ग़ज़ल
गमों के दौर अभी और बढ़ने वाले हैं,
न मंजिले हैं नजर में न कुछ उजाले हैं।
कहें भी क्या उसे डर रूठने से लगता है,
कि उसने चेहरे कई अपने मुख पर डाले हैं।
उड़ें भी कैसे वो आकाश में बताओ तो,
किसी ने पंख परिंदों के नोच डाले हैं।
मिले थे तुमसे कभी जो वफ़ा की राहों में,
जो लम्हे प्यार के हमने बहुत सम्भाले हैं।
किसी का हक़ न कोई मार कर यहाँ खाये,
दिये खुदा ने सभी के लिए निवाले हैं।
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