आसमान बुनती औरतें

भाग (161)

“आप क्या सोचने लगे सर ? इतनी गंभीरता, मेरी बात का बुरा लगा सॉरी सर, मैंने आपको इस अंदाज में कभी बात करते नहीं सुना इसलिए यह रिएक्शन हो गया मैं माफी चाहती हूँ।”… हर्षा करें क्या, माफी मांगते-मांगते भी उसे विनय के बोलने का अंदाज याद आते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई पूरी कोशिश कि लेकिन ऐसे कैसे हो सकता है जब आपके पूरे व्यक्तित्व पर हँसी के स्त्रोत फूटे पड़ रहे हो तो चेहरे पर मुस्कान रोकने पर भी झलकना लाजमी है।

विनय हर्षा के इस रूप को बहुत गौर से निहार रहा है वह समझ रहा है कि नारी अगर प्रसन्न होती है तो पूरी कायनात आपको खुश लगती है नारी का यह रूप कितना मनमोहक है वह अपने लिए खुश होती है लेकिन अपने आसपास के पूरे माहौल में खुशियाँ बिखेर देती है, जिसका होना ही मानव की उत्पत्ति है अगर यही मानव उसे खुशी नहीं दे पाता तो उससे बड़ा दुर्भाग्य किस्मत वाला कोई नहीं हो सकता, ईश्वर ने इतनी किमती धरोहर दी है जिसमें सिर्फ अपने शब्दों से, अपने दिल से इतनी खुशियाँ बाँटने का महासमुन्द भरा है कि अपने साथी को तमाम उम्र खुशियों से भरा रखें।

“सर, सर,.. हर्षा ने विनय को खोया हुआ देखकर आवाज लगाई, वह समझ गई कि विनय कहीं और निकल गये हैं।

“हाँ… चौंककर विनय ने देखा। हर्षा उसे ही देख रही है।

“सर, आप मुझे कुछ बताने वाले थे मेरे किस रूप को देखना चाह रहे हैं कृपया बताइये।”…

“फिर कभी बात करें इस विषय पर, समय भी हो रहा है मैं चलता हूँ।”…विनय ने बात को टालने के लिए कहां।

“नहीं सर, आज तो आपको बताना ही होगा ऐसे बात को बीच में मत छोड़िए वरना मैं सोचती रह जाऊँगी कि आप क्या कहना चाह रहे थे।”…

“ऐसी कोई विशेष बात नहीं है आप चिंतित न हो।”…

“आप चाहते हैं कि मैं चिंता न करूँ तो कृपया कर बोलिए।”…हर्षा विनय से अपने लिए कुछ अच्छा ही सुनने के मूड में है बात को आगे कैसे बढ़ाये जब वह आगे बढ़ाना चाहती है तो विनय चुप लगा जाता है जब विनय बोलता है तो कहीं न कहीं वह बात से बचती रहती है।

“ठीक है मैं बताता हूँ पर एक बार फिर आप से कहता हूँ कि आप बुरा मत मानिएगा यह मेरी सोच है कोई दबाव नहीं।”…

“ठीक है, कह दीजिए, आप इतना संकोच क्यों कर रहे हैं मैंने कहां न कि मैं बुरा नहीं मानूँगी।”…

“ठीक है फिर सुनो ! मैं चाहता हूँ कि आप मुझे मेरे काम की कमी पर डांटे, मेरे ऑफिस से देर से आने पर मुझ से सवाल जवाब करें, मुझे टाइम पर आफिस भेजने के लिए बार-बार टोके और जब मैं समय पर घर से न निकलूं तो मुझे धकेलते हुए घर से बाहर निकाल दे, मैं टिफिन भूल जाऊँ तो टिफिन लेकर ऑफिस पहुँच जाओ, वहाँ साथ बैठकर हम खाना खाये, मैं जबरन आपको अपने ऑफिस में बिठाए रखूं, शाम को एक साथ वापस घर आकर आप मुझ पर खूब सारे आरोप लगाए, सअधिकार आप मेरी कमियों को चुन-चुन कर मुझे गिनाएं और जब आपने आंचल से अपने चेहरे के पसीना पोछे तो मैं आपको पंखा कर सुकून देने का काम करु, आपकी हर बात को अमृत समझ कर पी जाऊँ…

“बस.. बस.. सर, कुछ ज्यादा नहीं हो गया यह सब, यह बातें बैठे-बैठे कहना अच्छी लगती है लेकिन जब यही सामने आयेंगी तो आप पलटकर ऐसा करारा जवाब देंगे कि सामने वाला चारों खाने चित, यह सब ख्यालों में अच्छा लगता है हकीकत इसके विपरीत होती है।”… हर्षा ने टोकते हुए कहां।

“यही धारणा तो बदलना चाहता हूँ क्योंकि मैं इन बातों के लिए तरसता हूँ इन बातों से अपने होने के बावजूद को महसूस करना चाहता हूँ आपके होने को जीना चाहता हूँ, मुझे तो आपकी हर बात बहुत अच्छी लगती है क्योंकि जो लोग इन बातों के लिए पहले से तैयार होते हैं उन्हें कभी भी अपने साथी से इन बातों पर बुरा नहीं लगता, कभी गौरी नहीं करते हैं लोग कि आपका साथी आपको टोकता है, रोकता है तो उसमें कितनी बड़ी खुद की भलाई छुपी होती है इस बात को अगर पुरुष समझ ले तो उसे अपने जीवनसाथी के रूप में कौन मिला है तो कभी भी नारी का अपमान करने की हिमाकत नहीं कर सकता।”…

हर्षा तो अचम्भित बैठी रह गई, विनय के इतने उच्च विचार, इतनी गंभीरता से कही गई बातें गलत तो नहीं होती फिर उम्र के जिस पड़ाव में है वहाँ ठहराव कि उम्मीद कि जा सकती है यह कोई युवा दिल का मसला नहीं है जहाँ पर भावना बलवती होकर कुछ भी अनाप-शनाप कहने के लिए प्रेरित करे।

क्रमश:..

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