Determination दृढ़ संकल्प

दृढ़ संकल्प

वह तीन देवरानी जेठानी हैं। सबसे बड़ी औरीना जो शहर में रहती है। दूसरे नंबर की चिन्ना गाँव में रहती है। तीसरी छोटी मिन्नी भी दूसरे शहर में रहती है। गर्मियों की छिट्टयों में सभी गाँव पहुँच जाते हैं। चारो ननदें व दोनों औरीना और चिंतना का बच्चों सहित अगमन हर साल होता है। एक माह सब साथ रहते हैं। बच्चे भी शहर की टेंशन से निजात पाकर मस्त रहते हैं। गाँव के घर में भैसेव गायें हैं पर्याप्त दूध दही मिलता है। खेतों में घूमने जाना, शाम को बैलगाड़ी पर सैर करना, बच्चों को मनपसंद काम है।

तीन ननद गाँव के आस-पास के ही गाँवों में ब्याही हैं। एक ननद दूर शहर में हैं। उन्हीं की बड़ी बेटी की शादी निकली है। सास-ससुर को जाना ही था। औरिना बड़ी है अतः उसका जाना निश्चित है, छोटी को छोटी तथा नई होने का फायदा मिल गया। रह गई बीच चिन्ना, जो कभी कहीं नहीं जा पाती थी, उसके दुःख को महसूस कर औरीना ने उदारता दिखाई ओर अग्रह कर उसे शादी में जाने को तैयार कर लिया।

गाँव में जानवरों की साज संभाल औरीना कर लेगी कहकर, चिन्ना को मना कर
भेज दिया, औरिना के घर रहने पर दोनों देवर, बच्चे, सभी जा पा रहे हैं, किंतु
उसकी सास को व बीच वाली देवरानी चिन्ना को यह खटका अवश्य लगा रहा कि क्या औरीना भाभी, पढ़ी-लिखी व शहरवासी गाँव का घर सँभाल पायेगी?

औरीना ने अपनी तरफ से आश्वस्त कर दिया। अब वह कितना सजह होकर गई पता नहीं?

पहला दिन गाँव का, सुबह चाय पीने के लिए पहले चूल्हा जलाना पड़ा तब कहीं
चाय मिली। चाय पीने का सारा मज़ा जाता रहा। पूरे घर में झाड़ू करते-करते
कमर जवाब दे गई। पड़ोस में काकी सास रहती हैं, वह यह माजरा देखती रहीं।
अब बारी थी गाय-भैंसों को छोड़कर गौशाला साफ करने की। गोबर उठाने के लिये
औरीना ने फावड़ा उठाया और एक तसले में गोबर भरने लगी। गोबर इतना भारी होता है कि हाँफने लगी, फिर उसे उठाकर कूड़े के ढ़ेर पर फेंका। झाडू उठाई और पूरी गौशाला झाड दी, पर औरीना दमादम हो गई, हाथ मुँह धोकर जो पलंग पर पड़ी कि होश ही नहीं। थक कर चूर-चूर हो गई और जाने कब आँख लग गई।

ग्यारह बजे आँखें खुलीं तो भूख लग आई थी। चूल्हा जलाते हुए सोचती रही कि अगर शहर में यूँ घर खुला छोड़कर सो गई होती तो सारा सामान साफ हो गया होता। गाँव में इस बात का डर कम ही है, मात्र दो रोटी पकाई, सब्जी की जगह प्याज अचार का
मसाला बनाया और चटपट खा ली।

अब औरीना पता चलने लगा कि शहर और गाँव के जीवन में क्या अंतर है? छोटे-छोटे घरों में रहते रहे हैं, इतने बड़े घर में चलना ही भारी पड़ने लगा। चाय के लिए इतनी जद्दोजहद करो तब कहीं एक प्याला चाय मिलती है। उस पर भी कंडे व लकड़ी के धुएँ से स्वाद ही बदल जाता है। शहर में लाइटर से गैस जलाना व चाय बनाना दो मिनट का काम है। अब लगा कि चार दिन बिताना औरीना को भारी पड़ सकता है।

हैंडपंप से पानी ढचकाते-ढचकाते हाथ ही रह गया। पहला दिन काफी थकान रही किंतु दूसरे दिन से वह काम को विभाजित करने का मन बना लिया, चादरें, पर्दे धोकर साफ किए। साफ-साफई की, सोफे पलंग नये तरीके से सजाए। गाँव का बढ़ई बुला लिया जिससे मनपसंद आकर के स्टूल बनवाये। दुकान से पेंट मंगवाया और शुरू हुआ घर को रंगने सजाने, संवारने का काम। मन में एक बात थी कि यदि वह गाँव में रहती तो कैसे रहती? बस उसी रूप में ढाल लिया घर को।

पड़ोस में रह रही काकी सास औरीना की लगन देखकर दंग रह गईं। उनका विचार था कि पढ़ी लिखी बहु यह सब नहीं कर पायेगी। अब वह इस बात को मानने को तैयार हो गईं कि पढ़ी लिखी बहू से घर किस तरह संवर उठता है।

औरीना को अब यह चार दिन कम लगने लगे, लगा एक दो दिनों बाद ही यह लोग वापस आयें तो अच्छा हो, घर के रखे पुराने मटकों पर उसने अपनी चित्रकारी छाप दी जिन्हें बैठक में सजा दिया,यह बातें कभी पहले क्यों नहीं है यह सोच कर उसे अफसोस हो रहा है बच्चों के खाने पहनने और गप्पे मारने से ही पूरा समय निकल जाता था और वो एक महीना बिता कर वापस चले जाया करते थे कभी घर को बस करने का सोच ही नहीं पाए आज इतने बरसों बाद से अकेले रहने का मौका मिला और उसने घर की कायापलट कर दी, उसे ही घर का परिवर्तित रूप अच्छा लगने लगा।

जब सब वापस आए तो ससुरजी अंदर से फौरन बाहर आ गये, पूछने लगे…
‘‘यह घर अपना ही है ना कहीं दूसरे के घर में तो नहीं आ गए?’’

उनके कथन से औरीना गदगद हो गई। हर सदस्य घर के कोने-कोने का मुआयना करने दौड़ पड़ा।

दीदी मुझे माफ़ कर दो, आपको अकेला नहीं छोड़ना था,”… देवरानी चिन्ना माफी माँगने लगी।

‘‘क्यों क्या यह घर मेरा घर नहीं? मेरा तो यहाँ अच्छा मन लग गया था, देखो
तुम्हारे घर को कैसे सजा दिया।’’… औरीना ने उत्साह से अतिरेक होकर बोला।

‘‘अब मैं इसे सदा ऐसे ही रखूँगी।’’ देवरानी चिन्ना बोली।

“तुमने भी अपनी सोच समझ से बहुत अच्छे से रखा था। यह मैंने अपनी समझ से किया।”… औरीना बोली।

‘‘आपका किया दीदी सभी को पसंद भी तो आया है।’’..चिन्ना ने कहा।

‘‘हाँ! यह इसलिये है कि तुमने बहुत समय से बदलाव नहीं किया था। अब हर एक
दो माह में बदलते रहना। वह जगह नई सी लगेगी, सबको अच्छा भी लगेगा।’’… औरीना ने समझाने के लहजे में कहा।

‘‘आपने तो गौशाला भी संवार दी दीदी।’’…

‘‘अरे कहाँ ? पुरानी हो गई चीजों को वहाँ टाँगने से थोड़ा सा अच्छा लगने लगा है।’’..औरिना ने सतही होकर कहा।

‘‘इसलिए तो कहते है शिक्षा जरूरी है। मैं पढ़ी-लिखी होती तो मैं भी ऐसा कर पाती।’’…चिन्ना अफसोस जताती हुई बोली।

‘‘दुःखी क्यों हो रही हो अब भी पढ़ सकती हो।’’ औरीना ने उत्साह दिखाया।

‘‘सच दीदी !’’ देवरानी चिन्ना की आँखों में चमक आ गई।

‘‘मैं तुम्हें पढ़ाने में मदद करूँगी, देखना एक दिन तुम भी पढ़ी-लिखी कहलाओगी।’’…औरीना ने कहा तो भाववेश में उसने चिन्ना ने हाथ थाम लिया, जिसकी पकड़ बहुत मजबूत है, और था चेहरे पर निश्चय का भाव, जहाँ आत्मविश्वास से भरी चिन्ना की आँखें तरल हो उज्जवल भविष्य के दृश्य देखने में तल्लीन हो गई।

सुख की और सीखने की कोई निश्चित अवधि नहीं होती उसे कभी भी कहीं भी कैसे भी आप खुद भोग सकते हैं, शुरू कर सकते हैं और अपने जीवन को कभी भी कैसे भी अपने अनुसार ढाल सकते हैं जब आप दृढ़ निश्चय कर शुरू करें मंजिल मिलना तय है।

©A

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