उत्सुकता वह समझ रही है, जल्दी-जल्दी अपने बारे में बता कर रोचना के बारे में जानने की उत्सुकता है।

दोपहर का समय है गाँव की महिलाएँ, क्या पुरुष भी खाना खाकर सोने का यह वक्त होता है, तीन बजे तक सभी चाय पी लेंगे। रोचना को याद है जब मामी तीन बजे की चाय के लिए आवाज लगाती तो मन करता मना कर दे, कहाँ अपने घर पांच बजे चाय पीते और यहाँ पर दोपहरी में चाय, अक्सर कोफ्त होती, लेकिन मन मारकर पीते और फिर आदत हो जाती ।

शाम छः बजे तो खाने की थाली लग जाती और सात बजते, बजते चूल्हा चौका बंद, फिर होता दूध गर्म करना, दही जमाना, बर्तन सुबह के लिए दूध के बर्तन गरम पानी से धो कर रखना, इसमें ही रात के नौ बज जाते, फिर होती बिस्तरों में समाने की बारी, ज्यादा गर्मी लगी तो आधे घंटे को छत पर बैठ जाते, बड़े-बड़े आँगन में खाट डली होती, पूर्णीमा की झक चांदनी रात में नींद के आगोश में समा जाना, आज सोच कर ही लग रहा है कि अब यह सब कितना मुश्किल होगा।

“तुम, कहाँ तक पढ़ी हो नव्या,”.. रोचना ने जानना चाहा।

“मैं तो दीदी इंटर करके दो साल पहले ब्याह के यहाँ आई थी, तब भी इस घर में कोई नहीं रहता था, सब शादी में शहरों से आए और वापस चले गए मैं अकेली ही रह गई,”…नव्या का स्वर उदास है।

“अरे, तो क्या हुआ सभी को अपनी गृहस्थी खुद बनानी होती है देखो मेरी नानी के घर हम पन्द्रह बीस लोग इकट्ठा होते थे और आज मैं अकेली ही हूँ, यह जीवन है, इसमें यह सब होता रहता है नव्या,”… रोचना कह तो गई लेकिन अकेलेपन का दंश उसके चेहरे पर साफ नजर आ रहा है।

“कह तो सही रही हो दीदी, मैं कर भी क्या सकती हूँ, आपका यहाँ आना कैसे हुआ दीदी,”… अपनी जिज्ञासा उजागर कर ही दी नव्या ने।

“शहर की जिंदगी से कुछ राहत महसूस करने, अपने पुराने दिनों के साथ समय गुजरने चली आई,”…

“अच्छा किया आपने, अभी तो रहोगी न कुछ दिन दीदी,”.. नव्या ने निश्चित किया कि दो-चार दिन में ही वापस तो नहीं चली जाने वाली है।

“हां हां अभी कुछ समय रहूँगी, नाना नानी की धरोहर है यह, फिर पुराने सारे किस्से दोहराने ही तो आई हूँ मैं, तुम्हारा साथ अच्छा रहेगा नव्या,”… रोचना ने मुस्कुरा कर कहा।

“मुझे भी अच्छा लगेगा दीदी, अच्छा बताएं क्या खाएंगे, वही बना लाती हूँ,”…

“नव्या मैं खाना लाई हूँ, अभी नहीं पहले चलकर घर खोलते हैं फिर सोचेंगे,”…

“मैं भी चलती हूँ दीदी,”… कहती हुई वह दरवाजे की कुंडी चढ़ाने लगी।

नाना जी का घर को हाथ से सहलाते हुए जब उसने ताला खोला तो एक आह निकल आई । यह पहला मौका है जब इस घर के दरवाजे बंद मिले हैं, यह दिन भी आएगा रोचना ने कभी सोचा नहीं था।
धूल से अटा पड़ा है घर, नव्या चारों तरफ घूम-घूम कर देखने लगी उसे झाड़ू की दरकार है, कहीं नजर नहीं आई, पीछे आँगन में गई तो तिनका तिनका हो चुकी झाड़ू, मिट्टी में तब्दील हो चुकी, बरसों से वही पड़ी है कि गवाही दे रही है।

“दीदी में झाड़ू, कपड़ा लेकर आती हूँ,”.. कहती नव्या तीर सी निकल गई।

रोचना एक-एक सामान पर हाथ फेर रही है मानों नानी के हाथों को छू रही हो, हम लोगों के आने पर मामी का द्वार पर तेल से नजर उतारना याद आ रहा है। दलहान में झूला यूं ही लटक रहा है। रोचना को अंदर हौल उठा और रुलाई फूट पड़ी, वह जार-जार रो पड़ी उसे फिर वही पुराना घर सभी सदस्यों के साथ हंसता खेलता, इस घर में जीवंत हो उठा ।

“आप इतनी सुंदर हो, मामाजी सावले, कभी लगता नहीं कि जोड़ी ठीक नहीं है,”….रोचना अक्सर मामी को छेड़ देती।

“चल हट, सावला रंग तो कृष्ण का भी है, गोपियां तो वारी-वारी जाती है उनके रंग पर,”…मामी झेपती हुई कहती, उनके कहने के अंदाज़ पर हम सब बहनें ठहाका लगाकर हंसते,…. ओय.. होय.. राधा रानी…..
मामी शर्मा कर चली जाती।

हमें पता था कि यह चुहलबाज़ी उन्हें भी अच्छी लगती है। इसी तरह हम सभी उन्हें हंसाने के मौके तलाशते थे, हमारे आने पर उनका प्रसन्न होना ही हमें हर छुट्टियों में नानी के घर खींच लाता।

“नव्या, आते ही घर साफ करने लगी, रोचना ने कहा भी कि कोई ऐसा मिल जाए तो उसे बुलाकर घर साफ करा लेंगे लेकिन नव्या कहाँ सुनने वाली है। अपनी साड़ी का आँचल कमर में खोंसा और शुरू हो गई। दो घंटे में घर धो पोछ कर चकाचक कर दिया, बर्तनों के लिए वह अपनी कामवाली को बुला लाई, उसने पूरी रसोई चमका दी।

रोचना सोच रही है कि शहरों में इतना अपनत्व क्यों नहीं मिल पाता। यहाँ नव्या से पहली मुलाकात है, और देखो, लग ही नहीं रहा कि उसे वर्षों से नहीं जानती है ।

शाम का खाना नव्या के घर ही खाया, उसके पति से मुलाकात हुई, उसने भी नव्या को ध्यान रखने का कह दिया, उसका अधिकार जमाना अच्छा भी लग रहा है।

“जितने दिन रहो खाना मैं बना दूंगी दीदी,”…नव्या ने कहा।

“नहीं नव्या तुम भी तो मेरे साथ रह लेना,”…कहकर रोचना ने नव्या को चुप करा दिया।

दूसरे दिन उसे लेकर दुकान पर गई, रसोई की खाद्य सामग्री पैक करवा आई, दुकानदार ने लड़का भेजकर सामान घर भिजवा दिया। नव्या पूरी रसोई जमा गई, गैस टंकी ले आई, एक बर्नर का चूल्हा भी उसी के घर से उठा लाई, रोचना मना ही करती रही पर नव्या कहाँ मानने वाली थी।

दूसरी शाम सभी घरों से बहुएँ, सांस, लड़कियाँ, आ गई, रोचना को कुछ पहचानती भी है, सब से मिलकर जहाँ रोचना को अच्छा लग रहा है, वहीं नाना जी का मोहल्ला भी खुश है।

रोचना ने अपने सभी भाई, बहनों को आने का निमंत्रण दिया, फिर क्या था, एक-एक कर सब खींचे चले आये और नानाजी, नानी का सुना पड़ा घर फिर से गुलजार हो गया।

सभी ने तय किया कि हर वर्ष दो माह हम सभी यही गुजारेंगे बच्चों का तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा, पीछे बड़े से बाड़े में, फलों फूलों के पेड़ों पर चढ़ना उतरना, उनको यह सब कहाँ शहरों में नसीब है, इतनी लंबी चौड़ी जगह, जहाँ बच्चे मनचाहा खेल रहे हैं, न कोई टोका टाकी, न डर, बस मस्त बचपन खिलंदड़ी बन उछल रहा है।

अपनी जड़ों से जुड़े रहेंगे तो ही न हम, हम होंगे, नव्या हमारे साथ ऐसे घुल मिल गई मानो हमारे घर की सदस्य, अब तो हर वर्ष आने का वादा नव्या से सभी ने किया है।

©A

0000

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *