Ya vahi to nahi यह वही तो नही
लंबे-लंबे डग भरती वह जाने कितनी दूर चली आई है, पीछे मुड़कर देखा होता तो साफ जाहिर हो जाता कि वह डर रही है।
सामने ही पार्क का गेट है, अन्दर पहुँच गई, कुछ तो राहत मिली, थोड़ी देर सुस्ता कर ही घर जायेगी, सोचती व भीड़भाड़ वाली जगह से एक तरफ होकर बैठ गई।
गहरी-गहरी सांसे लेती वह सोच रही है, यह तो रोज का काम हो गया है, पिछले पन्द्रह दिनों से वह इसी तरह दफ्तर से निकलती है, बड़ी चौक के पास आते-आते सांस बेकाबू होकर स्वत: ही तेज-तेज चलने पर मजबूर हो जाती है, उसे लगने लगा है कि कोई उसका पीछा कर रहा है, राह चलते हर चेहरे को टटोलती, कहीं वह यही तो नहीं, जो पीछा कर रहा है, तरह-तरह के ख्याल आते और उलझन भरी जाने कितनी देर तक चलती और पार्क में जा समाती, हर किसी पर नजर पड़ते ही व शक करती।
आज वह अपने इस शक से खुद ही की खीज पड़ी, पलट कर देख नहीं सकती तो इतना डरती क्यों है ? कल जरूर पलटकर देखेगी, चाहे कुछ भी हो, यदि वह कोई है, तो वह तो देख ही रहा है उसे, वह क्यों न देखे, डरती तो वह ही रही हैं।
क्या करूं यदि उस दिन घर पर पत्थर न पड़ते तो वह क्यों कर डरती, अकेली रहती लड़की को समाज चैन से जीने भी तो नहीं देता है। क्या कहे किसी से, वैसे भी वह अंतर्मुखी है, ज्यादा अपने बारे में किसी को नहीं बताती, क्या पता बातों-बातों में कोई कमजोर बात मुँह से निकल जाये तो, बाद में लेने के देने पड़ जाये, यह छोटा कस्बा है, यहा ज्यादातर लोग स्थानीय है, कुछ सर्विस करते हैं, एक, दो या ज्यादा से ज्यादा पांच वर्ष में तबादला हो ही जाता हैं, इसलिए भी यहाँ नया कोई भी आता तो उत्सुकता का केंद्र बना रहता है।
उसकी पोस्टिंग जब पोस्ट ऑफिस में पोस्ट मास्टर के रूप में हुई तो वह खुश हुई थी। अलग-थलग बने सरकारी क्वार्टर में से जब उसे एक बंगला मिला तब भी खुश हुईं थी, आस पास खाली मैदान है, थोड़ी दूर पर दूसरा बंगला है, वैसे तो सभी यहाँ दिखते तो नॉर्मल ही है, पता नहीं घर में उसकी तरह डरते हो और जाहिर नहीं होने देते होंगे।
जाने कैसे उस रात बारह ही बजा था, उस रात वह पुस्तक पढ़ते-पढ़ते सो गई थी, अचानक धम-धम की आवाजें आने लगी, चौक कर जाग गई, तो महसूस हुआ छत पर पत्थर पड़ रहे हैं, वह दम साधे पड़ी रही, पता नहीं इतनी रात को कौन होगा, थोड़ी देर बाद ढेर सारे कदमों के भागने की आवाजें आई, तब उसने घड़ी देखी रात के बारह बजकर दस मिनट ही हुए हैं।
वह हिम्मत कर खिड़की तक नहीं पहुँच पाई, डर के मारे चादर तान कर दुबक गई। बस तभी से यह हाल हो रहा है मन में एक ही भाव जागता है कि कोई उसका पीछा कर रहा है।
पार्क से उठकर व पुनः घर की ओर चल पड़ी, कल जरूर उस व्यक्ति को देखेगी, प्रण कर लिया, बार-बार दोहराते हुए अपनी धुन में चली जा रही है।
“आज तो बीबी जी, देर कर दी, मैं तो घर वापस जा रही थी, चलिए अब साथ ही चलती हूँ,”…रास्ते में दुर्गा मिल गई ।
“अरे तुम घर से वापस आ गई,” …चौककर विमला ने पूछा।
दोनों घर की तरफ साथ चलने लगी, आज पहली बार विमला ने दुर्गा से उसके परिवार के बारे में पूछा, उसने बताया चार बच्चे हैं, एक लड़का तीन लड़कियाँ, पति नगर पालिका में काम करता है।
“दुर्गा, तुम और घरों में भी काम करती हो,”.. सवाल बेफिजूल था फिर भी पूछा, क्योंकि जब पहले दिन वह काम पर आई थी तभी उसने बता दिया था।
“आपको बताया तो था बीबीजी, डॉक्टर साहब के घर काम करती हूँ, बस घर का भी काम करना पड़ता है, ज्यादा समय निकाल ही नहीं पाती,”… दुर्गा ने अपनी असमर्थता जताई।
“बीवी जी, आप देर रात में कहीं निकला न करो, यहाँ तक खेतों से जंगली सूअर आ जाते हैं, फिर बस्ती के लोग मिलकर भगाते हैं, बड़ा खतरनाक इलाका है, पिछले वर्ष धनिया हलवाई के दो साल के खेलते बच्चे को जंगली सूअर उठा ले गये थे, तभी से सब मिलकर उन्हें पत्थर मार-मार भगाते हैं, अभी पन्द्रह दिन पहले आपके मकान की तरफ ही सब आये थे, लोग कह रहे थे बीबीजी,अब की बार आठ ,दस जंगली सूअर साथ आये थे, आप दरवाजे खिड़की बंद रखा करो बीबीजी,”… .बातों-बातों में दुर्गा बताने लगी और भी जाने क्या-क्या कहती रही ।
विमला अपनी ही सोच में मशगूल, उस दिन के पत्थरों का राज यह है, वह विलावजह ही इतने दिनों परेशान रही। घर पर पत्थर पड़ना यह ऐसा कांड है कि किसी से वह कुछ भी नहीं पूछ पाई और मन में जो एक धारणा थी कि लड़कियाँ जिस घरों मैं होगी, उन्हीं के घर में मनचले पत्थर मारते हैं, समाज में यह बड़ी बेइज्जती की बात होती है, अपनी इस बचकानी सोच पर आज उसे बेहद अफसोस हो रहा है।
मां सच कहती हैं कभी-कभी अपनी परेशानी किसी के साथ बांट लेना चाहिए, परेशानी कम न भी हो, तो हल्की हो ही जाती है।
विमला के होठों पर मुस्कान तैर गई, आगे से अपनी एक अंतरंग सखी अवश्य बनाएगी, जिसके सामने, अपने अन्दर के पिटारे को नि:संकोच खोल सके, आज वह अपने पिछले पन्द्रह दिनों से सोच रही “यह वही तो नहीं”, पर खुलकर हंसी, फिलहाल अंतरंग सखी के रूप में दुर्गा तो है ही।
©A
बहुत बढ़िया। सार्थक सोच है। कभी-कभी हमारे भीतर पनपती गलत धारणाएँ मन में निरर्थक भय पैदा करने का कारण बन जाती हैं।
जी आदरणीय सादर अभिवादन